समी अहमद
कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी एकता से साफ दूरी बनाये रखने वाली तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पद से आगे निकलना चाहती हैं, इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं है। लेकिन उनका यह कहना कि कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए जैसी कोई चीज बची नहीं है और विपक्षी एकता की हर कोशिश में कांग्रेस से दूरी बनाये रखने की उनकी नीति जरूर हैरान करती है।
ऐसे में दो राय बनती है। एक तो यह कि ममता बनर्जी खुद को कांग्रेस के विकल्प के रूप में स्थापित करने की कोशिश कर रही हैं। दूसरी राय यह है कि वे वास्तव में राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस को कमजोर करने की प्रधानमंत्री मोदी की चाल में मिली हुई हैं।
इस संदर्भ में यह बात ध्यान देने की है कि हाल में ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मुलाकात की तो वह तल्खी गायब थी जो बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान दोनों के बीच पायी गयी थी। खासकर प्रधानमंत्री मोदी के ’दीदी ओ दीदी’ के संबोधन से; भाजपा नेताओं द्वारा उन्हें ममता बेगम कहना भी कम कटु नहीं था।
राजनीतिक प्रेक्षक इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि विधानसभा चुनाव के बाद कैसे केन्द्र की एजेंसियों ने ममता बनर्जी और उनके परिवार के खिलाफ जांच की गति को नियंत्रित कर रखा है। और सद्भावना के लिए ही सही ममता हर साल प्रधानमंत्री मोदी को उपहार भेजना नहीं भूलतीं। इस बार विधानसभा चुनाव के बाद भी यह सद्भावना जारी रही।
यह बात भी गौर करने की है कि भाजपा अगर ’कांग्रेस-मुक्त भारत’ का नारा देती है तो टीएमसी ’कांग्रेस-मुक्त विपक्ष’ में लगी हुई है।
टीएमसी कैसे ’कांग्रेस-मुक्त विपक्ष’ की कोशिश में लगी है यह सिर्फ इस बात से परिलक्षित नहीं होती कि वह कांग्रेस के नेतृत्व वाली विपक्षी दलों की बैठक से दूर रहती है बल्कि जिस तरह विभिन्न राज्यों में वह चुन-चुन कर कांग्रेसी नेताओं को तोड़कर अपने में शामिल करवा रही वह भी विचारणीय है। अभी गोआ में जिस तरह टीएमसी कोशिश कर रही है, उत्तर-पूर्व में कांग्रेस नेताओं को तोड़ रही है और बिहार से भी दो चर्चित नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल करवाया है, वे ममता बनर्जी के बंगाल से बाहर पांव पसारने की स्पष्ट रणनीति के ज्वलंत उदाहरण हैं।
इसके साथ ही यह बात भी ध्यान देने की है कि बंगाल में कांग्रेस का नामोनिशान मिटाने के साथ-साथ ममता बनर्जी ने वामपंथियों को भी परिदृश्य से लगभग गायब कर दिया है। यह बात टीएमसी के साथ-साथ भाजपा के लिए भी लाभदायक है कि वहां वामपंथी दल दोबारा सशक्त न हों। तो बंगाल से कांग्रेस और वामपंथी दलों का पतन भाजपा और टीएमसी दोनों का समान लक्ष्य प्रतीत होता है, जो दोनों ने प्राप्त भी कर लिया है। राष्ट्रीय स्तर पर भी कांग्रेस का यही हाल है जिससे उबरने में उसके नेता संघर्ष कर रहे हैं।
इतना ही नहीं मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार से मुलाकात के बाद उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व पर भी यह कहते हुए निशाना साधा कि राजनीति में सतत प्रयास की जरूरत होती है। बकौल ममता- अगर आप आनन्द के लिए विदेश भ्रमण करते रहते हैं तो लोग आप पर कैसे भरोसा करेंगे। इसके बाद उन्होंने भाजपा से दूरी सिद्ध करने वाला बयान भी दिया कि वही राजनेता भाजपा से मुकाबला कर सकते हैं जो जमीनी सच्चाई को जानते हैं- एक तरह से यह राहुल गांधी पर सीधा हमला था, यह जताने के लिए वे बराबर विदेश जाते हैं और क्षेत्र की जानकारी नहीं रखते।
इसके साथ ही ममता बनर्जी ने बंगाल विधानसभा चुनाव में अपनी जीत के हवाले से कहा कि हमने ऐसा कर दिखाया है। लेकिन यह बात भी याद रखने लायक है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में ममता बनर्जी भाजपा की बढ़त को रोकने में बिल्कुल नाकाम रही थीं।
फिलहाल इस बात पर बहुत कम लोग यकीन करना चाहेंगे कि ममता और मोदी मिले हुए हैं लेकिन यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि राजनीति की खिचड़ी में कौन कब किस चूल्हे पर चढ़ जाए कहना मुश्किल है। और सत्ता की राजनीति में असंभव शब्द की बहुत कम गुंजाईश होती है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि ममता बनर्जी और शरद पवार दोनों कांग्रेस से अलग होकर भाजपा के साथ मिलकर राजनीति कर चुके हैं। अगले कुछ महीनों में ममता-मोदी की कथित मिलीभगत के बारे में राय और स्पष्ट होगी, विशेषकर उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की हार-जीत का बहुत असर पड़ेगा।