Krishna Janmashtami : आज के ही दिन 3102 ईसा पूर्व को 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकंड  पर  हुआ था कलयुग का प्रारंभ 

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Krishna Janmashtami : योगीराज श्री कृष्ण जी महाराज का 5251 वां जन्मदिवस 

देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट

आज के ही दिन 3102 ईसा पूर्व को 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकंड  पर  कलयुग का प्रारंभ हुआ था। यद्यपि उस समय तक ग्रेगोरियन कलेंडर प्रचलित नहीं था, लेकिन अब से गणना करने से इस प्रकार की संख्या आती है।
कलियुगाब्द विश्व का उपलब्ध प्राचीनतम प्रमाणिक संवत है। वर्तमान में  जब यह लिखा है तो कलियुगाब्द  5123 प्रचलित है। महाभारत युद्ध के प्रारंभ होने से पूर्व ही घोषणा श्री कृष्ण जी महाराज ने कर दी थी कि कलयुग शुरू हो चुका है। महाभारत के युद्ध के दौरान कृष्ण जी की आयु 128 वर्ष थी। कलियुगवर्ष व कलयुग के प्रारंभ होने का  समय 5123 व कृष्ण जी की आयु  128 जोड़ने पर 5251 वर्ष पूर्ण हो जाते हैं, इस प्रकार आज 20 अगस्त 2022 को श्री कृष्ण जी का 5251 वा जन्मदिन है। महाभारत युद्ध की समापन के पश्चात सम्राट युधिष्ठिर आर्यावर्त के चक्रवर्ती सम्राट बने और युधिष्ठिर संवत् भी प्रारंभ हुआ।
महाभारत के पश्चात सम्राट युधिष्ठिर ने 36 वर्ष राज्य किया था और 36 वर्ष के पश्चात जब कृष्ण जी का स्वर्गलोकगमन हो गया तो युधिष्ठिर ने भी अपने भाइयों के साथ हस्तिनापुर का राज्य छोड़ दिया था। अर्थात महाभारत युद्ध के बाद में 36 वर्ष 8 माह कृष्ण जी महाराज और जीवित रहे थे । इस प्रकार 128 वर्ष की आयु जो द्वापर में पूरी की गई थी उसके साथ 36 वर्ष 8 माह जो कलयुग के प्रारंभ में पूरी की गई थी को जोड़ा जाए तो परलोक गमन के समय श्री कृष्ण जी की आयु करीब 163 _164 वर्ष थी।
ब्रज का शाब्दिक अर्थ ऐसे स्थान से है,जहां गाय चराई जाती हों। अर्थात गोचर हो। प्राचीन एवं वैदिक साहित्य में ऐसा ही विवरण आता है। ब्रज प्रदेश को शूरसेन जनपद कहा जाता था महाभारत के समय में। सातवीं सदी में जब ह्वेनसांग भारत में आया तो मथुरा का राज 5000 मील  था। मथुरा का प्राचीन नाम मधुरानगरी था। इसी में कंस की कारागार में श्री कृष्ण का जन्म हुआ था।
श्री कृष्ण के धनुष का नाम सारंग था। श्री कृष्ण के कुल गुरु गर्गाचार्य थे तथा शिक्षा गुरु महर्षि सांदीपनि थे। महर्षि सांदीपनि का आश्रम क्षिप्रा नदी के किनारे उज्जैन में था। कृष्ण जी के भाई का नाम बलराम और बहन का नाम सुभद्रा था। बलराम बहुत ही बलशाली थे, जो खेती करते थे। इसीलिए उनको सदैव हल कंधे पर दिए हुए दिखाया जाता है। महाभारत का युद्ध द्वापर के अंतिम दिनों में कलयुग के प्रारंभ में हुआ था। श्री कृष्ण का जन्म द्वापर में हुआ था। श्री कृष्ण के पालक माता पिता का नाम यशोदा माता का नंद बाबा था। वासुदेव की दो बहने कुंती एवं श्रुतश्रवा  थीं। कुंती का विवाह गंगा नदी के किनारे पर हस्तिनापुर राज्य के कुरुकुल में महाराज पांडु के साथ हुआ था। महाभारत के पश्चात युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर  से शासन किया था। राजा जन्मेजय के समय में गंगा नदी की बाढ़ द्वारा क्षतिग्रस्त होने के कारण हस्तिनापुर के स्थान पर राजधानी कौशांबी प्रयाग के पश्चिम मे  यमुना नदी के किनारे पर  द्वारा बसाई गई थी।वासुदेव के पिता का नाम शूरसेन था। शूरसेन की पत्नी नगा प्रमुख की सुपुत्री सुरेशा थी। वासुदेव का दूसरा भाई देव भाग था। सूर के बेटे वासुदेव ने महाराज उग्रसेन के भाई देवक की पुत्री देवकी से विवाह किया था। उग्रसेन का ही बेटा कंस था। जिसका कृष्ण जी ने मथुरा में ही वध किया था। तथा मथुरा एवं आसपास के क्षेत्र को कंस के अत्याचारों से निवृत्ति कराई थी। शूरसेन की बेटी श्रुतश्रवा का विवाह मगध के राजा चेदिराज दमघोष के साथ हुआ था । तत्कालीन मगध में वर्तमान बुंदेलखंड मध्य प्रदेश बिहार का काफी क्षेत्र आता था। चेदिराज दमघोष का  पुत्र शिशुपाल था ।अर्थात शिशुपाल श्री कृष्ण की बुआ का पुत्र था। जी धीराज दम घोष को भी विवश होकर जरासंध की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी थी। जरासंध यादवों का घोर शत्रु था। कंस जरासंध का जामात्र था। श्री कृष्ण ने जरासंध के दामाद कंस का वध किया था। जरासंध की इच्छा थी कि वह उत्तर की तरफ अपने राज्य का विस्तार करें लेकिन कंस के वध के बाद जरासंध का यह विचार अवरुद्ध हो गया था जरासंध को कृष्ण से विशेष शत्रुता थी शिशुपाल जोकि श्री कृष्ण की बुआ का लड़का था जरासंध के प्रभाव के कारण वह भी श्री कृष्ण जी से शत्रु भाव रखता था। जरासंध कूटनीति के तहत शिशुपाल उसे पुत्रवत प्यार करता था।  कृष्ण जी के विरुद्ध शिशुपाल को भड़काता था। शिशुपाल को यह भी भ्रम हो गया था कि वह जरासंध की छत्रछाया में यादवों से कहीं अधिक शक्ति अर्जित करके प्रभावशाली हो जाएगा। लेकिन जरासंध को श्रीकृष्ण ने हर विषय में मात थी।
राजा कुंती भोज ने शूरसेन की बड़ी पुत्री प्रथा को गोद ले लिया था। शूरसेन और कुंती भोज मामा बुआ के भाई होने के कारण संबंधि थे। इसलिए प्रथा का नाम कुंती भोज के स्थान पर कुंती हो गया था । राजा कुंतीभोज का राज आज के मुरैना मध्य प्रदेश के आसपास था। जहां उसकी राजधानी कुंतीभोजपुरम के अवशेष आज भी मौके पर मैंने देखे हैं ।जिस स्थान को वर्तमान में कोतवार ,कुतवार कहते हैं। चेदी का अपभ्रंश चेची है जो गुर्जर जाति का एक गोत्र है।
श्री कृष्ण जी महाराज एक योगेश्वर थे। महान एवम्  विचित्र थे। वह अपने समय के बहुत बड़े बुद्धिमान थे। अपने समय में वेदों के प्रकांड पंडित थे । महाराजा कृष्ण का ऐसा प्रबल आत्मा था कि दूसरों का आत्मा उनके आत्मिक बल से प्रभावित होकर उनके ही आदेशों पर चलने लगता था। हम कृष्ण जी को एक आदर्श पुरुष एवं कर्मयोगी मानते हुए उनका बहुत सम्मान करते हैं। परंतुश्री कृष्ण ईश्वर के अवतार नहीं थे। जो लोग ऐसा कहते हैं वह वेद की सिद्धांत को भूल जाते हैं की ईश्वर कभी से शरीर पृथ्वी पर नहीं आता। ईश्वर तो अजन्मा है अर्थात वह कभी जन्म नहीं लेता। ईश्वर कभी जन्म मरण में नहीं आता कृष्ण जी का जन्म भी हुआ और उनकी मृत्यु भी हुई यह सर्वविदित है। लेकिन श्री कृष्ण जी के शरीर में जो आत्मा थी वह बहुत ही उच्च कोटि की रही होगी।
कृष्ण जी ने द्वारका को जब अपनी राजधानी और कर्मस्थली बनाया उसके पश्चात जिसको आज पश्चिमी एशिया कहते हैं वहां तक श्री कृष्ण जी का शासन था। इजराइल के लोग जो अपने आप को यहूदी कहते हैं यहूदी शब्द यहोवा से बना है। यहोवा शब्द की उत्पत्ति यदु से हुई है, यदु से याहू। संस्कृत के शब्द यहोवा का अर्थ महान होता है। यहूदी कृष्ण जी के वंशज हैं। जो मूर्ति पूजा नहीं करते और केवल एक ईश्वर में विश्वास रखते हैं ,आस्था है। इस प्रकार यहूदियों का यदुवंशियों से संबंध प्राचीन काल से है। सिंधु नदी के पश्चिम में पश्चिम एशिया तक यदुवंशियों का राज्य काफी समय तक रहा। भारत की समस्त जातियों यदुवंश बहुत प्रसिद्ध है यह वंश चंद्र वंश की उच्च कोटि का है यदुवंश के छह होने पर कृष्ण की संतान जागुली स्थान तक गई ।गजनी उर्फ गयनी तथा समरकंद के देशों को बसाया । तत्कालीन गयनी उनकी राजधानी भी रही है। इन्हीं के यदुकुल का शिलादित्य नाम का राजा था। जिससे पार्थियानो अर्थात पारसियों द्वारा ईरान और उसके आसपास का क्षेत्र छीन लिया था। उसका पुत्र ग्रहादित्य था। तब यह कुछ लोग भारत को भी लौटे। पंजाब पर अधिकार जमाया। यादवों की शाखा जाडेजा लोग भी हैं जो अपने आप को सोमपुत्र अर्थात साम्ब पुत्र कहते हैं, जिसका तात्पर्य चंद्रवंशी से है। इसी साम्ब से अपभ्रंश होकर जाम शब्द बन गया है जिनका कार्यक्षेत्र और राजधानी जामनगर गुजरात में है। कुछ विद्वानों के अनुसार मराठा भी इसी वंश के हैं। पंडित ज्वाला प्रसाद मिश्र के अनुसार भाटी जो जैसलमेर के राजा थे ,जिन्होंने संवत 1212 में जैसलमेर बसाया था। वह भी श्रीकृष्ण के बंशधर भट्टी थे जिनको भाटी कहा जाता है।  अरब में अब तक बहुत से आर्य निवास करते हैं, लेकिन उनका आचार विचार यहां के हिंदुओं का सा नहीं है। परंतु उनके यहां प्राचीन हिंदू चिन्ह पाए जाते हैं।

कृष्णा जी योगी ने योग शक्ति के द्वारा अपना विराट रूप प्रदर्शित करके अर्जुन के मोह का नाश किया था । यहां पर कृष्ण जी को ईश्वर का अवतार समझने की गलती हम ना कर दें। जैसे ईश्वर का विराट रूप होता है। ऐसे ही योगी का भी विराट रूप होता है । कृष्ण जी योगेश्वर थे। इसलिए उन्होंने अपना विराट रूप अर्जुन को दिखाया था।
विराट रूप ईश्वर भी दिखा सकता है और योगी भी दिखा सकता है । योगी इस पंच महा भौतिक मानव शरीर में रहते हुए भी विराट रूप दिखा सकते हैं। इससे दर्शक चकित हो जाता है। उसकी चंचल और मानसिक वृत्तियां केंद्रित हो जाती हैं ।दर्शक का अज्ञान समाप्त हो जाता है।
अर्जुन से श्री कृष्ण जी महाराज ने एक गुरु की भांति यही कहा था जैसे गुरु अपने शिष्य को कहता है कि तुम मुझे अब सब अर्पण कर दो, वही श्री कृष्ण ने कहा था ऐसा करने से शिष्य का अज्ञान समाप्त हो जाता है।
शिष्य की चिंता समाप्त हो जाती है। फिर भी किसी ऋषिमंडल ने श्री कृष्ण को ईश्वर का अवतार अर्थात भगवान के रूप में या पूर्ण ब्रह्म नहीं माना। वास्तव में मानव को बहुत ऊंचा विचार करना चाहिए। महाराज कृष्ण के जीवन को वास्तविक रूप में हमने जाना ही नहीं।  योगेश्वर महाराज कृष्ण की योग्यता एवं उनके चरित्र को नाना प्रकार से लांछित कर दिया है ।अनेक प्रकार की भ्रांतियां लोगों ने फैला दी है।

नाग नाथन  : देखिए योगिकवाद में जब योगी  आ जाता है तो उसके पांच अवगुण काम, क्रोध, लोभ ,मोह ,अहंकार इनमें से यदि कोई भी उसमें आ जाता है तो वह सर्प के समान हो जाता है। सर्प का प्रभाव उसके अंदर आ जाता है । वह विषधर बन जाता है। अर्थात योगी के अमृत को कोई भी एक अवगुण विष बनाने के तुल्य अपना क्रियाकलाप करने लगता है । ऐसा योगिक सूत्रों में आया है कि भगवान कृष्ण जहां अध्ययन में इतने पारायण थे। वहां योग में भी उनकी बड़ी प्रवृत्ति थी।  वे जब योगाभ्यास करने लगे तो यह पांच फन वाला शेषनाग बन गया। काम, क्रोध ,लोभ, मोह ,अहंकार उसके फन  कहलाते हैं। इसलिए भगवान कृष्ण अपने योगाभ्यास के द्वारा, अपनी प्रवृत्ति और विवेक के द्वारा इसके फनों के ऊपर नृत्य करने लगे। यही नागनाथन या नागमंथन है।
मेरा विनम्र निवेदन है कि इस विषय में पहले वास्तविक अर्थ को समझो और इसके वास्तविक अर्थ का ही प्रचार एवं प्रसार करो।

16000 गोपी कौन ? : 25 वर्ष की आयु तक श्री कृष्ण जी संदीपनी ऋषि के आश्रम में उज्जैन में , क्षिप्रा नदी के तट पर अध्ययन करते रहे। तत्पश्चात उनका विवाह संस्कार  रुकमणी के साथ हुआ। रुकमणी की अतिरिक्त उनकी और कोई नेता पत्नी थी और ना ही कोई प्रेमिका थी। राधा एक काल्पनिक चरित्र है। राधा नाम की उनकी कोई प्रेमिका नहीं थी। राधा का उल्लेख महाभारत अथवा तत्कालीन साहित्य में कहीं नहीं मिलता है। संसार में कृष्ण जी के बहाने से अश्लीलता करने के लिए बाद के साहित्य में कृष्ण जी का चरित्र हनन किया गया जो बहुत ही शर्म की बात है। वे विवाह उपरांत संसार के कार्य में व्यस्त हो गए। उनका जीवन संसार के कार्यों में रत रहकर भी बड़ी पवित्रता में परिणत रहा। महान रहा। श्री कृष्ण जी ने जीवन पर्यंत धर्म की रक्षा की। धर्म का परिमार्जन, परिष्करण एवं परिवर्धन किया।

धर्म की पुनर्स्थापना की। महाभारत के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया जो मात्र 45 मिनट का था। उनके नाम पर लंबी चौड़ी गीता क्षेपक लगाते हुए बनाई गई है। श्री कृष्ण जी महाभारत का युद्ध रोकना चाहते थे श्री कृष्ण जी इसीलिए दुर्योधन के दरबार में प्रस्ताव लेकर के गए थे कृपाल लोगों को सिर्फ आज गांव दे दो वह उन्हीं गांवों से अपना गुजर-बसर कर लेंगे। लेकिन दुर्योधन ने बिना युद्ध किए सुई की नोक के बराबर जमीन देने से इंकार कर दिया था और श्री कृष्ण जी का खुले दरबार में अपमान किया। उनको सुदर्शन चक्र चलाना पड़ा। दुर्योधन कृष्ण जी के प्रस्ताव को नहीं मानेगा क्योंकि ऐसा प्रस्ताव दुर्योधन के मूल चरित्र के विपरीत था। लेकिन कृष्ण जी को यह मालूम था कि भविष्य में यह संसार आवश्यक आरोप लगाए गा कि कृष्ण जी अगर चाहते तो महाभारत में होता और भारत गारत न होता।दुर्योधन के भोजन के प्रस्ताव को त्याग कर  विदुर जी के घर जाकर साधारण श्री रोटी साग के साथ खाई। विदुर जी की पत्नी को भी बुआ कहते थे क्योंकि कृष्ण जी की सगी बुआ कुंती की विदुर जी की पत्नी देवरानी लगती थी। उनके जीवन में कोई अश्लीलता किसी भी प्रकार की नहीं आई ।कभी किसी मानव के द्वारा उनकी किसी बात का विरोध अश्लील कहकर नहीं किया गया।
आज का मानव उनके विषय में कुछ कह रहा है जबकि उनका साहित्य काल कुछ अलग ही कह रहा है। उन्होंने 16000 वेद की ऋचाएं कंठस्थ की और वे उन्हें विचारों में रमण करते रहते थे ।वर्तमान समाज ने यह नहीं जाना और यह स्वीकार कर लिया कि 16000 गोपी  थी, जिनमें कृष्ण जी नृत्य करते रहते थे। अरे नृत्य नहीं, गोपनीय विषय जो प्रत्येक वेद मंत्र में निहित रहता है, उसी गोपनीय विषय के  चिंतन में  वे लगे रहते थे।

षोडश कलाएं : श्री कृष्ण जी 16 कलाओं को जानते थे। सोलह कलाएं क्या होती हैं? एक मत के अनुसार 16 कला निम्न प्रकार की होती हैं। सबसे प्रथम कला का नाम प्राचीदिग, दक्षिण दिग,  प्रतिचि दिग,उदीची दिग,  यह 4 कलाएं मानी गई है। पृथ्वीकला ,वायुकला, अंतरिक्षकला और समुद्र कला ,4 कलाएं यह थी। तीसरे स्थान पर सूर्यकला, चंद्रकला ,अग्निकला और विद्युतकला यह चार थी। चौथे नंबर पर मनकला ,चक्षु कला , श्रोत्रकला और सूंघने की कला ,इन सब को वह जानते थे। योग में श्री कृष्ण जी की कितनी गति थी ।
16 कलाओं को जानने वाला महापुरुष होता है इसलिए श्री कृष्ण जी को महान कहते हैं।
परंतु इस संबंध में वैदिक विद्वानों का क्या कहना है इस पर भी जरा विचार कर लेते हैं।
वैदिक विद्वानों के अनुसार न्याय दर्शन में 16 प्रकार के पदार्थों के ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
16 पदार्थों का विवरण निम्न प्रकार है।  1 प्रमाण, 2 प्रमेय,3 त सन्शय 4 प्रयोजन 5 दृष्टांत  6  सिद्धांत 7  अवयव  8  तर्क  9 निर्णय 10  वाद  11  जल्प  12 वित्ण्डा, 13 हेतु आभास 14 छल-15 जाति 16 ‌निग्रह -स्थान।
यह भी 16 पदार्थ हैं जिनके चिंतन में श्री कृष्ण जी महाराज प्रत्येक क्षण निमग्न  रहते थे। अपनी मुक्ति का मार्ग खोजते रहते थे। यही 16 पदार्थ उन की 16 कलाएं थी, जिनके माध्यम से उनको मुक्ति प्राप्त करनी थी। अब जरा प्रमाण पर विचार करते हैं तो पाते हैं कि न्याय शास्त्र में
प्रमाण भी चार निम्न प्रकार के होते हैं।
प्रत्यक्ष, अनुमान उपमान ,शब्द।
इसके अतिरिक्त प्रमेय भी निम्न 12  प्रकार के होते हैं।
1 आत्मा, 2 शरीर, 3  इंद्रिय, 4 अर्थ ,5 बुद्धि, 6 मन,7  प्रवृत्ति ,8 दोष, 9 प्रत्यक्ष -भाव, 10 फल 11 दुख 12 अपवर्ग।
आत्मा ,शरीर ,इंद्रियां , अर्थ, बुद्धि मन, प्रवृत्ति दोष , आदि  इन सब के विषय में जो चिंतन में लगा रहता है, एवं  मोक्ष प्राप्ति के 16 पदार्थों के ध्यान में जो हमेशा रत रहता है वह श्री कृष्ण जी महाराज हैं।
क्योंकि श्री कृष्णजी महाराज जानते थे कि बिना ज्ञान के ध्यान अधूरा है।
मुक्ति प्राप्ति के 16 पदार्थों में  रत रहने के कारण 16 पदार्थों के स्थान पर 16000 गोपियां बिना विचार किए बता दी।
मैं क्षमा चाहूंगा मंद बुद्ध अज्ञानी, श्री कृष्ण की लीला, रासलीला करने वालों से ,जो अपने महापुरुषों को, अपने योगियों को, छलिया, गोपियों के मध्य नाचने वाला ,नहाती हुई गोपियों के कपड़े चुराने वाला ,श्री कृष्ण के वास्तविक प्रेम को वासनात्मक ,अनुचित तरीके से समाज में पेश करने वालों से ।
ऐसे ही लोगों ने योगी शिवजी को भांग पिला कर हिमालय पर बैठा दिया। कृष्ण जी को गोपियों के मध्य रासलीला करते हुए दिखाया। ऐसे लोगों को शर्म आनी चाहिए। यह तो वह कृष्ण है जिन्होंने बचपन से ही अपराधियों का, अत्याचारियों का, दुष्टों का, विरोध करते हुए उनका संहार किया। जिन्होंने कंस, जयद्रथ, जरासंध, दुर्योधन, ताड़का आदि दुराचारियों से समाज को निजात दिलाई। जो आर्यावर्त की रक्षा करने के लिए उसके द्वार पर समुद्र किनारे द्वारका विशेष शहर बनाकर अथवा बसाकर सफल नायक की भूमिका में सिद्ध हुए। जिन्होंने महाभारत के समय में गीता का अलौकिक ज्ञान समस्त संसार को दिया। जिन्होंने लोक निंदा की परवाह न करते हुए अपनी भूमिका को पूरी निष्ठा से निभाया ।जिन्होंने वैदिक संस्कृति का आर्यवर्त में, भारतवर्ष में पुन: स्थापन किया ।जो बुद्धि और शक्ति के अलौकिक पुरोधा हैं। उनके जन्मदिन पर प्रत्येक भारतवासी को जन्माष्टमी के अवसर पर अत्यंत ही हर्ष का अनुभव होना चाहिए।

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