क्या रवीश कुमार भी थोड़ा अति कर रहे हैं ?

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‌       प्रोफेसर राजकुमार जैन    
बिलाशक रवीश कुमार आज के दौर में ऐसे पत्रकार हैं जो मोदी सरकार की हर सांप्रदायिक, कट्टरवादी दबी छुपी तथा डंके के चोट पर किए जाने वाले नफरती कारनामों को उजागर करने  में अपना सब कुछ दाव पर लगाने वाले पहली कतार के नायक हैं । परंतु आज के उनके यूट्यूब चैनल के बहराइच प्रस्तुतीकरण में एक कमी अखरी। कुछ अंग्रेजी किताबों तथा कुछ उदाहरणों की मार्फत उनका यह कहना कि यह सांप्रदायिक दौर तो 1871 से 2024 तक चल ही रहा है, ज्यादती है। इससे संघियों को भी यह कहने का मौका मिलेगा कि यह तो पहले से ही चल रहा है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तो बना ही 1925 में था हमने इसमें नया क्या किया। आज की सांप्रदायिकता तथा पहले के नफरती माहौल को एक जैसा बताना जायज नहीं है। कुछ  वारदातों को छोड़कर पहले आज जैसा वह माहौल नहीं था। मैंने देखा है, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के मोहर्रम जुलूसो में गैर मुस्लिम भी बड़े चाव से् अपने घरों की छतों या घरों के बाहर खड़े होकर उसको देखते थे। 1947 में हिंदुस्तान पाकिस्तान बनने पर मेरे गांव में रह रहे मुसलमानों को गांव के जाटों ने पूरी तरह सुरक्षा प्रदान करते हुए कहा तुम गांव में रहो, तुम्हारी हिफाजत की हमारी जिम्मेदारी है। जब कुछ परिवार जाने पर बाजिद हो गए तो उनको गांव की सरहद तक उन्होंने सुरक्षित पहुंचाया।
रवीश का यह कथन 100% सही है कि आज डीजे लाउडस्पीकर सांप्रदायिकता फैलाने का एक जबरदस्त मजबूत हथियार बन गया है। परंतु इसके साथ-साथ एक नया रूप भी देखने को मिल रहा है। जहां पहले ढोल बजाना, नाचना गाना मुस्लिम समाज में गैर मजहबी माना जाता था, पर अब मैं देख रहा हूं कि मुस्लिम शादी विवाहों मैं वलीमा के मौके पर मुस्लिम नौजवान भी डीजे लगाकर गानों पर नाचने लगे हैं। मेरे कहने का मकसद है कि यह कहना 100 साल पहले से ही ऐसा कड़वा माहौल चल रहा है सही नहीं है। आज के माहौल में जरूर सांप्रदायिक जहर भयंकर उफान पर है।

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