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India Politics : क्या दल बदलुओं की खाल उधेड़नी पड़ेगी?

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India Politics : हम उनको इसलिए चुनते हैं कि हमारे नौकर बनकर कार्य करें, लेकिन वे समझ लेते हैं खुद को मालिक,यही से गड़बड़ शुरू होती है। क्या आज का वोटर यह देखता है कि कौन नेता कितना ईमानदार या बेईमान है या वह अपनी पार्टी के प्रति कितना वफ़ादार है? क्या जनता में इतना दम नहीं कि वह दलबदलुओं को चुनावों में सबक सिखा सके? 

प्रियंका ‘सौरभ’  

India Politics : जो विधायक या सांसद किसी पार्टी के चुनाव चिन्ह पर लड़कर चुनाव जीतने के बाद अगर पार्टी बदलते हैं तो उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाना चाहिए। जो यह कहते हैं कि उसने इसलिए पार्टी बदली है ताकि जनता की भलाई कर सके। उससे झूठा, ठग, बेलिहाज कोई नहीं हो सकता। हर विधायक, सांसद को उसके हल्के में खर्च करने के लिए फंड मिलता है, हर एक को तनख्वाह मिलती है। फिर उन्हें बदलू राम बनने की जरूरत क्या है? जवाब साफ़ सा है-व्यक्तिगत स्वार्थ। दरअसल विधायक, संसद को हम ही बिगाड़ रहे हैं।

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क्यों पहनाते हो उनको फूल माला? क्यों बुलाते हो घरेलू समारोह में? हम उनको इसलिए चुनते हैं कि हमारे नौकर बनकर कार्य करें, लेकिन वे समझ लेते हैं खुद को मालिक, यही से गड़बड़ शुरू होती है। क्या आज का वोटर यह देखता है कि कौन नेता कितना ईमानदार या बेईमान है या वह अपनी पार्टी के प्रति कितना वफ़ादार है? क्या जनता में इतना दम नहीं कि वह Defectors को चुनावों में सबक सिखा सके। जिस सरकार से जनता परेशान थी उसी सरकार के दलबदलू मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए दलबदल फिर से सरकार में आ जाते हैं। फिर जनता ने किसको, कैसा सबक सिखाया? जनता को चाहिए दलबदलुओं को वोट के दल-बल से राजनीति के बाहर का रास्ता दिखा दे। तभी लोकतांत्रिक व्यवस्था सुधर सकती है।

हर कीमत पर जीत औऱ अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए दूसरे दल के पहलवानों को भी अपना बनाने के लिए हर चाल चली जा रही है। पहलवान तो पहलवान ताली बजाने औऱ दंगल में जिंदाबाद के नारे लगाने वालों की भी मौज बहार आ रखी है। जिसको अपनी गली के लोग नहीं पहचानते थे वो नेताजी बन गए हैं। खुद पार्टी को भी नहीं पता होता कि ये हमारी पार्टी में था भी कि नहीं..? जब दूसरी पार्टी बोलती है कि हमने इन्हें शामिल कर दूसरे दल को बड़ा झटका दिया है तब उसे पता चलता है कि अबे ये अपनी पार्टी में था….? हर छुटभैया नेता आजकल Defectors के लिए तैयार रहता है। वह मौके की तलाश में रहता है। मौका देख के मारो चौका।

कोई बोले तो सही कि आओ, हमरे दल की शोभा बढ़ाओ। छुटभैया सोचता है, दलबदल करो तो newspaper men
बढ़ा-चढ़ा कर खबरें छाप देते हैं। कुछ Defectors को हर पार्टी में बहुत जल्दी दम घुटने लगता है। सुबह दल बदलते हैं, तो दोपहर को दम घुटने लगता है और वे पार्टी छोड़ देते हैं और नई पार्टी में जा घुसते हैं। साँप भी शरमा जाता है केंचुल बदलने में। चुनाव के समय दल बदल एक्सप्रेस सुपरफास्ट हो जाती है। दलबदलू जल्द-से-जल्द सफलता के स्टेशन तक पहुँचना चाहता है। किसी को टिकट मिल जाता है, तो किसी को कोई पद।  जैसी जिसकी औकात।

जनसेवक  की सार्थकता जनता की सेवा में है। जनसेवा मतलब टिकट मिलना, चुनाव लड़ना, विजयी होना और सरकार में कोई Servitor पद प्राप्त करना। पद न मिला तो सेवा कार्य में अड़चन होती है। इसीलिये लोग संभावित सत्ता पाने वाले दल से चुनाव लड़ना चाहते हैं। उसी से जुड़ना चाहते हैं। चुनाव के समय चलने वाली हवा में वे सरकार बनाने वाली पार्टी को सूंघते हैं। आदमी कुत्ते में बदल जाता है। आत्मा की आवाज पर जमीर बेंच देता है। दलबदल लेता है। अकेले या समर्थकों सहित नये  दल में शामिल हो जाता हैं। क्या लोग दलबदलुओं को खराब निगाहों से नहीं देखते। सत्ता के लिये दलबदल बेईमानी नहीं है। लालची नहीं है। लोलुप नहीं है। क्या समय के साथ  लोगों की सोच बदली है।

दलबदल अब  मौका परस्ती नहीं रहा। वह उचित अवसर की पहचान है। अभी-अभी नीतीश कुमार दल बदलुओं की तरह आंख फेरकर लालू जी से जा मिले ओर चैलेंज कर रहे हैं मोदी जी को 2024 में नही आने देंगे।  क्या लगता है मित्रों? क्या Good Governance Babu मोदी जी को रोक पाएंगे क्या? दल-बदलुओं का इतिहास भारत ही नहीं पूरी दुनिया में बहुत पुराना है. अपने राजनीतिक और निजी हित के लिए नेताओं ने इस कदर राजनीतिक पार्टियां बदली हैं कि इसके अनूठे रिकॉर्ड बन गए हैं.

वैसे 10वीं अनुसूची पर बहस बार-बार होती रही है। इसके चैप्टर 2 का पार्ट 1 (ए) कहता है कि सदन में किसी भी दल का सदस्य अयोग्य करार दिया जा सकता है यदि वह स्वेच्छा से वह पार्टी से अपनी सदस्यता छोड़ देता है। कांग्रेस के कानूनी सलाहकारों  एवं Ruling Party का  मानना है कि विधायक दल की बैठक में शामिल नहीं होना (पायलट ने पार्टी व्हिप को नजरअंदाज करते हुए कांग्रेस विधायक दल की दो बैठकों का बहिष्कार किया) स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ने जैसा है, लेकिन कई एक्सपर्ट इससे सहमत नहीं हैं।

पिछले कुछ सालों में देश भर में  इस तरह के कई हाई-प्रोफाइल केस में दलबदल विरोधी कानून पर खूब बहस हुई है. यदि किसी Political Party से संबंधित सदन का सदस्य स्वेच्छा से अपनी राजनीतिक पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है, या अपने राजनीतिक दल के निर्देशों के विपरीत, वोट नहीं देता है या विधायिका में वोट नहीं करता है। और यदि सदस्य ने पूर्व अनुमति ले ली है, या इस तरह के मतदान या परहेज से 15 दिनों के भीतर पार्टी द्वारा निंदा की जाती है, तो सदस्य को अयोग्य घोषित नहीं किया जाएगा। लेकिन विधायक कुछ परिस्थितियों में अयोग्यता के जोखिम के बिना अपनी पार्टी को बदल सकते हैं। कानून एक पार्टी के साथ या किसी अन्य पार्टी में विलय करने की अनुमति देता है, बशर्ते कि कम से कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों। ऐसे परिदृश्य में, न तो वे सदस्य जो विलय का निर्णय लेते हैं, और न ही मूल पार्टी के साथ रहने वालों को अयोग्यता का सामना करना पड़ेगा।

वैसे देखा जाए तो पार्टी निष्ठा  सरकार को स्थिरता प्रदान करती है। यह सुनिश्चित करता है कि उम्मीदवार पार्टी के साथ ही नागरिकों के लिए भी उसके प्रति वफादार रहें। पार्टी के अनुशासन को बढ़ावा देता है। विरोधी दल बदल के प्रावधानों को आकर्षित किए बिना Political Party के विलय की सुविधा राजनीतिक स्तर पर भ्रष्टाचार को कम करने की उम्मीद है। एक सदस्य के खिलाफ दंडात्मक उपायों के लिए प्रदान करता है जो एक पार्टी से दूसरे में दोष करता है। ऐसे में एक ही  राजनीतिक दल के सदस्यों द्वारा असमान स्थिति या मनमुटाव की एक सार्वजनिक छवि को राजनीतिक परंपरा में वांछनीय स्थिति के रूप में नहीं देखा जाता है।

हालाँकि जब सरकार के गठन में अनेक राजनीतिक दल शामिल होते हैं तो वहाँ दलों के बीच मनमुटाव को उचित ठहराया जा सकता है। बात India Politics की करें तो ऐसे समय में जब भारत की रैंक ‘नवीनतम लोकतंत्र सूचकांक’ में बुरी तरह  गिर गई है, आज हमारी संसद से यह अपेक्षा की जाती है कि वह इन सबको  को सुधारने और मज़बूत करने के लिये कदम उठाए। समयानुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा दलबदल कानून में संतुलन बनाए रखने के लिये कानून में आवश्यक बदलाव किये जाने की पुरजोर आवश्यकता है। और अगर दल बदलुओं में दम है तो निर्दलीय जीतकर अपनी हनक दिखाएँ ये मौक़ापरस्त नेता। दलबदलुओं को भी यही गलतफहमी है कि उनके अनुयायियों की भीड़ दिल से उनके साथ है, किसी दल के साथ नही।

(लेखिका रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)