हरेन्द्र
पूरी दुनिया कोरोना के कहर से त्रस्त है। विकसित देशों से लेकर विकासशील देशों तक लाखों की तादाद में लोग काल के मुँह में समा रहे है। लेकिन कोरोना से निजात पाना मुश्किल हो रखा है। दुनिया की महा-शक्तियाँ अमरीका और यूरोप के देश कोरोना के हमले के आगे लाचार और निसहाय दिखाई दिये। लेकिन लाचारगी और निसहायता के साथ-साथ इन देशों की सरकारों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुनाफाखोरी भी सामने आयी।
ये मुनाफाखोर कंपनिया दुनियाभर के मरते हुए लोगो की लाशों पर गिद्ध बनकर टूट पड़ी। इन बहुराष्ट्रीय कंपनियो ने टीका बनाया लेकिन विकासशील देशों को उसकी तकनीक देने से मना कर दिया और बौद्धिक-सम्पदा अधिकार से संबन्धित विश्व व्यापार संगठन के समझौते के तहत पेटेंट कानून में रियायत नहीं दी।
लेकिन ये महा-शक्तियां अभी तक अपने देशों में पूरी जनता का टीकाकरण नहीं कर पायी। यूरोपियन यूनियन, ब्रिटेन और अमरीका अभी तक अपने देश में 60-70 फीसदी जनता का ही टीकाकरण कर पाएँ हैं और बच्चों के लिए वैक्सीन विकसित करने पर अभी काम जारी है।
भारत की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। कोरोना ने आम लोगों को समुंदरी सुनामी की तरह निगला है। लाखों की संख्या में लोग जान से हाथ धो बैठे लेकिन हमारी सरकार और स्वास्थ्य व्यवस्था कुछ न कर सके सिवाय ज़ुबानी जमा खर्च के। अभी पूरी जनता के टीकाकरण से हम लोग हजारों कोस दूर हैं।
लेकिन इन सबसे अहम बात ये कि डॉक्टर बताते हैं कि टीकाकरण कोई रामबाण नहीं है जो इसके लगाने के बाद कोरोना होगा ही नहीं।
डॉक्टरों के अनुसार, टीका लगने के बाद इंसान की कोरोना से लड़ने की ताकत बढ़ेगी और कोरोना की बीमारी इतना घातक असर नहीं कर पाएगी कि इंसान की जान चली जाये। लेकिन यहाँ पर सवाल यह उठता है कि जिस देश की आधी से ज्यादा औरतें कुपोषण का शिकार हैं, पूरी आबादी के 3.5 फीसदी बच्चे कुपोषण की वजह से 5 साल के होते-होते मर जाते हैं, भुखमरी में दुनिया के 118 देशों में 101 वें स्थान पर है, ऐसे देश में क्या टीकाकरन होने से आम जनता की बीमारी से लड़ने की ताकत बढ़ जाएगी ?
क्या यह टीकाकरण बस एक तकनीकी हल बनकर रह जाएगा? एक सवाल ये भी है की क्या हमारी सरकार अंधी है जो उसको ये सीधी-साधी सी बात नहीं दिख रही है? और अगर दिख रही है तो फिर बात साफ है कि हमारी सरकार लोगों की ज़िंदगी और मौत का सौदा कर रही है, उनको बहुराष्ट्रीय दवाई कंपनियों का निवाला बना रही है, इन कंपनियों को बाज़ार मुहैया करा रही है और कुछ नहीं।
संक्षेप में, हम कह सकते है कि विकसित साम्राज्यवादी देश, अमरीका और यूरोप, कोरोना की महामारी का मुक़ाबला करने में एक तरह से विफल रहे हैं। इनकी स्वास्थ्य व्यवस्था नाकाम साबित हुई है। लेकिन इस मानव संकट की घड़ी में भी इन देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनिया मुनाफाखोरी के ही अवसर ढूंढ रही हैं तथा तकनीकी एकाधिकार की वजह से विकासशील देशों को लूटने की योजनाए बना रही हैं।
इन बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने कोरोना के टीके को कोमोडिटी ( बेचने-खरीदने की वस्तु मुनाफे के लिए ) में तब्दील कर दिया है।
मुनाफा केन्द्रित स्वास्थ्य व्यवस्था का विकल्पएक ऐसा भी देश है जो “सार्वभौम मानवता” को केंद्र में रखकर कोरोना के कहर को टक्कर दे रहा है, उससे लोहा ले रहा है। उसका नाम है क्यूबा। क्यूबा एक ऐसा देश है जिसने उपरोक्त साम्राज्यवादी स्वास्थ्य व्यवस्था का एक विकल्प पेश किया है पूरी दुनिया के सामने और मानव केन्द्रित स्वास्थ्य व्यवस्था की नजीर बन गया है।
यही वह देश है जिस पर अमरीका ने 1960 से ही तरह-तरह के प्रतिबंद्ध लगा रखे है जिसकी वजह से क्यूबा की अर्थव्यवस्था बहुत बदहाली में रहती है और दवाई बनाने का कच्चा माल जुटाने में भी मुश्किलात पेश आती हैं। इसके बाद भी क्यूबा ने खुद को स्वास्थ्य के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित कर दिखाया है।
क्यूबा की सरकार ने अपने देश में 85 फीसदी जनता का पूरी तरह से टीकाकरन कर दिया है और इसके अलावा 7 फीसदी को टीके की पहली खुराक मिल चुकी है। 2 से 18 साल के बच्चों को भी टीके की दोनों खुराक मिल चुकी है। क्यूबा ने अपनी परंपरागत तकनीक के आधार पर अभी तक 5 देशी टीके तैयार किए हैं जिनमे आबदला (Abdala), सोबेराना 02(Soberana 02 ) तथा सोबेराना प्लस (Soberana plus ) पास हो चुके है और प्रयोग में लाये जा रहे हैं।
बाकी दो सोबेराना 1 और ममबिसा ( Mambisa ) अभी क्लीनिक्ल ट्राइल में हैं और पास होने वाले हैं। ये सब टीके क्यूबा ने अपनी परंपरागत तकनीक का प्रयोग करके बनाए हैं जिसको प्रोटीन उप-यूनिट (protein sub-unit ) तकनीक कहते हैं। इस तकनीक से टीका बनाना बहुत आसान होता है। इस तकनीक से बने टीको को फ्रिज में रखा जा सकता है तथा कमरे के भी एक खास तापमान पर रखा जा सकता है।
ये सभी टीके सरकार ने बनाए हैं इनमे किसी निजी कंपनी की कोई भूमिका नहीं है। सरकारी संस्थान ( centre for genetic engineering and biotechnology ) ने आबदला टीका तथा (Finley) संस्थान ने सोबेराना 02 बनाया है। क्यूबा ने अपने इन टीकों को और इनके बनाने की तकनीक को दूसरे देशों के साथ खुले दिल से साझा किया है और इंसानी ज्ञान पर बैठाये गए साम्राज्यवादी पहरे को मानव विरोधी साबित कर दिया है, क्योंकि ज्ञान और तकनीक पूरी मानवता ने पैदा की हैं वे किसी मुनाफाखोर साम्राज्यवादी की बपौती नहीं हैं। क्यूबा ने वेनेज़ुएला, वियतनाम, ईरान, निकारागुआ, अर्जेंटीना और मेक्सिको को कोरोना के टीके भेजे हैं। हालफिलहाल मेक्सिको ने क्यूबा के टीके आबदला (Abdala) को अनुमति दी है। वेनेज़ुएला और वियतनाम टीका बनाने पर काम शुरू कर चुके हैं तथा सीरिया अभी क्यूबा के अधिकारियों के साथ बात-चीत कर रहा है। जबकि ईरान और नाइजीरिया सोबेराना 02 अपने देश में बनाने पर काम शुरू कर चुके हैं। क्यूबा ने कोरोना के दौरान दूसरे देशों में अपने चिकित्सको की टीम भेजकर दुनिया के प्रति अपने अंतर्राष्ट्रीयतावाद की भावना का पालन किया है। क्यूबा ने कोविड-19 की शुरुआत में ही विभिन्न देशों में अपने डॉक्टरो की टीम भेजी थी। सबसे पहले 2020 में इटली के लोमबरडी और पिएण्ड्मोंत क्षेत्र में टीम गयी। मार्च 2020 में अंडोरा में गयी जो स्पेन और फ्रांस के बीच में एक छोटा सा देश है।
इसके बाद अफ्रीका के बहुत सारे देशो में जैसे कि टोगो, दक्षिण अफ्रीका, केप वेरडे, सिएरा लोएने, साओ टॉम, गुइनिया, गुइनिया बासु और केनया आदि। इन सबमें सबसे बड़ा उदाहरण है इटली के क्षेत्र लोमबरडी के एक शहर क्रेमा का। यहाँ पर कोरोना के हालात बेकाबू हो चुके थे। उसी समय क्यूबा के 52 डॉक्टरों की एक टीम यहाँ पर पहुंची। वहाँ के लोग बोलते हैं कि क्यूबा के डॉक्टरों की “ मानवता बोध ने हमे अभिभूत कर दिया हमारा दिल जीत लिया” “एक खास तरह की संवेदना और ध्यान जो उनके दुनिया को देखने के नजरिये को बयान करता है।” दुनिया के तमाम देशों में स्वास्थ्य सेवायें देने की वजह से क्यूबा की हेनरी रीव अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य मेडिकल ब्रिगेड को नोबल शांति पुरस्कार से नवाज़ा गया। क्यूबा ने विदेशो में भी घर-घर जाकर इलाज करने की अपनी सैद्धान्तिक नीति पर काम किया है जो बेहद कारगर सिद्ध हुई है।
क्यूबाई क्रांति की भूमिका : इस वर्तमान मानव केन्द्रित स्वास्थ्य व्यवस्था के पीछे क्यूबा की 1959 में हुई क्रांति की मुख्य भूमिका है। क्यूबा की क्रांति ने टेढ़े-मेढ़े रास्तो पर चलते हुए एक ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था का विकास किया जो पूरी दुनिया में अनोखी है और पूर्णत: मानव केन्द्रित है। उस व्यवस्था पर नज़र डालना बेहतर होगा ताकि हम आज के विकास को समझ सकें और उस प्रक्रिया से सीख ले सकें अपने देश के लिए।
1959 की क्यूबा की क्रांति के बाद पुराने सामाजिक ढांचे को तोड़कर एक बराबरी पर आधारित नये ढांचे का निर्माण किया जा रहा था। क्यूबन क्रांति के नेता फिदेल कास्त्रो और चे ने भूख, ग़रीबी, शिक्षा और मान-सम्मान को क्रांति का जीवन बताया था। क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने स्वास्थ्य से जुड़े कदमो के तौर पर निम्न कामो को अंजाम दिया : भूमि-सुधार, नयी सड़के, खेती करने के विकसित तौर-तरीके, स्कूल, साक्षरता प्रोग्राम, अच्छा खान-पान और बेरोज़गारी का खात्मा। उनका कहना था कि अगर क्रांति आम जनता की ये जरूरते पूरी कर पायी तो जिंदा रहेगी अन्यथा मर जाएगी। इसलिए शोषण-उत्पीड़न की दूसरी वजहों मे से एक स्वास्थ्य की समस्या भी है जिसको हम कमतर नहीं आंक सकते। यानि नये समाज के निर्माण ने ही क्यूबा की मानव केन्द्रित स्वास्थ्य व्यवस्था को जन्म दिया है।
1959 की क्रांति के बाद, सभी छात्रों को व्यवहारिक अनुभवों के लिए कक्षा दी जानी अनिवार्य हो गयी थी और सबको ग्रामीण क्षेत्रों में जाकर काम करना ज़रूरी था। क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने नौजवान और योग्य डॉक्टरों का एक नाभिक ( nucleus ) बनाया जिसने स्वास्थ्य व्यवस्था की पहाड़ जैसी ज़िम्मेदारी का भार अपने कंधो पर उठाने का ज़िम्मा लिया।
पारिवारिक डॉक्टर नर्स कार्यक्रम : बहुत सारी खामियों से गुज़रते हुए क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने दुनिया में सबसे भिन्न एक स्वास्थ्य व्यवस्था को जन्म दिया जिसका नाम है “पारिवारिक डॉक्टर-नर्स प्रोग्राम” (family doctor-nurse program)। इस प्रोग्राम को “व्यापक सामान्य औषधि” (comprehensive general medicine) कहा गया है। इस प्रोग्राम के तहत डॉक्टर-नर्स की एक टीम एक खास छोटे भोगोलिक इलाके में लोगो के बीच रहते हैं। डॉक्टर-नर्स मरीज़ के घर पर जाते हैं और उसका पूरा वातावरण समझकर इलाज करते हैं ना की बस उसका जीव-विज्ञान।
डॉक्टर-नर्स अपने इलाके के मरीज़ों का मूल्यांकन करते रहते हैं और अगर बीमारी के कोई निशान दिखाई देते हैं तो पहले ही उसका इलाज करके ठीक कर देते हैं । इस प्रोग्राम के तहत “जीव-मनो-विज्ञान तथा सामाजिक परिस्थिति” (socio-psycho and bio) को ध्यान में रखते हुए किसी भी बीमारी का इलाज किया जाता है तथा कुछ खास बीमारियों का इलाज करने के लिए भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में प्रचलित इलाज के तौर-तरीको को भी शामिल किया जाता है जैसे अफ्रीकन-क्यूबन लोगो में “जड़ी-बूटी औषधि” (green medicine) प्रचलित है जिसमे वे जड़ी-बूटी का प्रयोग करते हैं। अंतर्राष्ट्रीयतावाद क्यूबा की स्वास्थ्य व्यवस्था का उसके जन्म से ही एक अभिन्न अंग रहा है। इस प्रोग्राम के तहत डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाले छात्रों की पढ़ाई-लिखाई को तात्कालिक समस्याओ की ओर मोड़ दिया गया है तथा उनके कोर्स में क्लीनिक में काम करना, स्वछता और महामारी के साथ-साथ क्लीनिकल सिद्धान्त,समाज-विज्ञान तथा जीव-विज्ञान का अध्ययन कराया जाता है। इसके साथ-साथ क्यूबा की क्रांतिकारी सरकार ने नस्ल और जेंडर की समयाओं को भी हल किया है। क्रांति के पहले काले अफ्रीकन-क्यूबन को ना ही डॉक्टरी की पढ़ाई में दाखिला मिलता था और ना ही कोई डॉक्टर उनका इलाज़ करना पसंद करता था। दूसरा ऐसा नहीं है की औरतें ही नर्स बनेंगी जैसे की दुनिया भर में होता है जबकि क्यूबा में ज़्यादातर आदमी नर्स का काम करते हैं और नर्स शब्द के लिए enfermeros का प्रयोग किया जाता है जिसका मतलब आदमी-औरत दोनों होता है। इस हिमालयी उद्देश्य को पूरा करने में क्यूबा के जन संगठनो की महान भूमिका रही है चाहे वे किसान-मज़दूरों के संगठन हो या औरतों के। निष्कर्ष के तौर पर हम कह सकते हैं, कि अमरीकी और यूरोपियन साम्राज्यवादियों ने 1990 में पूरी दुनिया पर नव-उदरवादी नीतियाँ थोपी जिनके केंद्र में मुनाफा है। इन नीतियों की वजह से अमरीका, यूरोप तथा इन नीतियों पर हस्ताक्षर करने वाले सभी ग़रीब देशों ने अपनी-अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था को देशी-विदेशी मुनाफाखोरों के लिए खोल दिया। इन्होंने अपने सरकारी स्वास्थ्य ढांचे को जन-बूझकर बर्बाद होने दिया है। आज मानव संकट की घड़ी में ये सब निसहाय हैं और इस निसहायता को मुनाफाखोरी में तब्दील कर रहे हैं।दूसरी ओर क्यूबा है जिसकी नीतियों के केंद्र में मानव है जिसकी वजह है 1959 में हुई क्यूबा की जनक्रांति। जो आज इस आफ़त की घड़ी में पूरी दुनिया का साथ दे रहा है और और एक नया रास्ता दिखा रहा है।क्यूबा की स्वास्थ्य व्यवस्था ने एकबार फिर सिद्ध कर दिया है कि दुनिया की पूंजीवादी व्यवस्था मानव समस्याओं को हल करने में विफल है जिसकी जगह एक मानव केन्द्रित व्यवस्था की जरूरत है और जो मुमकिन है। मानव केन्द्रित नयी व्यवस्था ही इस दुनिया की समस्याओं का हल कर सकती है अन्यथा सब बर्बाद हो जाएगा। अगर हम अभी भी नही सोचते है तो कल बहुत देर हो चुकी होगी। (साभार : वर्कर्स यूनिटी)
(हरेंद्र जामिया मिलिया इस्लामिया के शोध छात्र हैं।)