डॉ. राम मनोहर लोहिया ने विभिन्न लेखों, वक्तव्यों, भाषणों में नृत्य, संगीत, कला और साहित्य का किया है वर्णन 

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डॉ राममनोहर लोहिया ने अपने विभिन्न लेखों, वक्तव्यो, भाषणों में नृत्य, संगीत, कला, साहित्य के संदर्भ में समय-समय पर जो कहा, लिखा है। उसके कुछ अंशों को यहां प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि उन्होंने अनेकों अवसरों पर काफी विस्तार से इस विषय पर लिखा है। परंतु संक्षेप में उसको प्रस्तुत किया जा रहा है।

राजकुमार जैन
कवि दरबार, संगीत दरबार, नाच दरबार और शायद नाटक भी। एक ही कविता को जब लोग कविता, संगीत, नाच और नाटक के विभिन्न रूपों में देखें देख सकेंगे, आनंद और दृष्टि का अद्भुत जोड़ा जगेगा। अगर उस्ताद मिल जाए तब कहना ही क्या। अगर उसी कविता को भरतनाट्यम में देखा और कथक में भी, ध्रुपद में सुना और ठुमरी में भी, तब जरूर एक विशेष प्रकार का रस संचार होगा। विख्यात उस्ताद अगर मिले तो उन्हें ऐसी योजना बनानी चाहिए और उनकी मातहती में चलना चाहिए।
लोक -संगीत और लोक -नाच न भूलना चाहिए। चित्रकूट इलाके में बहुतेरे होंगे, खासकर कोल -किरात। एक अद्भुत लोक संगीत मैंने छपरा- आरा इलाके में सुना जिसे घाटो- चैता कहते हैं। यह करीब-करीब वैसा ही है जैसा आधुनिकतम ‘डुलो और लुढको’। फरक इतना है कि घाटो- चैता राधा या उसके मधुबन को लेकर है, जब कि ‘डुलो -लुढको’के सुना है, काफी जंगी नतीजे कभी-कभी निकले हैं।— अभी तक जयपुर के इमामुद्दीन डागर और कोटा की राजेश कुमारी और वहीदन बाई और लखनऊ की वीणा जौहरी ने मेहरबानी की है। इतने से काम नहीं चलेगा—- वैसे भी बाहर के रत्नों उस्तादों के बिना रक्त संचार फीका रहेगा।
कृष्ण द्वारिका का रास्ता अकेले तय कर रहे थे। विश्राम करने वह थोड़ी देर के लिए एक पेड़ की छांव में रुके। एक शिकारी ने उनके पैर को हिरण का शरीर समझकर बाण चलाया और कृष्ण का अंत हो गया। उन्होंने उस क्षण क्या किया? क्या उनकी अंतिम दृष्टि करुणामई मुस्कान के साथ, जो समझ से आती है, शिकारी पर पड़ी? क्या उन्होंने अपना हाथ बांसुरी की और बढाया जो अवश्य ही सी पास में रही होगी? क्या उन्होंने बांसुरी पर अंतिम देवी आलाप छेड़ा? या मुस्कान के साथ हाथ में बांसुरी लेकर ही संतुष्ट रहे।
उनकी( कृष्ण) प्रेमिकाए’ असंख्य थी। एक आधी रात को उन्होंने वृंदावन की सोलह हजार गोपियों के साथ रास नृत्य किया। यह महत्व की बात नहीं है की नृत्य में साठ या छह सो गोपीकाए’ थी और रासलीला में हर गोपी के साथ कृष्ण अलग-अलग नाचे। सब को धिरकाने वाला स्वय’ अचल था। आनंद अटूट और अभेद्य था, उसमें तृष्णा नहीं थी। कृष्ण ने चंद्रमा को ताना दिया कि हंसो। चंद्रमा गंभीर था। इस बहुमूल्य कहानियों में मर्यादित और उन्मुक्त व्यक्तित्व का रूप पूरा उभरा है और वे संपूर्ण है।
गंगा एक ऐसी नदी है जो पहाड़ियों और घाटियों में भटकती फिरती है, कलकल निनाद करती है, लेकिन उसकी गति एक भारी-भरकम शरीर वाली औरत के समान मंददामिनी है। गंगा का नाम गम् धातु से बना है जिसमें गमगम संगीत बनता है, जिसकी ध्वनि सितार की धिरकन के समान मधुर है।
घारापुरी के आठवीं सदी और 9वी व सोलहवी’ सदी के चित्तूर की गुफाओं में शिव की तीन विभिन्न रूप की मोहक मूर्तियां है- एक ध्यान मग्न, दूसरी रौद्र और तीसरी लास्ययुक्त। शिल्पकारो ने शिव का एक भी रूप चित्रित करने से नहीं छोड़ा। तनहाई में महान और प्रसिद्ध तांडव- नृत्य शिव करता है।
कोणार्क के शिल्पो में संगीत गाने वाली युवतियों के नेत्र, हो’ठ और शरीर के सुंदर वक्राकार घुमावो’ पर मैंने हाथ फेरा। उस समय मुझे लगा कि अब मानवी युवती नहीं; पाषाण रूप में अदृश्य स्वर्गीय आकृतियां हैं।—- अजंता के पास मालवे के बाध- स्थल की गुफा मैं ऐसे कुछ चित्र हैं। नृत्य -संगीत और युवक-युवतियों के कीड़ा संबंधी चित्र वहां दिखाई देते हैं।

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