प्रेम सिंह
5 फरवरी 2025 को होने जा रहे दिल्ली विधानसभा चुनावों में किसी वैचारिक तत्व की तलाश करना भूसे के ढेर में सुई ढूंढने जैसा है। देश की राजधानी और राजनीतिक सत्ता के केंद्र में वैचारिक खालीपन की यह स्थिति किसी को सचमुच चिंतित करती हो, ऐसा भी देखने में नहीं आ आता। जबकि, कार्यरत और अवकाश-प्राप्त सरकारी नौकरशाहों/कर्मचारियों, न्यायविदों/कानूनविदों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, साहित्य-कला-संस्कृति-शिक्षा से जुड़ी नामी हस्तियों, नागरिक समाज कार्यकर्ताओं, मजदूर नेताओं और तरह-तरह के एनजीओ प्रमुखों का दिल्ली/राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में बड़े पैमाने पर निवास है। स्वस्थ लोकतंत्र में चुनाव का समय सत्ता पाने की होड़ के साथ पार्टियों/उम्मीदवारों/मतदाताओं के बीच वैचारिक मंथन का भी होता है – होना चाहिए। लगता है निगम भारत और उसकी वाहक निगम राजनीति में लोकतंत्र की यह स्वस्थ प्रवृती खारिज कर दी गई है। चुनावी प्रचार में चारों तरफ बस खैरातों की घोषणाओं और मतदाताओं को नकद/वस्तु बांटने का शोर सुनाई देता है। ऐसा लगता है कि दिल्ली विधानसभा का यह चुनाव महज सत्ता की नंगी होड़ का चुनाव है।
इस चुनाव पर चुनावी दृष्टि से ही कुछ कहा जा सकता है। दिल्ली विधानसभा में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी का यह दूसरा कार्यकाल है। 2015 के विधानसभा चुनाव के पहले हुए 2013 के चुनावों में भी अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्रित्व में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की ही सरकार थी। इस दौरान दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) में ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी का बहुमत रहा है। 2022 के दिल्ली नगर निगम चुनावों में कुल 250 सीटों में से आप के 134 सदस्य और भाजपा के 104 सदस्य निर्वाचित हुए थे। यानि दोनों की सदस्य संख्या में कोई बड़ा अंतर नहीं है। इसके साथ केंद्र में लगातार भाजपा की सरकार रही है। दिल्ली के उपराज्यपाल केंद्र सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते हैं, जिनका सीधा दखल दिल्ली की सरकार और व्यवस्था के संचालन में होता है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि 2013 से अभी तक दिल्ली में आप और भाजपा की साझी सत्ता रही है। इसलिए यह कहना कि इन चुनावों में आप की जगह भाजपा की सरकार आने से दिल्ली में सत्ता-परिवर्तन होगा, सही नहीं है। भाजपा की जीत के बाद यथास्थिति ही रहेगी। एक समय दिल्ली में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का मत प्रतिशत 14 तक पहुंच गया था। 2008 के विधानसभा चुनावों में उसके दो सदस्य भी निर्वाचित हुए थे। लेकिन आप की आंधी में बसपा का मताधार लगभग खत्म हो गया। दिल्ली की कम्युनिस्ट पार्टियां इस बीच “केजरीवाल-क्रांति” की मोहताज बनी रही हैं। ओवैसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) सहित कोई अन्य पार्टी या गठबंधन चुनाव के मैदान में मजबूत स्थिति में नहीं है। भाजपा और आप के बाद दिल्ली में कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी है। लिहाजा, दिल्ली विधानसभा चुनाव 2025 में सत्ता-परिवर्तन का मतलब होगा दिल्ली राज्य में कांग्रेस की सरकार बनना। लेकिन किसी के कहने या कांग्रेस के चाहने भर से यह नहीं हो जाएगा। यह तभी होगा जब दिल्ली के मतदाता यथास्थिति के बरक्स वास्तविक सत्ता-परिवर्तन का मन बना कर कांग्रेस के पक्ष में मतदान करेंगे।
कांग्रेस अपने चुनाव अभियान में लगातार तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित की विरासत की याद दिल्लीवासियों को दिला रही है। वह शीला दीक्षित की विरासत की हकदार होने का सोशल मीडिया पर प्रचार भी कर रही है। यह सही है कि वर्तमान दिल्ली का स्वरूप मुख्यत: शीला दीक्षित की देन है। लेकिन कुछ महत्वपूर्ण प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवी कांग्रेस के शीला दीक्षित की विरासत के दावे में दम नहीं देखते। वे सक्रिय हो गए हैं कि दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत को रोकने के लिए फिर से केजरीवाल पर दांव लगाना जरूरी है। वे खास कर मुसलमानों और सेकुलर मतदाताओं को समझाने में लगे हैं कि कांग्रेस को देकर अपना वोट खराब न करें।
हालांकि, दिल्ली नगर निगम 2022 के चुनावों में कांग्रेस ने जो 9 सीटें जीती थीं, उनमें 7 सीटें जानकारों द्वारा मुस्लिम-बहुल चुनाव क्षेत्रों से जीती बताई जाती हैं। यह भी गौर किया जा सकता है कि नागरिकता (संशोधन) कानून 2019 और जामिया मिलिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के परिसर में छात्र-छात्राओं पर किए गए पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के विरोध में दिल्ली के शाहीन बाग में आयोजित प्रतिरोध में मुसलमानों, खास कर महिलाओं ने पहली बार धार्मिक पहचान की जकड़ से निकल कर बतौर नागरिक हिस्सा लिया था। कांग्रेस ने एक राजनीतिक पार्टी के रूप में खुले आम उस प्रतिरोध आंदोलन का समर्थन किया था। जबकि, दिल्ली में सत्तारूढ़ आप उस पूरे प्रकरण पर हमेशा की तरह सांप्रदायिक पैंतरेबाजी करती नजर आई।
शायद प्रगतिशील और धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों को विश्वास होगा कि वे सोनिया गांधी-राहुल गांधी को समझा लेंगे कि इंडिया ब्लॉक की मजबूती और उसके बल पर अगले लोकसभा चुनावों में केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार बनाने के बदले दिल्ली विधानसभा केजरीवाल के लिए छोड़ना घाटे का सौदा नहीं रहेगा। उन्होंने इंडिया ब्लॉक के कुछ सदस्य दलों के आप को घोषित समर्थन का हवाला भी दिया होगा। 2019 के लोकसभा चुनावों में दिल्ली में कांग्रेस का मत प्रतिशत 22 था। वह भाजपा (56 प्रतिशत) के बाद दूसरी बड़ी पार्टी थी। आप का मत प्रतिशत 18 था। लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव 2020 में कांग्रेस का मत प्रतिशत, जो 2013 में 24.7 था, 2015 के 9.7 से गिर कर मात्र 4.3 रह गया। दिल्ली की चुनावी राजनीति में कांग्रेस के इस पराभव के अन्य कारक भी हैं। लेकिन उस पराभव में प्रगतिशील और सेकुलर बुद्धिजीवियों का निर्देशन एक प्रमुख कारक है।
इन्हीं लोगों ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन, अन्ना हजारे-अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी के पक्ष में तत्कालीन कांग्रेस सरकार का कड़ा विरोध यह कहते हुए किया था कि देश में आजादी के आंदोलन जैसा माहौल है; और तीसरी क्रांति होने जा रही है। नतीजतन ‘केंद्र में मोदी’ और ‘दिल्ली में केजरीवाल’ का एजेंडा मजबूती से स्थापित किया गया था। हालांकि, लोगों के सामने जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया था कि जिसे क्रांति बताया गया था, वह प्रतिक्रांति थी; और उसके चलते देश के राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन पर सांप्रदायिक फासीवाद का शिकंजा बुरी तरह कसता चला गया, उस प्रतिक्रांति के हमसफ़र आज भी आरएसएस/भाजपा के फासीवाद को परास्त करने के लिए “केजरीवाल-क्रांति” में सिर छिपाते नजर आते हैं। केजरीवाल की करपोरेटपरस्ती और खुली सांप्रदायिक राजनीति से अभी तक उन्हें कोई ऐतराज नहीं है। उन्हें इस सच्चाई से भी ऐतराज नहीं है कि आप ने पूरे देश के स्तर पर धुर दक्षिणपंथी और उग्र सांप्रदायिक राजनीति के पाट को भाजपा के साथ मिल कर लगातार चौड़ा किया है। वैचारिक/विचारधारात्मक कदाचार की इस इंतिहा पर अफसोस ही प्रकट किया जा सकता है।
(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फ़ेलो हैं)