चरण सिंह राजपूत
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। चुनाव भले ही पांच राज्यों में हों पर देश की निगाहें उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव हैं। भले ही मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच बताया जा रहा हो पर कांग्रेस प्रभारी प्रियंका गांधी टिकट बंटवारे में महिलाओं की पैरवी करके मुकाबले को रोचक बनाती प्रतीत हो रही हैं। लखीमपुर कांड में जिस तरह से प्रियंका गांधी ने आगे बढ़कर मोर्चा संभाला था, उससे उनकी छवि एक आंदोलनकारी की हो गई है। वैसे भी उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी लगातार मेहनत कर रही हैं। इन सबके बावजूद राजनीतिक समीक्षक कांग्रेस को मुकाबले से बाहर मानकर चल रहे हैं। इसका बड़ा कारण कांग्रस का उत्तर प्रदेश में लम्बे समय से सत्ता से बाहर होना है। भले ही कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश को गोविंद वल्लभ पंत, संपूर्णानंद, चंद्रभान गुप्ता, सुचिता कृपलानी, त्रिभुवन नारायण सिंह, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, विश्वनाथ प्रताप सिंह, नारायण दत्त तिवारी और वीर बहादुर सिंह जैस मुख्यमंत्री दिये हों पर ३२ साल से कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सत्ता से बाहर है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि जिस कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश को सबसे अधिक मुख्यमंत्री दिये हैं उसकी प्रदेश में इतनी दुर्गति कैसे हो गई।
दरअसल केंद्र की सत्ता के लिए कांग्रेस राज्यों में क्षेत्रीय दलों को बढ़ावा देती रही और पिछड़ती रही। १९८९ में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के बाद जब मुलायम सिंह जनता दल से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने तो वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर की सरकार गिरने के बाद मुलायम सिंह की सरकार बचाने वाली कांग्रेस ही थी। केंद्र में चंद्रशेखर, देवगौड़ा और गुजराल सरकार बनवाने से भी कांग्रेस उत्तर प्रदेश में कमजोर हुई है, क्योंकि जहां चंद्रशेखर का वजूद उत्तर प्रदेश में था वहीं देवगौड़ा और गुजराल सरकार में रक्षामंत्री बनने के बाद मुलायम सिंह का कद और बढ़ गया था। यह दुर्गति कांग्रेस की उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के कई राज्यो में हुई है। चाहे उत्तर प्रदेश में सपा हो, बसपा हो, रालोद हो या फिर हरियाणा में इनेलो हो, पंजाब में अकाली दल हो, महाराष्ट्र में एनसीपी हो, शिवसेना हो, पश्चिमी बंगाल में तृमूकां हो, बिहार में राजद हो ये सभी दल कांग्रेस की केंद्र की सत्ता के लालच के चलते हुए स्थापित हुए हैं।
इंदिरा गांधी के निधन के बाद कांग्रेस का यह रवैया हो गया था कि क्षेत्रीय दलों की मदद से उसकी केंद्र सरकार चलती रहे, राज्यों की ओर उसका ध्यान नहीं रहा। कांग्रेस को यह सोचना होगा कि भाजपा को सत्ता से बेदखल करना क्षेत्रीय दलों के बस की बात नहीं है। उत्तर प्रदेश में जहां दूसरे दल २०२२ के लिए लड़ रहे हैं, वहीं भाजपा २०२४ के लिए लड़ रही है। कांग्रेस को यह भी सोचना होगा कि कांग्रेस को लोकसभा चुनाव के लिए क्षेत्रीय दलों के लिए चुनाव को ढीला छोड़ना बंद करना होगा। जैसा कि पश्चिमी बंगाल में कांग्रेस ने किया है। कम से कम कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में मजबूती से चुनाव लड़ना होगा। हालांकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सभी सीटों पर चुनाव लड़ने जा रही है। यह कांग्रेस का राज्यों में ढीला रवैया ही रहा है कि उसके कितने नेता टूटकर दूसरी पार्टियों में चले गये हैं। कांग्रेस के लिए मंथन की बात यह है कि उसके अधिकतर नेता उस भाजपा में गये हैं जिसकी वह मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी है।
कांग्रेस के इसी लचीलेपन की वजह से ही केंद्र की सत्ता से वर्ष 2014 में बेदखल हुई कांग्रेस पार्टी धीरे-धीरे राज्यों में भी कमजोर होती रही है। गत सालों में कांग्रेस विधायकों को या तो पार्टी से विश्वास टूटा है या फिर दूसरे दलों खासकर बीजेपी में अपना भविष्य दिखाई दिया है। चुनावी एवं राजनीतिक सुधारों की पैराकार संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिकट रिफॉर्म्स (एडीआर) ने गत साल एक रिपोर्ट में कहा था कि साल 2016-2020 के दौरान हुए चुनावों के समय कांग्रेस के 170 विधायक दूसरे दलों में शामिल हुए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान पांच लोकसभा सदस्य भाजपा को छोड़कर दूसरे दलों में शामिल हुए तो 2016-2020 के दौरान कांग्रेस के सात राज्यसभा सदस्यों ने दूसरी पार्टियों में शामिल हुए। एडीआर ने कहा था ”यह गौर करने वाली बात है कि मध्य प्रदेश, मणिपुर, गोवा, अरुणाचल प्रदेश और कर्नाटक में सरकार का बनना-बिगड़ना विधायकों का पाला बदलने की बुनियाद पर हुआ था। मतलब राज्यों में कमजोर होने की वजह से कांग्रेस नेताओं का उससे विश्वास लगातार कम हुआ है। अब जब उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी की अगुआई में कांग्रेस ने दूसरी विपक्ष के दलों, सपा, बसपा, रालोद, आप से कहीं अधिक आंदोलन किये हैं। उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी ने कांग्रेस को मजबूत किया है।