Category: विचार

  • इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ना बंद करों!

    इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ना बंद करों!

    समाजवादी पार्टी के लोकसभा सदस्य रामजीलाल सुमन द्वारा बहस में इस्तेमाल की गई भाषा को लेकर आज तनावपूर्ण हालात बन गए। और इसका सबसे खतरनाक पहलू जातिगत ललकार, वैमनस्य का बनना है। जाति, मजहब के आधार पर होने वाली सियासत जम्हूरियत और मुल्क के लिए खतरनाक है। वार्ता, बातचीत समन्वय की मार्फत इस का हल निकालना निहायत ही जरूरी है। आज भुखमरी, बेकारी, महंगाई, कामगारों और किसानो की बदहाली, मजहबी सांप्रदायिकता के उफ़ान का तूफान रौद्र रूप में चिंघाड़ रहा है।
    इतिहास को कैसे पढ़ा या उसकी व्याख्या की जाए इस पर 3 अक्टूबर 1963 को हैदराबाद में “हिंदू और मुसलमान “विषय पर डॉ राममनोहर लोहिया ने जो भाषण दिया था उसकी आज भी अहमि‌यत है। “असलियत यह है कि पिछले 700- 800 बरस में मुसलमान ने मुसलमान को मारा है। मारा है, कोई रूहानी अर्थ में नहीं, जिस्मानी अर्थ में मारा है। तैमूर लंग आकर जब चार-पांच लाख आदमियों का कत्ल करता है तो उसमें से 3 लाख तो मुसलमान थे, पठान मुसलमान थे, जिनका कत्ल किया। कत्ल करने वाला मुगल मुसलमान था। यह चीज अगर मुसलमानों के घर-घर में पहुंच जाए कि कभी तो मुगल मुसलमान ने पठान मुसलमान का कत्ल किया कभी अफ्रीकी मुसलमान ने मुगल मुसलमान का, तो पिछले 700 बरस का वाक्या लोगों के सामने अच्छी तरह से आने लग जाएगा यह हिंदू मुसलमान का मामला नहीं है, यह तो देसी-विदेशी का है। सबसे पहले अरब के या और कहीं के मुसलमान आए। वे परदेसी थे। उन्होंने यहां के राज को खत्म किया। फिर वे धीरे-धीरे सो – पंचास बरस में देसी बने, लेकिन जब यह देसी बन गए तो, फिर एक दूसरी लहर परदेसियों की आयी, जिसने इस देसी मुसलमान को उसी तरह से कत्ल किया जिस तरह से हिंदुओं को। फिर वे परदेसी भी सो पचास बरस में देसी बन गए, और फिर दूसरी लहर आयी। हमारे मुल्क की तकदीर इतनी खराब रही है पिछले 700- 800 बरस में कि देसी तो रहा है नपुंसक और परदेसी रहा है लुटेरा या समझो जंगली। हमारे 700 बरस के इतिहास का नतीजा। इस बात को हिंदू मुसलमान दोनों समझ जाते हैं, तो फिर नतीजा निकलता है कि हर एक बच्चे को सिखाया जाए, हर एक स्कूल में, घर-घर में, क्या हिंदू क्या मुसलमान, बच्ची -बच्चे की रजिया, शेरशाह, जायसी वगैरा हम सबके पुरखे हैं, हिंदू और मुसलमान दोनों के। मैं यह कहना चाहता हूं कि रजिया, शेरशाह और जायसी को मैं अपने मां-बाप में गिनता हूं। यह कोई मामूली बात इस वक्त मैंने नहीं कही है। लेकिन उसके साथ-साथ में चाहता हूं कि हम में से हर एक आदमी, क्या हिंदू, क्या मुसलमान यह कहना सीख जाए कि गजनी, गोरी और बाबर लुटेरे थे और हमलावर थे। यह दोनों जुमले साथ-साथ हो हिंदू और मुसलमान साथ-साथ हो, हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए गजनी, गोरी, बाबर लुटेरे थे और हमलावर थे। सारे देश के लिए देसी लोगों की स्वाधीनता को खत्म करने वाले लोग थे और रजिया, शेरशाह जायसी वगैरा हमारे सबके पुरखे थे। अगर 700 बरस को देखने लग जाएंगे जोड़ने वाली निगाह से कि हमारे इतिहास में यह तो मामला था देसी का, यह था परदेसी का , यह ‌अपने, यह थे पराये और दोनों का नजरिया एक हो जाएगा। —– मैंने आज खास तौर से हिंदू -मुसलमान की बात कही, लेकिन आप याद रखना, यह बात इसी तरह से हरिजन, आदिवासी और पिछड़ी जाति वालों और औरतों के लिए भी समझ लेना, क्योंकि औरत तो जो कोई भी है चाहे ऊंची जाति की, चाहे नीची जाति की, सबको में पिछड़ी समझता हूं और मैं क्या समझता हूं आप जानते हो औरत को हिंदुस्तान में, दुनिया में दबा करके रखा गया है उसे यहां बहुत ज्यादा दबा
    कर रखा गया है। मर्दी ही मर्द मेरी सुन रहे हैं मेरी बात को। औरतें कितनी सुनने आयी है तो यह जितने पिछड़े हैं इनको विशेष अवसर देना होगा, ज्यादा मौका देना होगा, तब ये ऊंचा उठेंगे। मैं आपसे आखरी में यही प्रार्थना करता हूं कि इन सब चीजों पर खूब गंभीरता से सोच -विचार करना और बन पड़े तो हैदराबाद में एक नई जान पैदा करने की कोशिश करना ।
    राजकुमार जैन
    जारी है,—

  •  रामजीलाल सुमन को मारने से पहले जान ले ! 

     रामजीलाल सुमन को मारने से पहले जान ले ! 

    इतिहास की बेशुमार किताबों में मुख्तलिफ यकीदो, विचारधाराओं, आस्थाओं मान्यताओं तथ्यों मैं यकीन रखने वाले इतिहासकारो ने अपने अपने नजरिये से इतिहास लिखा है। इतिहास की किताबों में अनगिनत झूठे, सच्चे किस्से कहानियां दर्ज हैं। आप किताब के बदले नई किताब लिख सकते हैं, पहले जो लिखा जा चुका है उसको ग़लत करार देकर नया लिख सकते हैं परंतु पहले जो लिखा जा चुका है उसको मिटा नहीं सकते।
    राणा सांगा एक लड़ाकू योद्धा था। तीर लगने से एक हाथ कटा होने, बदन के हर हिस्से पर घाव होने के बावजूद वह आखरी दम तक लड़ता रहा, इतिहास के पन्नों में कहीं इस पर दो राय, बहस नहीं। विवाद इस बात पर है कि क्या उसने इब्राहिम लोदी को हराने के लिए बाबर को दावत नामा दिया था? तवारीख के इस विवादास्पद तथ्य पर लोकसभा में रामजीलाल सुमन के बोलने पर राणा सांगा के जाति के लोग पहले सुमन के घर पर बुलडोजर पर चढ़ाई करके मकान को ध्वस्त तथा सुमन को मारने के लिए पहुंचे। और बाद में पूरी तैयारी कर सुमन के खून के प्यासे बन, नंगी तलवारें, बंदूक तमंचो लाठी डंडों से लैस खुलेआम मैदान में केसरिया बाना धारण कर ऐलान किया कि सुमन की हत्या करने वाले को इनाम दिया जाएगा।
    कानून, संविधान, न्याय का शासन की बात छोड़िए, क्या तलवार की नोक पर इतिहास की इबारत को बदला जाएगा?
    हमलावरों से मेरी गुजारिश है कि, वे रामजीलाल सुमन का इतिहास जान ले। एक दलित मां के पेट से पैदा होने वाला सुमन विद्यार्थी जीवन में ही सोशलिस्टों की संगत में ऐसा रंगा की उम्र के आखिरी दौर मैं भी पलटा नहीं। जब उत्तर प्रदेश में मान्यवर कांशीराम तथा मायावती के तूफान में सियासत करने वाला हर दलित नेता शामिल हो रहा था उस दौर में भी सुमन, मायावती का सजातीय होने के बावजूद सोशलिस्ट पार्टी के झंडे को कंधे पर रखकर नारा लगाता रहा। इसी खुन्नस के कारण मायावती जी घोषणा कर रही है कि रामजीलाल सुमन पर होने वाला हमला दलितों पर हमला नहीं है।
    आचार्य नरेंद्र देव, युसूफ मेहर अली, जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया की विचारघारा में दीक्षित रामजीलाल, भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के ऐसे लाड़ले थे कि अगर आज चंद्रशेखर जी जीवित होते तो सबसे पहले उनकी मुनादी होती कि इस पर हमला करने से पहले मुझ पर करो।
    हिंसा से किसी भी सवाल का जवाब नहीं मिलता, हिंसा का चक्र घूमता रहता है, कभी कोई ऊपर हो जाता है और कोई नीचे। लिखे का जवाब लिखे से, बोली का जवाब बोली से ही दिया जाना चाहिए।
    राजकुमार जैन

  • भीमराव अंबेडकर और आज: विचारों का आईना या प्रतीकों का प्रदर्शन?

    भीमराव अंबेडकर और आज: विचारों का आईना या प्रतीकों का प्रदर्शन?

    डॉ. भीमराव अंबेडकर ने भारत को एक समतामूलक, न्यायप्रिय और जातिविहीन समाज का सपना दिखाया था। उन्होंने संविधान बनाया, शिक्षा और सामाजिक न्याय को हथियार बनाया, और जाति व्यवस्था का खुला विरोध किया। आज उनका नाम हर मंच पर लिया जाता है, लेकिन उनके विचारों को गंभीरता से अपनाया नहीं जाता। आरक्षण को राजनीतिक हथियार बना दिया गया है, शिक्षा निजी हाथों में चली गई है, और दलितों के साथ अत्याचार आज भी जारी हैं। अंबेडकर का धर्म परिवर्तन एक चेतना का आंदोलन था, जिसे आज संकीर्ण नजरिए से देखा जाता है। सोशल मीडिया पर उनका प्रचार तो है, पर विचारों की गहराई नहीं। अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि तभी दी जा सकती है जब हम उन्हें मूर्तियों में नहीं, विचारों में जिएं। उनके सपनों का भारत तभी बनेगा जब हम जातिवाद मिटाएं, शिक्षा और न्याय को सभी के लिए सुलभ बनाएं, और संविधान को अपने आचरण में उतारें।

    डॉ सत्यवान सौरभ

    डॉ. भीमराव अंबेडकर सिर्फ एक व्यक्ति नहीं थे, वे एक विचारधारा थे, एक आंदोलन थे और एक दिशा थे। उन्होंने भारत को वह संविधान दिया, जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित है। लेकिन आज जब हर गली, चौराहे और राजनीतिक मंच पर उनकी तस्वीरें टंगी दिखती हैं, तो सवाल उठता है – क्या हम उनके विचारों और संघर्षों को वाकई समझते हैं? क्या हम उनके आदर्शों को अपनाते हैं, या केवल उन्हें प्रतीकों में समेट कर आत्ममुग्ध हो रहे हैं?

    अंबेडकर का सबसे बड़ा योगदान भारत का संविधान था, जो प्रत्येक नागरिक को समानता और न्याय की गारंटी देता है। लेकिन क्या यह गारंटी आज भी सच में लागू हो रही है? संविधान कहता है कि किसी के साथ जाति, धर्म, लिंग या जन्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। परंतु आज भी भारत में दलितों को मंदिरों में प्रवेश से रोका जाता है, ऊंची जातियों के कुओं से पानी नहीं भरने दिया जाता, और जातिगत हिंसा की खबरें आए दिन सुर्खियां बनती हैं।

    डॉ. अंबेडकर ने शिक्षा को सबसे बड़ा हथियार बताया था – “शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो” उनका प्रसिद्ध नारा था। लेकिन आज जब शिक्षा को निजीकरण की गिरफ्त में धकेल दिया गया है, तब गरीब, वंचित और दलित वर्ग के बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा एक सपना बनती जा रही है। सरकारी स्कूल बदहाल हैं, और निजी संस्थान सिर्फ अमीरों के लिए खुले हैं। क्या यह उसी भारत की तस्वीर है, जिसका सपना अंबेडकर ने देखा था?

    आरक्षण डॉ. अंबेडकर की दूरदर्शिता का परिचायक था। उन्होंने इसे एक अस्थायी उपाय के रूप में सोचा था, जिससे हज़ारों सालों से वंचित समुदाय को समाज में बराबरी का स्थान मिल सके। पर आज आरक्षण को वोट बैंक की राजनीति ने हड़प लिया है। एक ओर जहां कुछ वर्ग आरक्षण के लाभ से अब भी वंचित हैं, वहीं दूसरी ओर इसे खत्म करने की मांगें भी बढ़ रही हैं। सामाजिक न्याय के इस औज़ार को सही तरीके से लागू करने की बजाय, इसे विभाजनकारी मुद्दा बना दिया गया है।

    हर चुनाव में हर पार्टी “जय भीम” के नारे लगाती है, अंबेडकर की मूर्तियों पर फूल चढ़ाती है, लेकिन उनके विचारों को आत्मसात करने से कतराती है। अंबेडकर ने बार-बार चेताया था कि राजनीतिक लोकतंत्र तभी सफल होगा, जब सामाजिक लोकतंत्र मजबूत होगा। परंतु आज राजनीतिक दल जातिगत समीकरणों के ज़रिए वोट बटोरते हैं, और वही जातिवाद समाज में ज़हर की तरह फैलता है।

    डॉ. अंबेडकर का सबसे बड़ा संघर्ष जाति व्यवस्था के खिलाफ था। उन्होंने साफ कहा था कि जब तक जाति रहेगी, समानता और बंधुत्व संभव नहीं। उन्होंने ब्राह्मणवादी व्यवस्था की आलोचना करते हुए कहा था कि यह व्यवस्था न केवल अमानवीय है, बल्कि भारत के विकास में सबसे बड़ी बाधा है। आज भी यदि किसी को केवल उसकी जाति के आधार पर न्याय से वंचित किया जाता है, तो यह अंबेडकर के विचारों की सीधी अवहेलना है।

    1956 में जब अंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया, तो यह केवल धार्मिक निर्णय नहीं था, बल्कि ब्राह्मणवाद को चुनौती देने वाला सामाजिक विद्रोह था। उन्होंने कहा था – “मैं हिंदू धर्म में पैदा हुआ, यह मेरी मजबूरी थी, लेकिन हिंदू नहीं मरूंगा।” उनके साथ लाखों दलितों ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर अपनी गरिमा को पुनः प्राप्त किया। लेकिन आज धर्म परिवर्तन को देशद्रोह का नाम दिया जाता है, और “घर वापसी” जैसे अभियान समाज में नफरत फैलाते हैं।

    आज सोशल मीडिया पर डॉ. अंबेडकर के नाम से पेज, ग्रुप और कोट्स की भरमार है। लेकिन विचारों की जगह वर्चुअल “जय भीम” तक सीमित होकर उनकी क्रांतिकारी चेतना को खोखला बना दिया गया…
    [1:59 pm, 14/4/2025] प्रियंका: रंगमंच पर जाति का खेल: कितना जायज़?

    कला का काम समाज को जागरूक करना है, उसकी विविधताओं को सम्मान देना है, और उस आईने की तरह बनना है जिसमें हर वर्ग खुद को देख सके। लेकिन जब कला सिर्फ कुछ खास वर्गों या समूहों की महिमा गाने लगे, और बाकी समाज की पीड़ा, संघर्ष और उपस्थिति को नज़रअंदाज़ कर दे, तो वह कला नहीं रहती — वह प्रचार बन जाती है। आज रंगमंच और सिनेमा जैसे माध्यमों में यही संकट उभर कर सामने आ रहा है। सवाल सिर्फ यह नहीं है कि रंगमंच पर जाति का खेल हो रहा है, बल्कि यह भी है कि वह खेल किसके पक्ष में है और किसे किनारे कर रहा है।

    — प्रियंका सौरभ

    रंगमंच और सिनेमा, लेखन और दृश्य माध्यमों का बहुत गहरा सामाजिक असर होता है। जब मंच पर किसी समूह की बार-बार जयजयकार की जाती है, उसे ही वीर, बुद्धिमान, त्यागी और नैतिक माना जाता है, और बाकी वर्गों को या तो खलनायक या हास्य पात्र या फिर हाशिए के लोग दिखाया जाता है — तो यह असंतुलन समाज के भीतर भी गहरे बैठ जाता है।

    कला को यह अधिकार अवश्य है कि वह ऐतिहासिक घटनाओं, परंपराओं और चरित्रों को अपनी दृष्टि से दिखाए। लेकिन अगर यह दृष्टि बार-बार एक ही दिशा में झुकी हो — अगर वह विविधता को दबाकर केवल कुछ गिने-चुने वर्गों को ही उभारती हो — तो वह दृष्टि एकपक्षीय और पूर्वग्रह से ग्रसित मानी जाएगी।

    इतिहास का चयन और वर्तमान की राजनीति

    किसी भी नाटक या फ़िल्म का आधार अक्सर इतिहास होता है। लेकिन इतिहास को देखने और दिखाने का तरीका आजकल चुनिंदा हो गया है। हम उन्हीं कहानियों को मंचित कर रहे हैं जो सत्ता के केंद्र में रही हैं, और उन्हीं समूहों को बार-बार ‘गौरव’ और ‘शौर्य’ के प्रतीक के रूप में पेश किया जा रहा है जिन्होंने पारंपरिक रूप से सामाजिक सत्ता को अपने नियंत्रण में रखा है।

    दूसरी ओर, वे कहानियाँ जो सामाजिक संघर्ष, विद्रोह, क्रांति, या समानता की बात करती हैं — वे या तो अनुपस्थित हैं या उन्हें सीमित दर्शकों के लिए मंचित किया जाता है। सवाल यह नहीं है कि किसकी कहानी बताई जा रही है, सवाल यह है कि किन कहानियों को लगातार दबाया जा रहा है।

    मनोरंजन के नाम पर मानसिकता का निर्माण

    जब कोई बच्चा बचपन से ही नाटकों, फिल्मों, और धारावाहिकों में देखता है कि नायक एक ही सामाजिक वर्ग से आता है, उसका पहनावा, भाषा, व्यवहार श्रेष्ठ दिखाया जाता है, और बाकी वर्ग केवल सहायक, सेवक या खलनायक के रूप में मौजूद रहते हैं, तो वह यह धारणा बना लेता है कि समाज का यही ‘स्वाभाविक’ क्रम है।

    यह सोच बाद में भेदभाव, पूर्वग्रह और असमानता को जन्म देती है। इस तरह कला सिर्फ मनोरंजन नहीं करती, बल्कि सामाजिक सोच और मानसिकता का निर्माण भी करती है। और जब वह मानसिकता असंतुलित होती है, तो वह समाज में हिंसा और बहिष्कार का कारण बनती है।

    कला के नाम पर बहिष्कार और नफरत

    कई बार जब कोई निर्देशक, लेखक या कलाकार समाज के वंचित वर्गों की पीड़ा को मंच पर लाता है, तो उसे विरोध का सामना करना पड़ता है। कभी कह दिया जाता है कि “ये संस्कृति के खिलाफ है”, कभी कहा जाता है “ये इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है”, और कई बार कलाकारों को धमकियाँ भी मिलती हैं।

    वहीं, जब कोई मंच या फिल्म किसी शक्तिशाली वर्ग की प्रशस्ति करता है, तब उसे ‘गौरव’ और ‘संस्कृति की रक्षा’ का दर्जा मिल जाता है। यह दोहरा मापदंड कला को लोकतांत्रिक नहीं, बल्कि वर्गीय बनाता है।

    क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल कुछ वर्गों के लिए है?

    कला के क्षेत्र में अक्सर ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की बात की जाती है। लेकिन यह स्वतंत्रता सबके लिए समान रूप से उपलब्ध नहीं दिखती। जिनके पास सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताकत है, वे अपनी कहानियाँ बार-बार कह सकते हैं। लेकिन जिनकी आवाज़ें पहले ही दबाई गई हैं, उन्हें आज भी वह मंच नहीं मिल पा रहा है।

    सवाल यह नहीं है कि कोई वर्ग अपनी कहानी क्यों कहता है, सवाल यह है कि बाकी वर्गों की कहानियों को क्यों चुप करा दिया जाता है।

    अनसुनी कहानियाँ और अदृश्य नायक

    भारत के इतिहास और समाज में अनगिनत ऐसे नायक हैं जिनकी भूमिका निर्णायक रही है — लेकिन उनके नाम, संघर्ष और योगदान रंगमंच और सिनेमा में न के बराबर दिखाई देते हैं। इन वर्गों की कहानियाँ अगर दिखाई भी जाती हैं तो उन्हें या तो सहानुभूति के लेंस से देखा जाता है या केवल ‘विक्टिम’ की तरह प्रस्तुत किया जाता है।

    ऐसे में कला उन वर्गों की शक्ति, प्रतिरोध और नेतृत्व क्षमता को सामने लाने में विफल रहती है। और यह विफलता सिर्फ रचनात्मक नहीं, नैतिक भी है।

    रंगमंच का लोकतंत्रीकरण आवश्यक

    अगर समाज लोकतांत्रिक है, तो उसका रंगमंच भी लोकतांत्रिक होना चाहिए। इसका मतलब है — हर वर्ग की भागीदारी, हर कहानी की जगह, और हर आवाज़ को समान मंच। जब तक रंगमंच पर एक सीमित दृष्टिकोण और एकतरफा महिमामंडन चलता रहेगा, तब तक समाज का यह सांस्कृतिक क्षेत्र लोकतंत्र से दूर रहेगा।

    यह ज़रूरी है कि थियेटर और सिनेमा में ऐसे नाट्य-लेखक, निर्देशक और अभिनेता सामने आएं जो हाशिए की आवाज़ों को केंद्र में लाएं। जो इतिहास को केवल सत्ता और शौर्य के नज़रिये से नहीं, बल्कि समानता और न्याय के नजरिये से भी देख सकें।

    सांस्कृतिक समरसता बनाम सांस्कृतिक वर्चस्व

    हमारे समाज में सांस्कृतिक समरसता का विचार बहुत महत्वपूर्ण है। इसका मतलब है — विविधता में एकता, हर संस्कृति और समुदाय के योगदान को स्वीकार करना। लेकिन जब रंगमंच एक ही प्रकार की पोशाक, भाषा, वेशभूषा और जीवनशैली को ‘श्रेष्ठ’ बताता है, और बाकी को या तो उपहास या तिरस्कार के रूप में दिखाता है, तो वह सांस्कृतिक वर्चस्व को बढ़ावा देता है।

    सांस्कृतिक वर्चस्व सिर्फ भौतिक दबाव नहीं, बल्कि मानसिक दबाव भी बनाता है। यह समाज के भीतर असुरक्षा, हीन भावना और सामाजिक तनाव पैदा करता है।

    नए रंगमंच की आवश्यकता

    आज जरूरत है एक ऐसे रंगमंच की जो विविधता का उत्सव माने, जो समानता को आदर्श बनाए, जो शक्ति की जगह संवेदना को महत्व दे। नाट्य लेखन में ऐसे पात्र आएं जो हर वर्ग से हों, जो उन संघर्षों को दिखाएं जो आज भी समाज में मौजूद हैं। सिर्फ ऐतिहासिक राजाओं की कहानियाँ नहीं, बल्कि खेतों, झुग्गियों, स्कूलों और सड़कों की कहानियाँ भी मंच पर हों।

    सिनेमा में भी यही ज़रूरत है। जब तक हम कहानियों को केवल सत्ता, वीरता और गौरव के चश्मे से देखते रहेंगे, तब तक हम समाज की असली तस्वीर को नहीं देख पाएंगे।

    निष्कर्ष: सबकी कहानी, सबका मंच

    रंगमंच पर जाति या वर्ग का खेल तब तक अनुचित है जब तक वह एकपक्षीय है। अगर यह खेल समावेशी हो — जहाँ हर वर्ग की भूमिका, पीड़ा, संघर्ष और उपलब्धि को ईमानदारी से दिखाया जाए — तो वह समाज को जोड़ने वाला हो सकता है।

    लेकिन जब रंगमंच केवल कुछ खास समूहों की पहचान और गौरव का उत्सव बन जाए, और बाकी समाज को दरकिनार कर दे, तो वह कला नहीं — सामाजिक अन्याय का विस्तार बन जाता है।

    हमें ज़रूरत है एक ऐसे सांस्कृतिक आंदोलन की, जो रंगमंच और सिनेमा को फिर से आम जनता का माध्यम बनाए, न कि किसी वर्ग विशेष की सत्ता का औजार। जब तक हम यह नहीं कर पाते, तब तक यह सवाल हमारे सामने बना रहेगा — रंगमंच पर जाति का खेल कितना जायज़?

  • रंगमंच पर जाति का खेल: कितना जायज़?

    रंगमंच पर जाति का खेल: कितना जायज़?

    कला का काम समाज को जागरूक करना है, उसकी विविधताओं को सम्मान देना है, और उस आईने की तरह बनना है जिसमें हर वर्ग खुद को देख सके। लेकिन जब कला सिर्फ कुछ खास वर्गों या समूहों की महिमा गाने लगे, और बाकी समाज की पीड़ा, संघर्ष और उपस्थिति को नज़रअंदाज़ कर दे, तो वह कला नहीं रहती — वह प्रचार बन जाती है। आज रंगमंच और सिनेमा जैसे माध्यमों में यही संकट उभर कर सामने आ रहा है। सवाल सिर्फ यह नहीं है कि रंगमंच पर जाति का खेल हो रहा है, बल्कि यह भी है कि वह खेल किसके पक्ष में है और किसे किनारे कर रहा है।

    प्रियंका सौरभ

    रंगमंच और सिनेमा, लेखन और दृश्य माध्यमों का बहुत गहरा सामाजिक असर होता है। जब मंच पर किसी समूह की बार-बार जयजयकार की जाती है, उसे ही वीर, बुद्धिमान, त्यागी और नैतिक माना जाता है, और बाकी वर्गों को या तो खलनायक या हास्य पात्र या फिर हाशिए के लोग दिखाया जाता है — तो यह असंतुलन समाज के भीतर भी गहरे बैठ जाता है।

    कला को यह अधिकार अवश्य है कि वह ऐतिहासिक घटनाओं, परंपराओं और चरित्रों को अपनी दृष्टि से दिखाए। लेकिन अगर यह दृष्टि बार-बार एक ही दिशा में झुकी हो — अगर वह विविधता को दबाकर केवल कुछ गिने-चुने वर्गों को ही उभारती हो — तो वह दृष्टि एकपक्षीय और पूर्वग्रह से ग्रसित मानी जाएगी।

    इतिहास का चयन और वर्तमान की राजनीति

    किसी भी नाटक या फ़िल्म का आधार अक्सर इतिहास होता है। लेकिन इतिहास को देखने और दिखाने का तरीका आजकल चुनिंदा हो गया है। हम उन्हीं कहानियों को मंचित कर रहे हैं जो सत्ता के केंद्र में रही हैं, और उन्हीं समूहों को बार-बार ‘गौरव’ और ‘शौर्य’ के प्रतीक के रूप में पेश किया जा रहा है जिन्होंने पारंपरिक रूप से सामाजिक सत्ता को अपने नियंत्रण में रखा है।

    दूसरी ओर, वे कहानियाँ जो सामाजिक संघर्ष, विद्रोह, क्रांति, या समानता की बात करती हैं — वे या तो अनुपस्थित हैं या उन्हें सीमित दर्शकों के लिए मंचित किया जाता है। सवाल यह नहीं है कि किसकी कहानी बताई जा रही है, सवाल यह है कि किन कहानियों को लगातार दबाया जा रहा है।

    मनोरंजन के नाम पर मानसिकता का निर्माण

    जब कोई बच्चा बचपन से ही नाटकों, फिल्मों, और धारावाहिकों में देखता है कि नायक एक ही सामाजिक वर्ग से आता है, उसका पहनावा, भाषा, व्यवहार श्रेष्ठ दिखाया जाता है, और बाकी वर्ग केवल सहायक, सेवक या खलनायक के रूप में मौजूद रहते हैं, तो वह यह धारणा बना लेता है कि समाज का यही ‘स्वाभाविक’ क्रम है।

    यह सोच बाद में भेदभाव, पूर्वग्रह और असमानता को जन्म देती है। इस तरह कला सिर्फ मनोरंजन नहीं करती, बल्कि सामाजिक सोच और मानसिकता का निर्माण भी करती है। और जब वह मानसिकता असंतुलित होती है, तो वह समाज में हिंसा और बहिष्कार का कारण बनती है।

    कला के नाम पर बहिष्कार और नफरत

    कई बार जब कोई निर्देशक, लेखक या कलाकार समाज के वंचित वर्गों की पीड़ा को मंच पर लाता है, तो उसे विरोध का सामना करना पड़ता है। कभी कह दिया जाता है कि “ये संस्कृति के खिलाफ है”, कभी कहा जाता है “ये इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है”, और कई बार कलाकारों को धमकियाँ भी मिलती हैं।

    वहीं, जब कोई मंच या फिल्म किसी शक्तिशाली वर्ग की प्रशस्ति करता है, तब उसे ‘गौरव’ और ‘संस्कृति की रक्षा’ का दर्जा मिल जाता है। यह दोहरा मापदंड कला को लोकतांत्रिक नहीं, बल्कि वर्गीय बनाता है।

    क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल कुछ वर्गों के लिए है?

    कला के क्षेत्र में अक्सर ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की बात की जाती है। लेकिन यह स्वतंत्रता सबके लिए समान रूप से उपलब्ध नहीं दिखती। जिनके पास सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताकत है, वे अपनी कहानियाँ बार-बार कह सकते हैं। लेकिन जिनकी आवाज़ें पहले ही दबाई गई हैं, उन्हें आज भी वह मंच नहीं मिल पा रहा है।

    सवाल यह नहीं है कि कोई वर्ग अपनी कहानी क्यों कहता है, सवाल यह है कि बाकी वर्गों की कहानियों को क्यों चुप करा दिया जाता है।

    अनसुनी कहानियाँ और अदृश्य नायक

    भारत के इतिहास और समाज में अनगिनत ऐसे नायक हैं जिनकी भूमिका निर्णायक रही है — लेकिन उनके नाम, संघर्ष और योगदान रंगमंच और सिनेमा में न के बराबर दिखाई देते हैं। इन वर्गों की कहानियाँ अगर दिखाई भी जाती हैं तो उन्हें या तो सहानुभूति के लेंस से देखा जाता है या केवल ‘विक्टिम’ की तरह प्रस्तुत किया जाता है।

    ऐसे में कला उन वर्गों की शक्ति, प्रतिरोध और नेतृत्व क्षमता को सामने लाने में विफल रहती है। और यह विफलता सिर्फ रचनात्मक नहीं, नैतिक भी है।

    रंगमंच का लोकतंत्रीकरण आवश्यक

    अगर समाज लोकतांत्रिक है, तो उसका रंगमंच भी लोकतांत्रिक होना चाहिए। इसका मतलब है — हर वर्ग की भागीदारी, हर कहानी की जगह, और हर आवाज़ को समान मंच। जब तक रंगमंच पर एक सीमित दृष्टिकोण और एकतरफा महिमामंडन चलता रहेगा, तब तक समाज का यह सांस्कृतिक क्षेत्र लोकतंत्र से दूर रहेगा।

    यह ज़रूरी है कि थियेटर और सिनेमा में ऐसे नाट्य-लेखक, निर्देशक और अभिनेता सामने आएं जो हाशिए की आवाज़ों को केंद्र में लाएं। जो इतिहास को केवल सत्ता और शौर्य के नज़रिये से नहीं, बल्कि समानता और न्याय के नजरिये से भी देख सकें।

    सांस्कृतिक समरसता बनाम सांस्कृतिक वर्चस्व

    हमारे समाज में सांस्कृतिक समरसता का विचार बहुत महत्वपूर्ण है। इसका मतलब है — विविधता में एकता, हर संस्कृति और समुदाय के योगदान को स्वीकार करना। लेकिन जब रंगमंच एक ही प्रकार की पोशाक, भाषा, वेशभूषा और जीवनशैली को ‘श्रेष्ठ’ बताता है, और बाकी को या तो उपहास या तिरस्कार के रूप में दिखाता है, तो वह सांस्कृतिक वर्चस्व को बढ़ावा देता है।

    सांस्कृतिक वर्चस्व सिर्फ भौतिक दबाव नहीं, बल्कि मानसिक दबाव भी बनाता है। यह समाज के भीतर असुरक्षा, हीन भावना और सामाजिक तनाव पैदा करता है।

    नए रंगमंच की आवश्यकता

    आज जरूरत है एक ऐसे रंगमंच की जो विविधता का उत्सव माने, जो समानता को आदर्श बनाए, जो शक्ति की जगह संवेदना को महत्व दे। नाट्य लेखन में ऐसे पात्र आएं जो हर वर्ग से हों, जो उन संघर्षों को दिखाएं जो आज भी समाज में मौजूद हैं। सिर्फ ऐतिहासिक राजाओं की कहानियाँ नहीं, बल्कि खेतों, झुग्गियों, स्कूलों और सड़कों की कहानियाँ भी मंच पर हों।

    सिनेमा में भी यही ज़रूरत है। जब तक हम कहानियों को केवल सत्ता, वीरता और गौरव के चश्मे से देखते रहेंगे, तब तक हम समाज की असली तस्वीर को नहीं देख पाएंगे।

    निष्कर्ष: सबकी कहानी, सबका मंच

    रंगमंच पर जाति या वर्ग का खेल तब तक अनुचित है जब तक वह एकपक्षीय है। अगर यह खेल समावेशी हो — जहाँ हर वर्ग की भूमिका, पीड़ा, संघर्ष और उपलब्धि को ईमानदारी से दिखाया जाए — तो वह समाज को जोड़ने वाला हो सकता है।

    लेकिन जब रंगमंच केवल कुछ खास समूहों की पहचान और गौरव का उत्सव बन जाए, और बाकी समाज को दरकिनार कर दे, तो वह कला नहीं — सामाजिक अन्याय का विस्तार बन जाता है।

    हमें ज़रूरत है एक ऐसे सांस्कृतिक आंदोलन की, जो रंगमंच और सिनेमा को फिर से आम जनता का माध्यम बनाए, न कि किसी वर्ग विशेष की सत्ता का औजार। जब तक हम यह नहीं कर पाते, तब तक यह सवाल हमारे सामने बना रहेगा — रंगमंच पर जाति का खेल कितना जायज़?

  • अब जातीय हिंसा के सहारे वोट बैंक की राजनीति ?

    अब जातीय हिंसा के सहारे वोट बैंक की राजनीति ?

  • Special on Dr. Ambedkar’s birth Anniversary : आंबेडकर का राष्ट्र प्रेम किसी भी बड़े देशभक्त नेता से कम नहीं था

    Special on Dr. Ambedkar’s birth Anniversary : आंबेडकर का राष्ट्र प्रेम किसी भी बड़े देशभक्त नेता से कम नहीं था

    नीरज कुमार 
    आंबेडकर का जन्म समाज के अत्यंत दबे हुए वर्ग में हुआ। उनके मन में ज्ञान की तीव्र लालसा और अन्याय के प्रतिकार की प्रबल इच्छा थी। उन्होंने यश के अनेक शिखर जीते और अपने उदाहरण में उन्होंने गुणवत्ता के बजाय जन्म, वर्ण और जाति की श्रेष्ठता की मान्यताओं को ध्वस्त किया।
    रामजी  आंबेडकर की वे 14वीं और अंतिम संतान थे। उनकी महार जाति के लोगों को सेना में भर्ती करने की नीति अंग्रेजों ने अपनाई थी जिससे आंबेडकर जी के पूर्वजों को सेना में प्रशिक्षण प्राप्त करने तथा नौकरी करने का मौका मिला। सन् 1892 में यह भारती अचानक बंद हो गई। उस समय आंबेडकर एक साल के थे। उनके पिता सूबेदार मेजर के पद तक पहुंचे थे। जिस वर्ष आंबेडकर का जन्म हुआ, उस वर्ष वे सेवानिवृत हुए। शिक्षा प्राप्त करने में आंबेडकर को बहुत अपमान सहना पड़ा, लेकिन वे अपने संकल्प से डिगे नहीं। सन् 1907 में उन्होंने मैट्रिक पास किया। आंबेडकर ने अपने स्कूल जीवन के कष्टों का  विवरण अपने संस्मरणों में इस प्रकार किया है:
    “मेरे स्कूल में एक मराठा जाति की स्त्री नौकरी पर थी। वह स्वयं अशिक्षित थी, लेकिन वह छुआछूत मानती थी। मुझे छूने से बचती थी। मुझे याद है कि एक दिन मुझे बहुत प्यास लगी थी। नल को छूने की अनुमति नहीं थी । मैंने मास्टर जी से कहा कि मुझे पानी चाहिए। उन्होंने चपरासी को आवाज देकर नल खोलने के लिए कहा। चपरासी ने नल खोला और तब मैंने पानी पिया। चपरासी गैरहाजिर होता तो मुझे प्यासा ही रहना पड़ता। घर जाकर ही प्यास बुझती।”
    इन सब बाधाओं को पार कर आंबेडकर ने एकाग्र मन से अपनी शिक्षा पूरी की। उनके मन में यह विश्वास था कि शिक्षा से ही दलित वर्गों तथा अन्य पिछड़े वर्गों को अवसर मिलेगा और उनकी प्रगति के द्वार खुलेंगे। ज्ञान प्राप्त किए बिना सत्ता नहीं मिलेगी, इस विचार पर वे सारी उम्र दृढ़ रहे।
    आंबेडकर के विचार और कृतित्व को समझने के लिए उनकी परस्पर विरोधी प्रेरणाओं को लक्ष्य में रखना होगा। एक तरफ उन्हें सामाजिक विषमता और अन्याय के खिलाफ लड़ना था । दूसरी तरफ वे सच्चे अर्थों में भारतीय थे। हिंदू – समाज से उन्हें तथा उनकी जाति को केवल उपेक्षा मिली थी, किन्तु इसके बावजूद नाजुक क्षणों में उनका देश प्रेम अप्रत्याशित रूप से प्रकट हो जाता था। उनकी दो इच्छाएं थीं, भारत महान बने और सामाजिक अन्याय समाप्त हो। इन दो इच्छाओं के बीच एक सतत एवं सर्जनात्मक तनाव उनमें दिखाई देता था। साइमन कमीशन के समक्ष बयान हो अथवा गोलमेज सम्मेलन में भाषण अनुसूचित जातियों को विशेष प्रतिनिधित्व देने के सवाल को छोड़कर और किसी भी सवाल पर आंबेडकर का राष्ट्र प्रेम किसी भी बड़े देशभक्त नेता से कम नहीं था। अंग्रेजों की दोषपूर्ण संघ राज्य योजना के वे विरुद्ध थे और चाहते थे कि केंद्र में सत्ता – हस्तांतरण हो और भारतीय रियासतों के प्रशासन का लोकतांत्रीकरण किया जाए।
    4 अप्रैल, 1938 में कर्नाटक के लिए अलग प्रांत के निर्माण के प्रस्ताव पर बोलते हुए उन्होंने बंबई विधानसभा में क्षेत्रवाद और प्रांतवाद को संकुचित धारणाओं की कटु निंदा की और इस बात पर जोड़ दिया कि हम सब भारतीय हैं, इस भावना का निर्माण हमारा लक्ष्य होना चाहिए:
    “मुझे अच्छा नहीं लगता जब कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं और बाद में हिंदू अथवा मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। धर्म, संस्कृति, भाषा आदि की प्रतिस्पर्धी निष्ठा के रहते हुए भारतीयता के प्रति निष्ठा नहीं पनप सकती। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हों और अंत तक भारतीय रहें, भारतीय के अलावा कुछ नहीं।”
    आंबेडकर के अंतःकरण से ये शब्द निकले थे, जिनको बड़े – बड़े राष्ट्रवादियों में पाना कठिन है तथा यह उनकी राष्ट्रीय निष्ठा की अभिव्यक्ति थी।
  • राजपूत समाज में उत्साह भर गई आगरा की रैली ?

    राजपूत समाज में उत्साह भर गई आगरा की रैली ?

    चरण सिंह 

    राजपूत समाज को उदासीन समाज माना जाने लगा था पर जिस तरह से लोकसभा चुनाव में बाद अब सपा सांसद रामजीलाल सुमन की राणा सांगा पर की गई गलत टिप्पणी के विरोध में राजपूत समाज ने हुंकार भरी है उससे राजपूत समाज अब जागरूक दिखाई दे रहा है। जमीनी हकीकत यह है कि आगरा में हुई राजपूतों की रैली राजपूत समाज में उत्साह भर गई। दरअसल आगरा में जिस तरह से राजपूत लाठी डंडे, चाकू और तलवारों के साथ पहुंचे। यह राजपूतों का आक्रोश और शक्ति प्रदर्शन माना गया। क्या राजपूतों को लगने लगा था कि अब वोटबैंक की राजनीति के चलते उनको हल्के में लिया जा रहा है ?
    दरअसल राजपूतों की जो इतिहास रहा है। उसके अनुसार राजपूत अपनी मातृभूमि पर जान न्योछावर करने वाले रहे हैं। उनकी वीरता की कहानी घर घर में कही और सुनी जाती रही है। इतिहास में एक से बढ़कर एक पराक्रमी राजपूत हुए हैं। चाहे अमर सिंह राठौर हों, राणा सांगा हों महाराणा प्रताप हों, पृथ्वीराज चौहान हों, पृथ्वी सिंह हों। तमाम राजपूतों के पराक्रम और बलिदान से इतिहास पटा है। ऐसे में वोटबैंक के लिए कोई भी राजपूतों के बारे में कुछ भी टिप्पणी कर दे रहा है।
    लोकसभा चुनाव ने दलितों का वोट हासिल करने के लिए बीजेपी नेता पुरुषोत्तम रुपाला ने एक कार्यक्रम में बोल दिया कि राजपूत शासकों के आक्रांताओं से बेटी और रोटी के रिश्ते रहे हैं। लोकसभा चुनाव में जब राजपूतों के रुपाला से माफ़ी मांगने की बात कही तो बीजेपी नेतृत्व की शह पर रुपाला ने माफ़ी नहीं मांगी। राजपूतों ने पंचायत कर उत्तर प्रदेश में बीजेपी को हरवा दिया। चुनाव में सबसे अधिक असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रहा था। सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, कैराना, नगीना, मुरादाबाद, रामपुर पर राजपूतों की पंचायत का सीधा असर देखा गया था। जिसका फायदा कांग्रेस और सपा को हुआ।
    पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राजपूतों की पंचायत का नेतृत्व किसान मजदूर संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष ठाकुर पूरन सिंह ने किया था। ठाकुर पूरन सिंह ने सपा सांसद रामजीलाल सुमन का इलाज बीजेपी की तरह करने की बात की है। तो क्या समाजवादी पार्टी को रामजी लाल सुमन के राणा सांगा को गद्दार कहने का खामियाजा सपा को भुगतना पड़ेगा ? राणा सांगा के नाम पर सपा से बड़े स्तर पर यादव भी नाराज हो रहे हैं।
    यादवों  की ओर से राजपूतों को समर्थन दिया जा रहा है। वैसे भी दलितों और यादवों के बीच में पुराने घाव हैं। मायावती राज में यादवों का उत्पीड़न किया जाता था तो मुलायम और अखिलेश यादव के शासनकाल में दलितों का। इसलिए यादव और दलित आपस में मिल नहीं पाते हैं। लोकसभा चुनाव में तो मायावती के हथियार डाल देने और संविधान और आरक्षण की वजह से सपा की 37 सीटें आ गईं।
    दरअसल सपा की रणनीति यह है कि बाबर के नाम पर मुसलमान तो रामजी लाल सुमन के नाम पर  दलित वोट बैंक को साध लिया जाए। सपा को समझना होगा कि रामजी लाल सुमन को दलित समाज अपना नेता नहीं मानता है। ऐसे ही राणा सांगा और रामजी लाल सुमन के इस विवाद में मुसलमान भी कोई खास दिलचस्पी नहीं ले रहा है।

    दरअसल आगरा में क्षत्रिय करणी सेना के कार्यकर्ता राणा सांगा की जयंती मनाने के लिए जिस उत्साह से पहुंचे थे। जिस तरह से रामजीलाल सुमन के विवादित बयान के बाद ‘रक्त स्वाभिमान रैली’ के तहत करणी सेना राणा सांगा की जयंती मनाई गई। तलवारों और चाकुओं के साथ हंगामा हुआ। रामजीलाल सुमन के खिलाफ जमकर नारेबाजी की गई। बताया जा रहा है कि कार्यक्रम स्थल पर पुलिस के पहुंचने पर आक्रोश बढ़ गया। इसके बाद वहां लोग नाराज हो गए। पुलिस के सामने ही करणी सेना के कार्यकर्ताओं ने तलवार और डंडे लहराए और पुलिस आक्रोशित भीड़ को देखकर वापस चली गई। हालांकि क्षत्रिय सभा के आयोजक आए और उन्होंने भीड़ को शांत किया।

    जानकारी मिल रही है कि रैली में सुरक्षा के इंतजाम के लिए अलग-अलग जिलों से 5-6 हजार की तादाद में पुलिसकर्मियों को बुलाया गया था। पीएसी की भी कई बटालियन बुलाई गई थी। इसके बावजूद यहां पुलिस बेबस दिखाई दी। ऐसे में सुरक्षा में किसी भी तरह की चूक न हो इसके लिए चप्पे-चप्पे पर पुलिस प्रशासन अलर्ट मोड पर था। राणा सांगा जयंती के मौके पर करणी सेना के द्वारा आगरा में रैली को लेकर आगरा प्रशासन पहले से ही अलर्ट था। इसके साथ समाजवादी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन के घर के बाहर पुलिस ने सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी गई थी। . आगरा को छावनी में तब्दील कर दिया था। इस रैली के आयोजकों ने एक लाख लोगों के पहुंचने का दावा किया है। लगभग दस संगठनों की संयुक्त यह रैली बताई जा रही है।

  • सत्ता, शहादत और सवाल: जलियांवाला बाग की आज की प्रासंगिकता

    सत्ता, शहादत और सवाल: जलियांवाला बाग की आज की प्रासंगिकता

    जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919) केवल ब्रिटिश अत्याचार का प्रतीक नहीं, बल्कि आज के भारत में सत्ता और लोकतंत्र के बीच जटिल रिश्ते का प्रतिबिंब भी है। जनरल डायर द्वारा किए गए नरसंहार ने स्वतंत्रता संग्राम को दिशा दी, लेकिन यह भी सिखाया कि जब सत्ता निरंकुश हो जाए और जनता मौन, तो इतिहास रक्त से लिखा जाता है। अगर लोकतंत्र में विरोध को अपराध बना दिया जाए और सवाल उठाने वालों को दबा दिया जाए, तो हम उसी राह पर हैं जहाँ से जलियांवाला बाग जैसी त्रासदियाँ जन्म लेती हैं। हमें शहादत की स्मृति को ज़िंदा रखना होगा — न केवल श्रद्धांजलि के रूप में, बल्कि सतत चेतावनी और लोकतांत्रिक जिम्मेदारी के रूप में। जलियांवाला बाग का संदेश आज भी यही है: सत्ता को सवालों से डरना नहीं चाहिए, बल्कि जवाब देना सीखना चाहिए।

    डॉ. सत्यवान सौरभ

    13 अप्रैल 1919, अमृतसर। वैसाखी का दिन। हजारों लोग जलियांवाला बाग में एकत्र हुए थे — कुछ रॉलेट एक्ट के खिलाफ शांतिपूर्ण विरोध के लिए, तो कुछ महज़ त्योहार मनाने। तभी ब्रिटिश सेना के ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर ने अपनी टुकड़ी के साथ प्रवेश किया, बाग के एकमात्र द्वार को बंद कराया, और बिना किसी चेतावनी के भीड़ पर गोलियां चलवा दीं। लगभग दस मिनट में 1650 गोलियां चलाई गईं।
    सैकड़ों की जान गई, हजारों घायल हुए। दीवारें खून से लथपथ हो गईं। और भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक निर्णायक मोड़ आया। जलियांवाला बाग हत्याकांड सिर्फ एक ऐतिहासिक त्रासदी नहीं थी, वह साम्राज्यवादी दमन की पराकाष्ठा थी। लेकिन आज, 100 साल से अधिक समय बीत जाने के बाद, हमें खुद से पूछना होगा — क्या जलियांवाला बाग केवल इतिहास की एक दुखद कहानी है, या फिर एक ऐसा आईना है जिसमें आज का लोकतंत्र भी देखा जा सकता है?

     

    जनरल डायर से लेकर आज की सत्ता तक

     

    ब्रिगेडियर जनरल डायर ने इस नरसंहार को “आवश्यक कार्रवाई” बताया था। ब्रिटिश साम्राज्य ने उसे डांटा नहीं, बल्कि कुछ ने तो उसे “असली देशभक्त” भी कहा। यह घटना हमें यह समझाती है कि जब सत्ता को जवाबदेही से मुक्त कर दिया जाता है, तब वह कितनी क्रूर हो सकती है। आज, जब शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी किसानों पर लाठीचार्ज होता है, विश्वविद्यालयों में छात्रों को पीटा जाता है, पत्रकारों को जेल में डाला जाता है, और असहमति को “देशद्रोह” का नाम दे दिया जाता है, तब यह सवाल उठता है — क्या सत्ता की वही ‘डायर मानसिकता’ आज भी जीवित है?

     

    विरोध और लोकतंत्र: एक नाजुक रिश्ता

     

    लोकतंत्र की बुनियाद असहमति पर टिकी होती है। यदि लोग सवाल न करें, आलोचना न करें, और सत्ता से जवाबदेही न मांगें, तो लोकतंत्र धीरे-धीरे एक सत्तावादी ढांचे में तब्दील हो सकता है। जलियांवाला बाग में निहत्थे लोग मारे गए क्योंकि उन्होंने सवाल उठाए थे। आज अगर सवाल उठाने वालों को “राष्ट्रद्रोही” कहा जाता है, तो क्या हमने वाकई इतिहास से कुछ सीखा है? जब सवाल पूछना गुनाह बन जाए, और सत्ता खुद को “राष्ट्र” घोषित कर दे, तब लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी बजती है।

     

    इतिहास को सजावटी न बनाएं

     

    2021 में जब जलियांवाला बाग स्मारक का नवीनीकरण किया गया, तो उस पर तीखी आलोचना हुई। रंगीन लाइटें, सजावटी गलियारे, डिजिटल शो — सब कुछ जैसे शहादत को “इवेंट” में बदलने का प्रयास था।

     

    क्या शहीदों की यादें सेल्फी पॉइंट बन जानी चाहिए?

     

    इतिहास का काम केवल गौरव गान नहीं है, उसका उद्देश्य चेतावनी देना भी है। जब हम अपने अतीत के दर्द को केवल उत्सव में बदल देते हैं, तो हम उस चेतावनी को नजरअंदाज कर देते हैं। जलियांवाला बाग का नवीनीकरण एक उदाहरण है कि कैसे हम इतिहास की आत्मा खो सकते हैं, अगर हम केवल उसकी सतह पर सजावट करने लगें।

     

    सत्ता की भाषा बदली है, मंशा नहीं

     

    ब्रिटिश सत्ता ने विरोध को देश के खिलाफ समझा। आज जब हमारे अपने लोकतांत्रिक संस्थान, जनता की आवाज को “असहज” मानकर दबाते हैं, तो वह भी लोकतंत्र का हनन है। इंटरनेट शटडाउन, मीडिया पर नियंत्रण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला — ये सब आधुनिक भारत के “नरसंहार” हैं। फर्क इतना है कि अब बंदूक की जगह डंडा है, और डायर की जगह सिस्टम है। पिछले वर्षों में हुए आंदोलन — जैसे नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन, किसान आंदोलन, और विश्वविद्यालयों में छात्रों के आंदोलनों ने यह दिखाया है कि आज भी जब लोग सड़कों पर उतरते हैं, तो सत्ता पहले संवाद नहीं करती, बल्कि बल प्रयोग करती है।

     

    सवाल पूछना अपराध नहीं है

     

    जलियांवाला बाग की घटना हमें यह सिखाती है कि सत्ता को चुनौती देना जनता का अधिकार है। और यह अधिकार लोकतंत्र का आधार है। रवींद्रनाथ टैगोर ने इस हत्याकांड के बाद ब्रिटिश सरकार से ‘नाइटहुड’ की उपाधि लौटा दी थी। महात्मा गांधी ने इसे असहयोग आंदोलन की प्रेरणा माना। भगत सिंह ने इसे अपनी क्रांतिकारी चेतना का प्रारंभिक क्षण बताया। आज अगर कोई नागरिक सरकार से सवाल पूछता है, तो वह “राष्ट्रद्रोही” क्यों ठहराया जाता है? क्या राष्ट्र वही है जो सत्ता कहे? या राष्ट्र वह है जो नागरिक मिलकर बनाते हैं?

     

    क्या हम इतिहास को दोहरा रहे हैं?

     

    भारत आज विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन यह केवल वोट देने से नहीं बनता। यह बनता है पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और नागरिक स्वतंत्रताओं से।
    जब सरकारें सवालों से डरने लगती हैं, मीडिया पक्षपाती हो जाता है, और अदालतें मौन हो जाती हैं — तब लोकतंत्र का दम घुटने लगता है।
    जलियांवाला बाग में जो हुआ, वह इसी मौन और अन्याय का नतीजा था। आज भी, जब कोई पत्रकार सच उजागर करता है और उसे जेल में डाला जाता है, तो वह भी एक तरह का “नरसंहार” ही है — सत्य का।

     

    हमें क्या करना होगा?

     

    बच्चों को जलियांवाला बाग की कहानी केवल एक अध्याय के रूप में नहीं, बल्कि एक चेतावनी के रूप में पढ़ाई जाए। उन्हें सिखाया जाए कि सवाल पूछना देशभक्ति है, गुनाह नहीं।
    हमें असहमति को स्वीकार करना सीखना होगा। अगर कोई नागरिक सरकार की आलोचना करता है, तो उसे देशद्रोही कहना लोकतंत्र की बेइज्जती है। हर सत्ता को यह समझना होगा कि उसका अस्तित्व जनता से है। यदि वह जनता की आवाज को ही दबा दे, तो उसका नैतिक आधार खत्म हो जाता है। जलियांवाला बाग जैसे स्थानों को टूरिस्ट अट्रैक्शन नहीं, राष्ट्रीय चेतना के केंद्र के रूप में संरक्षित किया जाना चाहिए।

     

     

    जलियांवाला बाग केवल इतिहास का एक काला अध्याय नहीं, बल्कि आज की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों में प्रासंगिक चेतावनी है। जब तक सत्ता के सामने सवाल उठाने की स्वतंत्रता नहीं होगी, तब तक लोकतंत्र अधूरा रहेगा।
    यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम शहीदों की कुर्बानी को केवल दो मिनट के मौन या फूल चढ़ाने तक सीमित न करें। हमें उनका सपना पूरा करना होगा — एक ऐसा भारत जहां सत्ता जवाबदेह हो, नागरिक स्वतंत्र हों, और सवाल पूछना एक अधिकार हो, अपराध नहीं।

    जलियांवाला बाग की दीवारें आज भी बोल रही हैं। सवाल यह है कि क्या हम सुन रहे हैं?

  • समाज में विकृति पैदा कर रही ये घटनाएं ?

    समाज में विकृति पैदा कर रही ये घटनाएं ?

  • वक्फ कानून पर वोटबैंक की राजनीति के अलावा कुछ नहीं!

    वक्फ कानून पर वोटबैंक की राजनीति के अलावा कुछ नहीं!

    चरण सिंह 

    वक्फ कानून पर जितने भी दल मारामारी कर रहे हैं। उन्हें आम मुसलमानों से कोई मतलब नहीं है। उन्हें तो बस अपना वोट बैंक मजबूत करना है। यही वजह है कि जिन दलों को मुस्लिम वोट मिलता रहा है वे दल वक्फ का कानून का विरोध कर रहे हैं। अब बसपा मुखिया मायावती ने लखनऊ में प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए 14 अप्रैल को दलित एवं अन्य उपेक्षित वर्गों के मसीहा, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जयंती पर पार्टी की ओर से उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करने की बात कही है। साथ ही उन्होंने भारतीय संविधान में हर स्तर पर जरूरी कानूनी अधिकार मिलने की बात कही है। इस अवसर पर उन्होंने वक्फ कानून वापस लेने की भी मांग कर दी। मतलब मायावती को भी मुस्लिम वोट चाहिए। जानती तो वह भी हैं कि उनकी मांग का केंद्र सरकार पर कोई असर नहीं पड़ने जा रहा है।

    दरअसल बीजेपी ने वक्फ कानून के माध्यम से विपक्षी पार्टियों के कई नेताओं को निपटाने की तैयारी कर ली है। बीजेपी का तर्क है कि वक्फ की सम्पत्ति लगातार बढ़ती जा रही है। आज़ादी के समय वक्फ बोर्ड के पास 50 हजार एकड़ जमीन थी। 2013 में यह जमीन 18 लाख करोड़ हो गई तो 2023 में यह सम्पत्ति 39 लाख करोड़ रुपए बन गई। केंद्र सरकार का कहना है कि गिने चुने लोग वक्फ बोर्ड का फायदा ले रहे हैं। प्रभावशाली लोगों ने वक्फ की जमीन पर कब्ज़ा कर रखा है। वक्फ कानून के माध्यम बीजेपी को कई नेताओं का चेहरा बेनकाब करना है। मुस्लिम संगठनों की फंडिंग रोकनी है। वक्फ जमीन पर ही तो बीजेपी को खेल करना है। जब बीजेपी ने अपने सहयोगी दलों को सेट कर वक्फ कानून बनवा लिया है। ऐसे में भला क्या उन मायावती की मांग बीजेपी मान लेगी, जिनके पास एक भी सांसद नहीं है।
    बीजेपी की तो रणनीति है कि आम मुस्लिमों को वक्फ से कुछ फायदा देकर उनकी सहानुभूति बटोर ली जाए। यह काम पहले बीजेपी बिहार में करने जा रही है। बीजेपी का प्रयास यह है कि बिहार में बीजेपी का सीएम बनाया जाए। वैसे भी नीतीश कुमार मानसिक रूप से बीमार बताए जा रहे हैं। उधर पूर्व मंत्री अश्वनी चौबे ने नीतीश कुमार को उप प्रधानमंत्री बनाने की पैरवी कर एक और बहस छेड़ दी है। क्या नीतीश कुमार को बीजेपी उप प्रधानमंत्री बनाकर अपना सीएम बिहार में बना सकती है। ऐसे में बीजेपी नीतीश के बेटे चिराग पासवान को उप प्रधानमंत्री बनाकर नीतीश को साध सकते हैं।
    पूर्व सीएम मायावती ने कहा बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के बताए हुए रास्ते पर चलकर काशी राम ने बाबा सहब के जन्मदिन के शुभ अवसर पर14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी के नाम से राजनीतिक पार्टी का विधिवध गठन किया. बाबा साहेब अंबेडकर ने अपने अंतिम समय में धर्म परिवर्तन की दीक्षा ली है, उसे जातिवादी मानसिकता के लोग सनातनी बनाने में लगे हैं.

    वक्फ कानून पर मायावती ने की ये अपील

    मायावती ने वक्फ कानून पर बोलते हुए कहा-“वक्फ कानून में गैर मुस्लिम को रखने का प्रावधान है, वह भी अनुचित प्रतीत होता है. जिसका मुस्लिम समाज में विरोध है, केंद्र सरकार अगर वक्फ कानून को स्थगित करते हुए पुनर्विचार करे तो बेहतर होगा, इन सभी मामलों में सरकार ध्यान दे ये बसपा की मांग है.”

    आतंकियों के विरुद्ध हुई कार्रवाई की मायावती ने की सराहना

    वहीं बसपा प्रमुख मायावती ने कहा, “भारत में भारतीयों की सुरक्षा के लिए केंद्र और सभी राज्य सरकारों को आतंकियों के विरुद्ध अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थों को छोड़कर भारतीय कानून के तहत निष्पक्ष और ईमानदार और सख्त कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए.”

    इससे पहले मायावती ने एक्स पर पोस्ट कर लिखा था-“वास्तव में बाबा साहेब को भारतरत्न से सम्मानित करने से लेकर उनके करोड़ों अनुयाइयों के प्रति कांग्रेस, बीजेपी व सपा आदि का रवैया हमेशा ही जातिवादी व बहुजन-विरोधी रहा. जिससे मुक्ति हेतु ही बीएसपी का गठन हुआ, किन्तु अब इन वर्गों के वोटों की खातिर छल व छलावा की राजनीति की जा रही है.”