“तेजस्वी यादव के नाम एक ख़त – मार्फत जयंत जिज्ञासु”

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प्रिय जयंत,
मैं इस पत्र को इसलिए लिख रहा हूं क्योंकि आप समाजवादी विचारधारा से प्रतिबद्ध एक जागरूक साथी है। दूसरे मुझे बतलाया गया है कि आपका राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं से सीधा संपर्क भी है। तेजस्वी यादव के शुभचिंतक होने के नाते, राष्ट्रीय जनता दल के संदर्भ में मेरा यह आंकलन हैं। हालांकि मेरा भी लालू प्रसाद यादव, मंगली लाल मंडल, विजय कृष्ण, नीतीश कुमार, रघुनाथ गुप्त, वगैरह सोशलिस्ट नौजवान साथियों से एक समय नजदीकी संबंध भी रहा है।
कल सोशल मीडिया में, पटना में हुई अति पिछड़ा रैली मे तेजस्वी यादव के भाषण को सुन रहा था। हमेशा की तरह उन्होंने बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का स्मरण करते हुए उनके योगदान को उल्लेखित किया। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती की डॉक्टर अंबेडकर ने हिंदुस्तान में सदियों से सतायी, वंचित, शोषण की शिकार दलित जातियों को जागृत कर समाज में सम्मानजनक स्थान पर खड़ा करने का महान कार्य किया। परंतु मैं काफी समय से यह देख रहा हूं, कि पिछड़ों की इन रेलियों में बिहार जैसे प्रांत में अब डॉक्टर राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश के नाम का जिक्र तक होना भी बंद हो गया। वोट की राजनीति का अपना एक गणित है परंतु अपने इतिहास, पुरखों, आंदोलन के द्वारा किए गए त्याग को नजरअंदाज करना वक्ति तौर पर फायदेमंद लग सकता है परंतु उस इतिहास को छुटलाया या भूलाया नहीं जा सकता। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल या अपने को समाजवादी विचारधारा का वाहक होने का दावा करने वाले, नेता, दल यह न भूले की बिहार, उत्तर प्रदेश के गांव-गांव में सोशलिस्ट पुरखों जयप्रकाश नारायण, लोहिया के द्वारा किए गए त्याग, संघर्ष, प्रशिक्षण से दीक्षित होकर आज भी बिहार के गांव स्तर पर सोशलिस्ट विचारधारा में रचे पचे कार्यकर्ता झंडा उठाए रखते हैं। 50 के दशक में ही नारा लगता था

.संसोपा ने बांधी गाँठ,
पिछड़े पावें सौ में साठ।

धन और धरती बंट के रहेगी,
भूखी जनता अब ना सहेगी।

कमाने वाला खाएगा,
लूटने वाला जाएगा,
नया ज़माना आएगा!

डॉ. लोहिया का अरमान –
मालिक हो मज़दूर-किसान।

जो ज़मीन को जोते-बोए,
वहीं ज़मीन का मालिक होए।

राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की संतान –
सबको शिक्षा एक समान।

जनभाषा में पढ़ने दो,
हमको आगे बढ़ने दो।

दमन है कितना दमन में तेरे,
देख लिया और देखेंगे।
जगह है कितनी जेल में तेरे,
देख लिया और देखेंगे।

महारानी और मेहतरानी के बीच की दीवार को –
खत्म करो! खत्म करो!

करखनिया दामों की कीमत,
लागत खर्च से डेढ़ा हो।
(कारखानों में बनी वस्तुओं की कीमत उस पर लगे खर्च से डेढ़ गुना से अधिक न हो।)

अन्न के दाम की घटती-बढ़ती,
आने सेर के भीतर हो।
(खेती के अन्न का मूल्य एक आने प्रति सेर के अंदर घटे-बढ़े।)

मांग रहा है हिंदुस्तान,
रोज़ी-रोटी और मकान।

औरों का घर भरने वालों,
ख़ून-पसीना बहाने वालों,
कह दो इंकलाब आएगा,
बदल निज़ाम दिया जाएगा।

कमाने वाला खाएगा,
लूटने वाला जाएगा,
नया ज़माना आएगा।

फैरे लाल निशान हमारा,
हल-चक्र का मेल निराला।

जिसकी जितनी संख्या भारी,
उसकी उतनी हिस्सेदारी।

अंग्रेज़ी में काम ना होगा, फिर से देश ग़ुलाम ना होगा।

जीना है तो मरना सीखो,
कदम-कदम पर लड़ना सीखो।
……………
बड़ी जात की क्या पहचान?
गिट पिट करें, करे ना काम!
छोटी जात की क्या पहचान?
करे काम और सहे अपमान!
………………….
बेकारों को काम दो या बेकारी का भत्ता दो !!

दमन है कितना दमन में तेरे,
देख लिया और देखेंगे
जगह है कितनी जेल में तेरे, देख लिया और देखेंगे।
………….
फहरे लाल निशान हमारा,
हल-चक्र का मेल निराला।
औरों का घर भरने वालों,
खून-पसीना बहाने वालों —
कह दो, इंक़लाब आएगा,
बदल निज़ाम दिया जाएगा।

फिर होगा जग में उजियारा,
फहरे लाल निशान हमारा।

वर्ग और वर्ण मैं समानता लाने के लिए न जाने कितना संघर्ष, यातनाएं, त्याग बिहार केसोशलिस्टों ने किया है।
इसमें कोई शक नहीं कि लालू प्रसाद यादव से बड़ा जन नेता इस समय बिहार में नहीं है, इसके बावजूद अकेले राष्ट्रीय जनता दल की क्या हैसियत है? इसका असली कारण है कि वैचारिक तालीम, शिक्षण शिविर, संगठन को बनाने के लिए लोहिया के फार्मूले वोट, जेल, फावड़े का पाठ पढ़ाने का प्रयास अब बिहार में नहीं किया जा रहा। भीड़ का कायदा है कि वह फौरी तौर पर जल्द आती भी है, और उसी तरह जल्दी चली भी जाती है।
इतिहास हमें कुछ सबक भी देता है, बिना विचारधारा से बंधे नेता और पार्टीयों की क्या दुर्दशा होती है, उसके अनेक उदाहरण हमारे सामने है। चौधरी चरण सिंह जैसे बड़े नेता जिनका लोकदल एक समय उत्तर भारत का सबसे दमदार, जन आधार वाला दल था परंतु कालांतर में वह लोकसभा में केवल दो सदस्य भेजने तक ही सीमित हो गया। यूपी विधानसभा में केवल छपरौली की एक सीट ही जीत पाया, उसका चुना गया विधायक भी पार्टी छोड़कर दूसरे दल में शामिल हो गया। इसके वर्तमान वाहक जयंत चौधरी की आज क्या हैसियत है, वह भी किसी से छुपी हुई नहीं है। हरियाणा में चौधरी देवीलाल जी जैसा स्वतंत्रता सेनानी, जीवन भर संघर्ष करके किसानों के लिए लड़ने वाले तथा बाद में ओमप्रकाश चौटाला के परिवार की आज हरियाणा की राजनीति में क्या स्थिति है? पंजाब में प्रकाश सिंह बादल, उत्तर प्रदेश में मायावती जैसी नेताओं की पार्टीयां अपने अस्तित्व को बचाने की कश्मकश में लगी हुई है। जाति, धर्म पर आधारित गणित, गठजोड़ कब दम तोड़ देता है, उसकी कोई गारंटी नहीं होती। आज मुस्लिम मतदाता उत्तर प्रदेश, बिहार में समाजवादी पार्टी तथा राष्ट्रीय जनता दल के साथ लामबंद है, परंतु कब तक, क्या कांग्रेस की और उसका रुख नहीं हुआ? जनसभाओं के उत्तेजक जोशीले भाषण, चुनावी आकर्षक वायदे,जाति, धर्म के समीकरण सदैव किसी एक पक्ष के समर्थक रह पाएंगे उसकी कोई गारंटी नहीं है।
जब तक कोई दल, विचारधारा पर आधारित होकर सिद्धांतों, नीतियों, कार्यक्रमों से नई पीढ़ी को शिक्षित कर एक कैडर तैयार नहीं करता उसका विस्तार कब सिकुड़ कर नॉन एक्जिस्टेंस हो जाता है, इतिहास में इसकी अनेकों नज़ीरें हैं।
बिहार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माले) ने आज अपने संगठन के बल पर जनता दल को मजबूर किया है कि आपको हमको साथ लेना ही होगा।
चुनावी राजनीति की मजबूरी, बंदिशों को समझा जा सकता है परंतु अपने गौरवमय इतिहास उसके पुरखों और लाखों कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए त्याग, संघर्ष को नजरअंदाज करना अंततः घातक ही सिद्ध होगा।
एक जानकारी चाहता हूं कि क्या तेजस्वी यादव के भाषण या रणनीति को मनोज झा जैसे विद्वान जिनका वैचारिक रुझान और लगाव समाजवादी धारा से अलग हुआ है, वही तय करते हैं। शिवानंद तिवारी जैसे कई वरिष्ठ, सोशलिस्ट विचारधारा में तपे हुए नेताओ की सलाह, सुझाव, मार्गदर्शन सदैव पार्टी के फैलाव बढ़ाव के लिए फायदेमंद ही होगा।
मुझे कोई गलतफहमी नहीं है कि मेरे इस आंकलन को वे सुनना भी पसंद करेंगे, अथवा रद्दी की टोकरी में फेंक देंगे। मैं केवल अपनी फर्ज अदायगी के लिए यह लिख रहा हूं।
राजकुमार जैन

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