मनोरंजन की दुनिया से एक बुरी खबर सामने आयी है जहां बिग बॉस फेम और बीजेपी नेता सोनाली फोगाट का हार्ट अटैक से निधन होयगा है बतादें की सोनाली ने अपनी आखिर सांस गोवा में ली।
दरअसल एक्ट्रेस सोनाली फोगाट का गोवा में बीती रात निधन हो गया है। जानकारी के मुताबिक हार्ट अटैक के कारण उनका निधन हुआ। मालूम हो कि वो बीजेपी की लीडर भी थीं। सोनाली पिछले विधनसभा चुनावों में उन्होंने आदमपुर सीट से कुलदीप बिश्नोई के खिलाफ बीजेपी की टिकट पर चुनाव लड़ा था।बतादें की 41 साल की सोनाली गोवा में अपने स्टाफ मेंबर्स के साथ गई हुई थीं। यहां उनकी अचानक तबीयत बिगड़ी और हार्ट अटैक की वजह से उनका निधन हो गया।
बात करें सोनाली के वर्क के बारे में तो सोनाली ने छोटे पर्दे के कई धारावाहिकों में काम किया था. वही सोनाली ने सोमवार रात ही इंस्टाग्राम और फेसबुक पर एक वीडियो पोस्ट किया था.सोनाली टीकटॉक समेत कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर फेमस रहीं लेकिन सोनाली को असली पहचान रियलिटी शो बिग बॉस सीजन 14 से मिली..जिसके बाद हर कोई सोनाली को पसंद करने लगा और वह औऱ ज्यादा पॉपुलर हो गई थी।
अब नजर डाले सोनाली के पर्सल लाइफ पर तो बतादें की सोनाली का जन्म 21 सितंबर 1979 को हरियाणा के फतेहाबाद में हुआ था। रिपोर्ट्स के मुताबिक उन्होंने संजय फोगाट से शादी की थी लेकिन साल 2016 में वो हिसार स्थित अपने फार्महाउस में रहस्यमय परिस्थितियों में मृत मिले थे।जिसके बाद सोनाली पूरी तर टूट चुंकी थी…वही जो सबसे दुखद है वो है की सोनाली की एक बेटी भी है जो अभी काफी छोटी है जिसके उपर अचानक दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है।
देश के सबसे सफल निवेशकों में से एक और दिग्गज कारोबारी राकेश झुनझुनवाला का आज सुबह निधन हो गया. उन्होंने मुंबई के ब्रिज कैंडी अस्पताल में अंतिम सांस ली। इससे पहले उनकी तबीयत बिगड़ने के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था। डॉक्टर्स उन्हें बचाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उनकी जान नहीं बचाई जा सकी. बताया जा रहा है कि उनकी मौत मल्टी ऑर्गन फेल्योर की वजह से हुई है। उनकी तबीयत खराब होने के बाद ही उन्हें कल शाम में मुंबई के ब्रिज कैंडी अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
शेयर बाजार में कदम रखने के बाद साल 1986 में राकेश झुनझुनवाला ने अपना पहला प्रॉफिट कमाया. उनकी पहली कमाई टाटा के शेयर से हुई थी। केवल 43 रुपये का टाटा टी का शेयर खरीद कर उन्होंने ने इसे 143 रुपये में बेचा। इसके बाद वह धीरे-धीरे मार्केट के बड़े किंग बनकर उभरें. साल 1986 से 89 तक उन्होंने शेयर मार्केट से जबरदस्त कमाई की। इसके बाद साल 2003 में उन्होंने एक बार फिर टाटा कंपनी पर भरोसा जताते हुए टाइटन कंपनी में पैसे इन्वेस्ट किए जिसके बाद उनकी किस्मत बदल गई। उस समय टाइटन कंपनी के शेयर राकेश झुनझुनवाला ने केल 3 रुपये में खरीदे जिसका दाम 2,472 रुपये प्रति शेयर है।
Forbes हर साल दुनिया के सबसे अमीर लोगों की लिस्ट जारी करता है जिसमें राकेश झुनझुनवाला का नाम भी शामिल है. वह भारत के सबसे अमीर उद्योगपतियों की लिस्ट में शामिल है. वह भारत के 36वें सबसे अमीर व्यक्ति थे। उनकी कुल नेट वर्थ 40 हजार करोड़ रुपये की है. इन्हें भारत का वारेन बफेट कहा जाता है. आज के समय में उनकी प्रोफाइल में कई कंपनियां जैसे टीवी18, डीबी रियल्टी, इंडियन होटल्स, इंडियाबुल्स हाउसिंग फाइनेंस,एस्कॉर्ट्स लिमिटेड, टाइटन आदि जैसे कई कंपनियां शामिल थी।
झुनझुनवाला ने कुछ दिन पहले ही अपनी एयरलाइंस शुरू की थी जिसका नाम है आकासा एयर दिलचस्प बात ये है कि इस एयरलाइंस के द्वारा वह देश की बड़ी एविएशन सेक्टर की कंपनी टाटा को टक्कर देने जा रहे थे। हाल ही में टाटा ने भी एयर इंडिया को भी खरीदा था। ऐसे में टाटा और आकासा एयर का सीधा मुकाबला होने वाला था।
सुरेंद्र किशोर
स्वतंत्रता सेनानी व समाजवादी नेता दिवंगत रामानंद तिवारी पुलिस से पुलिस मंत्री तक बने थे। निधन से पहले वे लोक सभा (1977)के सदस्य भी चुने गए थे। पर, अंगे्रजी का ज्ञान नहीं रहने के कारण वे केंद्र में मंत्री नहीं बन सके।
समाजवादी नेता मधु लिमये के बारे में रामानंद तिवारी यह कहा करते थे कि ‘अंगेजी हटाओ ’ का नारा देने वाली सोशलिस्ट पार्टी के नेता मधु लिमये द्वारा यह कहा जाना कि आप केंद्र में मंत्री इसलिए नहीं बन सकते क्योंकि आप अंग्रेजी नहीं जानते, शर्म की बात है। मधु लिमये ने यही कह कर उनके मंत्री बनने का विरोध कर दिया था। यानी, यदि उन्हें अंग्रेजी आती तो वे केंद्र में भी मंत्री बने होते। बिहार में तो वे दो -दो बार पुलिस मंत्री रहे। पर ये तिवारी जी थे कौन ?
तिवारी जी का जन्म उन्हीं के शब्दों में ‘एक कंगाल द्विज’ के घर हुआ था। वे अविभाजित शाहाबाद जिले के मूल निवासी थे। उनके होश सम्भालने से पहले ही उन पर से पिता का साया उठ गया। उनकी मां ने किसी तरह उन्हें बड़ा किया।
पहले तो तिवारी जी रोजी-रोटी की तलाश में कलकत्ता गये। पर उन्हें वहां काफी कष्ट उठाना पड़ा तो वे लौट आये । उन्हें हाॅकर, पानी पांड़े और कूक के भी काम करने पड़े। वे पुलिस में भर्ती हो गये। सन् 1942 में महात्मा गांधी के आह्वान पर आजादी की लड़ाई में शामिल हो गये। उन्होंने अपने कुछ साथी सिपाहियों को संगठित किया और आजादी के सिपाहियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। तिवारी जी गिरफ्तार कर लिये गये। हजारीबाग जेल भेज दिये गये।
जेल में उनकी जयप्रकाश नारायण से भेंट हुई। जेपी से प्रभावित होने की घटना के बारे में तिवारी जी ने एक बार इन पंक्तियों के लेखक को बताया था। उन्होंने कहा कि दूसरे बड़े नेता जेल में अलग खाना बनवाते थे । पर, जेपी जेल में अपने साथियों के साथ ही खाते और रहते थे। इसी बात ने तिवारी जी को जेपी की ओर मुखातिब किया ।
वे भी समाजवादी बन गये। आजादी के बाद सन् 1952 के चुनाव में ही तिवारी जी शाह पुर से समाजवादी विधायक बन गये। वे लगातार सन 1972 के प्रारंभ तक विधायक रहे। सन् 1972 में वे हार गये। सन् 1977 में वे बक्सर से
जनता पाटी के सांसद बने । इस बीच वे सन् 1967 में महामाया प्रसाद सिंहा सरकार और सन् 1970 में कर्पूरी ठाकुर सरकार में वे पुलिस मंत्री थे। पुलिस मंत्री के रूप में उन्होंने बिहार पुलिसमेंस असोसियेशन को मान्यता दिलवाई।
ऐसी मान्यता देने वाला बिहार पहला राज्य बना। तिवारी ने पुलिसकर्मियों की दयनीय सेवा शत्र्तों की ओर पहली बार लोगों का ध्यान खींचा। उनके प्रयासों से आम सिपाहियों की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ।
पर अब भी सिपाहियों की हालत ठीक नहीं है। उनके काम के घंटे अधिक हैं।
उनके लिए रहने की उचित व्यवस्था नहीं है । और, डयूटी के समय उन्हें समुचित भोजन तक नहीं दिया जाता।
कोई सरकार यदि सिपाहियों की सेवा शत्र्तें मानवीय बना दे तो वह तिवारी जी को श्रद्धांजलि होगी।
वे आज के अधिकतर नेताओं से अलग थे। उनमें पद और पैसा के प्रति लोभ नहीं था।
जिस तरह सन 1996 में ज्योति बसु को उनकी पार्टी ने प्रधान मंत्री नहीं बनने दिया,उसी तरह सन 1970 में रामानंद तिवारी को उनकी पार्टी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने मुख्य मंत्री नहीं बनने दिया। यानी यूं कहें कि पार्टी के कुछ नेताओं ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि खुद तिवारी जी ने मुख्य मंत्री बनने से इनकार कर दिया। उनसे कहा गया कि वे ऐसी सरकार के मुख्य मंत्री कैसे बनेंगे जिस सरकार में जनसंघ शामिल रहेगा ? बिहार विधान सभा के सदस्यों का बहुमत तिवारी जी को मुख्य मंत्री बनाने के लिए तैयार था। तिवारी जी को राज भवन जाकर सिर्फ मुख्य मंत्री पद की शपथ लेनी थी। यानी, बारात सज गई थी,पर दूल्हा भाग चला। कारण सैद्धांतिक था। क्या सैद्धांतिक कारण से कोई मुख्य मंत्री पद छोड़ता है ?
तिवारी जी के मुख्य मंत्री नहीं बनने के कारण दारोगा प्रसाद राय मुख्य मंत्री बन गये। पर जनसंघ को लेकर वह बहाना भी बोगस था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ने सन् 1967 में उसी जनसंघ के साथ बिहार में भी सरकार बनाई थी। फिर जब दारोगा प्रसाद राय की सरकार गिर गई तो उसी जनसंघ के ही साथ मिलकर संसोपा के ही कर्पूरी ठाकुर ने सरकार बना ली। यानी जनसंघ का बहाना सिर्फ तिवारी जी को मुख्य मंत्री पद तक पहुंचने से रोकने के लिए था। हालांकि तिवारी जी भी जब कर्पूरी ठाकुर मंत्रिमंडल में शामिल हो गये तो अनेक लोगो ंको आश्चर्य हुआ। इसको लेकर तिवारी जी की आलोचना हुई। पर इस बात को लेकर उनकी तारीफ जरूर हुई कि भले ही कारण जो भी रहा हो ,पर रामानंद तिवारी ने पास आए मुख्य मंत्री पद को ठुकरा दिया। आज जब ऐसे नेता नहीं पाये जाते तो यह सब देख कर तिवारी जी की याद आती है।
रामानंद तिवारी के बारे में बिहार के पूर्व डी.जी.पी.,आर.आर.प्रसाद ने लिखा है,
‘फौज की नौकरी के बाद जब मैं बिहार काॅडर में आया तो मेरी उनसे फिर मुलाकात पटना में हुई।
तब वे पुलिस मंत्री थे। मुझे याद है,उन्होंने कहा था,‘जो आदमी बेजुबान घरेलू पशु नहीं रखता है,वह पुलिस विभाग में अच्छा अफसर नहीं हो सकता है। क्योंकि यहां आरक्षी बेजुबान होता है।’
उन्होंने यह भी बताया था कि ब्रिटिश शासन के दौरान जिस पुलिस अफसर ने उन्हें सेवामुक्त किया था, उसे आज भी देख कर वे खड़े हो जाते हैं और उनकी इज्जत करते हैं।’ ‘तिवारी जी ने कहा था कि सामान्यतः पदाधिकारी आरक्षियों से ऐसा काम करवाते हैं जिनसे उनकी मान मर्यादा को ठेस पहुंचती है। तिवारी जी यह भी कहते थे कि जो खतरा फौज में है,उससे अधिक खतरा पुलिस में है। क्योंकि फौज में तो पता होता है कि दुश्मन किधर है,पर पुलिस को नहीं मालूम कि किस गली में दुश्मन है। पुलिस को तो रोज ही जंग लड़नी पड़ती है।’ तिवारी जी से संबंधित एक प्रकरण मुझे भी याद है।
सत्तर के दशक की बात है। पटना के आर.ब्लाॅक स्थित उनके आवास के बरामदे में समाजवादी विधायक वीर सिंह बैठे थे। मैं भी वहां था। वीर सिंह एक खास आग्रह लेकर तिवारी जी के पास आये थे। वे चाहते थे कि रोगी महतो हत्याकांड के मुकदमे को तिवारी जी समाप्त करा दें। दरअसल साठ के दशक में चम्पारण के चनपटिया के एक बड़े व्यापारी के फार्म हाउस की जमीन पर तिवारी जी के नेतृृृृृृृत्व में भूमि आंदोलन हुआ था।
वह आंदोलन सच्चा था। समाजवादियों की मांग थी कि भूमिपतियों की जमीन गरीबों में बंटे।
तिवारी जी उस जमीन पर जबरन हल चला रहे थे। उनके साथ कुछ अन्य कार्यकत्र्ता और गरीब लोग थे।
भूमिपति के लठैतों ने हमला करके तिवारी जी को भी बुरी तरह घायल कर दिया।
उस हमले में रोगी महतो नामक एक कार्यकत्र्ता की मौत हो गई। तिवारी को तब कई महीने तक अस्पताल में रहना पड़ा था।उसी केस को रफादफा करने के लिए वीर सिंह तिवारी जी के पास आये थे।
अभियुक्त व्यापारी बहुत ही अधिक पैसे वाला था।वीर सिंह की बात सुन कर तिवारी जी सबके सामने रोने लगे।
उन्होंने वीर सिंह से साफ -साफ कह दिया, ‘तुमको उस व्यापारी से मिल जाना है तो मिल जाओ।
पर मैं मरते दम तक शहीद रोगी महतो की लाश पर समझौता नहीं कर सकता।’ तिवारी जी उस समय विधायक नहीं थे।उनके दल के विधायक राम बहादुर सिंह के नाम पर आवंटित सरकारी मकान में वे रहते थे।
तिवारी जी गाय पालते थे।उसके दूध में से कुछ दूध वे बगल के मकान में रह रहे विधान पार्षद कुमार झा को बेचते थे। तिवारी जी के घर के खर्चे को उठाने में उस दूध से मिले पैसे का भी योगदान था।
वैसी स्थिति में आज का कोई नेता क्या वही बात कहता जो बात तिवारी जी ने वीर सिंह से कही ?
अनुमान लगा लीजिए कि वह मशहूर व्यापारी हत्या के एक मुकदमे से बचने के लिए कितनी बड़ी राशि खर्च कर सकता था। आजादी के बाद के वर्षों में मशहूर समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी के बीच संबंध ठीकठाक ही था। पर बाद के वर्षों में बिगड़ गया।बिहार के इन दो दिग्गज समाजवादी नेताओं के बीच के पत्र व्यवहार को पढ़ना अपने आप में एक अनुभव है। तिवारी जी का वह पत्र 14 जनवरी 1973 के दिनमान में छपा था। उसमें रामानंद तिवारी ने कर्पूरी ठाकुर को लिखा कि ‘मैं कभी सामंत नहीं रहा।परंतु एक कंगाल द्विज के घर मंे जन्म अवश्य लिया है जिसमें न मेरा कसूर है और न किसी और का। क्योंकि इस देश में जब तक वर्ण व्यवस्था रहेगी, तब तक हर कोई किसी न किसी जाति में पैदा होता रहेगा। परंतु मुझ कंगाल द्विज पर यह यह आक्रोश और द्वेष क्यों ? मैं जब से समाजवादी आंदोलन में आया,तब से मैंने यज्ञोपवीत निकाल दिया,चोटी काट दी। अपने छोटे बेटे का यज्ञोपवीत नहीं किया। परंपरा थी कि ब्राह्मण हल नहीं चलाता। मगर मैंने उस परंपरा को तोड़ कर हजारों लोगेां के सामने हल चलाकर अपने को शूद्र की श्रेणी में लाने का प्रयास किया। सारी द्विजवादी परंपराओं को छोड़ने के बाद भी यदि मेरे ऊपर द्विजवाद का आरोप लगाया जाये तो मैं क्या कर सकता हूं ? रामानंद तिवारी के उस पत्र से उनके व्यक्तित्व की एक महत्वपूर्ण तस्वीर सामने आती है।
इस पत्र से उस कशमकश का भी पता चलता है जो लोहियावादी समाजवादी आंदोलन में सवर्ण नेताओं और कार्यकत्र्ताओं के मन में था। यहां कर्पूरी ठाकुर और रामानंद तिवारी के बीच के विवाद पर कोई टिप्पणी नहीं की जा रही है। उस विवाद पर अलग से चर्चा हो सकती है। पर उस कशमकश की चर्चा प्रासंगिक है जो तिवारी जी जैसे जन्मना द्विज समाजवादियों के मन में था। इससे उपजी पीड़ा की भी कल्पना की जा सकती है। इस तरह पीड़ित समाजवादी कार्यकत्र्ताओं को तो कांग्रेस में कोई सम्मानपूर्ण स्थान भले नहीं मिलता,पर रामानंद तिवारी चाहते तो उन्हें कोई बड़ी जगह आसानी से मिल सकती थी। पर वे अपने विचारों की खातिर अपने जीवन की अंतिम बेला तक लड़ते-झगड़ते समाजवादियों के साथ ही रहे। वैसी परिस्थिति में आज का कोई पदलोभी नेता होता तो क्या करता,इस सवाल का जवाब कठिन नहीं है।
Freedom Struggle :अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर अकेले ही मोर्चा संभाल लिया था बलिया के जांबाज ने
Freedom Struggle : भले ही लोग Freedom Struggle को भूलते जा रहे हों। राजनीतिक दलों का मकसद बस किसी भी तरह से सत्ता हासिल करना रह गया हो पर क्या आज की तारीख में लोगों इस बात का थोड़ा सा भी एहसास है कि किन परिस्थितियों में किन-किन क्रांतिाकरियों ने अंग्रेजों से लोहा लिया। वो कौन से क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अंग्रेजों हुकूमत के खिलाफ सबसे पहले बगावत की थी। आज जिस तरह से देश में आपाधापी का माहौल है ऐसे में आजादी की लड़ाई और लड़ाई में सब कुछ न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारियों के बारे में बताना जरुरी हो गया है। हमारे देश में पहला स्वतंत्रता संग्राम 1857 में हुआ मानते हैं।
यह 1857 का स्वतंत्रता संग्राम ही था कि Freedom Struggle इस संग्राम से मिली प्रेरणा से ही लड़ाई गई। यह भी जमीनी हकीकत है कि एक ओर क्रांतिकारी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे वहीं कई रियासतें अंग्रेजों का साथ दे रही थीं। बताया जाता है कि देश तो 1857 में ही आज़ाद हो जाता पर ग्वालियर, रामपुर और पटौती जैसी रियासतों ने देश से गद्दारी कर इस स्वतंत्रता संग्राम को कुचलवा दिया था।
Revolt of Mangal Pandey : बात जब 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की हो रही है तो मंगल पांडे का नाम न लिया जाये, ऐसा हो ही नहीं सकता है। दरअसल 1857 के स्वतत्रंता संग्राम के नायक मंगल पांडे ही थे। दरअसल यह दांस्ता बंगाल की बैरकपुर छावनी में भारतीय सिपाहियों द्वारा की गई बगावत की है। बात 29 मार्च 1857 की है। वैसे यह महीना मंगल पांडेय के जन्मदिन का था। 19 जुलाई 1827 को मंगल पांडे का जन्म हुआ था। वह मांगल पांडे ही थे, जिन्होंने बैरकपुर छावनी की बगावत की अगुआई की थी। वह मंगल पांडे ही थे, जिनकी बंदूक से निकली गोलियों ने उस वक्त अंग्रेजी अफसरों को सबसे पहले जद में लिया और इसके कुछ समय बाद ही हजारों हिन्दुस्तानी लड़ाकों ने अंग्रेजों को अपनी ताकत का एहसास कराया।
मंगल पांडे के जन्म स्थान को लेकर कुछ भ्रम भी है। कहीं कोई किताबें बयां करती हैं कि मंगल पांडे की पैदाइश उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के गांव नगवा में हुई थी तो कुछ लोग उनकी पैदाइश अकबरपुर में मानते हैं। इन दो के अलावा एक तीसरी कहानी यह भी है कि कुछ लोग मंगल पांडे की जन्मस्थली बुंदेलखंड के ललितपुर में भी मानते हैं। हालांकि सरकारी दस्तावेजों में मंगल पांडे का जन्मस्थान बलिया के नगवा में ही बताया जाता है।
यदि मंगल पांडे की पृष्ठभूमि की बात की जाये तो मंगल पांडे के पिता दिवाकर पांडे खेती किसानी किया करते थे और मां अभय रानी घर का काम संभालती थीं, घर में हिन्दू महजब के रस्मो रिवाज सख्ती से अमल में लाये जाते थे। जाहिर है कि मंगल पांडे के दिल ओ दिमाग पर हिन्दू मजहब के रस्मो रिवाज पूरी तरह से हावी रहे होंगे। मंगल पांडे 21 साल की उम्र में फौज में भर्ती हो गये थे। बात 1849 की है। उस दौर में अंग्रेजों ने अपनी फौज में हिन्दुस्तानियों के लिए अलग पलटन बना रखी थी। उसी में एक 34वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री थी।
मंगल पांडे सिपाही के ओहदे पर इसी बटालियन में तैनात हुए। यहां शुरू-शुरू में तो सब ठीक-ठाक रहा लेकिन दिक्कत तब हुई जब 1855 के आसपास अंग्रेजों ने नई बंदूकें फौज में शामिल कीं। इन बंदूकों का नाम इनफील्ड-53 था। इन नई बंदूकों के लिए नए कारतूस आए जो बवाल की जड़ बन गये। दरअसल इन नए कारतूसों पर खास तरह की परत होती थी, जिसे मुंह से छीलकर कारतूस को बंदक में भरना पड़ता था। इन कारतूसों के बाबत फौज में यह खबर फैली कि इन पर जो परत है, वह गाय और सूअर के मांस की चर्बी है। खबर यह भी थी कि अंग्रेजों ने जानबूझकर ये बंदोबस्त किया है ताकि हिन्दुओं और मुसलमानों को उनके मजहब से हटाया जा सके।
दरअसल हिन्दू गाय के मांस से परहेज करते हैं जबकि मुसलमानों में सूअर के मांस से दिक्कत होती है। कारतूसों में गाय और सूअर के मांस की चर्बी होने की वजह से अंग्रेजों के साथ काम करने वाले हिन्दू और मुस्लिम दोनों कौम के फौजी इस खबर से परेशान थे। तभी दो वाकिये हुए पहला वाकिया इस तरह हुआ कि 34वीं बंगाल नेटिव इंफेंट्री में एक अफसर आए कर्नल एस व्लीलर, वे ईसाइयत के पक्के मानने वाले थे। वे साथी फौजियों को भी उसे मानने-अपनाने पर जोर दे रहे थे।
दरअसल हुआ यूं कि 56वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री के एक अफसर कैप्टन विलियम हॉलीडे की बेगम ने ईसाइयों की पाक किताब बाइबिल को फौजियों के बीच बंटवाना शुरू कर दिया।
अंग्रेजों ने इस किताब का खास तौर पर हिन्दी और उर्दू भाषा में अनुवाद कराया था। यही किताबें हिंदुस्तानियों फौजियों को बांटी जा रही थी, ताकि वे अपनी भाषा में वह सब समझ सकें, जो बाइबिल में लिखा है। हालांकि अंग्रेजों की इस कोशिश को हिन्दुस्तानी फौजियों ने यूं समझा कि अंग्रेज उनका मजहब उनसे छीन लेने के इंतजाम कर रहे हैं। कारतूस का मसला तो पहले से था ही। बस फिर क्या था कि इस मामले ने आग में घी डालने का काम किया।
इस आग ने सबसे पहले जिसे जद में लिया था वह मंगल पांडे थे। यह Revolt of Mangal Pandey ही थी कि उनके लिए यह बर्दाश्त से बाहर था। वह 1857 का 29 मार्च था कि मंगल पांडे बैरक के बाहर टहल रहे थे। गुस्सा काबू से बाहर हो रहा था। दोपहर का वक्त था। बताया जाता है कि मंगल पांडेय मैदान में टहलते हुए अपने साथी फौजियों को आवाजें लगा रहे थे। बाहर आओ, हथियार उठाओ, नहीं तो ये अंग्रेज हमें विधर्मी बनाकर ही छोड़ेंगे। उन्हें इस हाल में देखकर किसी ने ऊपर के अफसरों को यह खबर दे दी। इन अफसरों में एक थे, सार्जेंट मेजर जेम्स ह्यूसन, दूसरे थे लेफ्टिनेंट हेनरी बाफ।
आनन-फानन में थोड़े से वक्त के फासले पर दोनों ही छावनी पहुंचे। Revolt of Mangal Pandey को दबाने के लिए ह्यूसन ने पहले सिपाहियों से ऊंचे ओहदे वाले हिन्दुस्तानी अफसर जमादार ईश्वरी प्रसाद को बुलाया, उन्हें हुक्म दिया कि तुरंत मंगल पांडे को गिरफ्तार कर लें। लेकिन ईश्वरी प्रसाद ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। यह कहकर कि मंगल पांडे के सिर पर खून सवार है। वे अकेले नहीं पकड़ सकते। कोई दूसरा सिपाही इस काम में उनकी मदद के लिए तैयार नहीं होगा। उधर घोड़े पर सवार हेनरी बाफ अकेले ही सीधे मंगल पांडे को काबू करने जा पहुंचे। अंग्रेज बाबू यह गलती कर बैठे थे। शायद मंगल पांडे अब तक भरी हुई बंदूक के साथ क्वार्टर गार्ड की इमारत की आड़ ले चुके थे।
उन्होंने वहीं से Henri Baff was shot. दरअसल मंगल पांडे ने अपने साथियों से वादा किया था किया था कि आज जो अंग्रेज उनके सामने आएगा वह उनके हाथ से मारा जाएगा। उसी वादे के मुताबिक उन्होंने काम किया। हालांकि पहली बार में निशाना चूक गया। घोड़े को गोली लगी और वह सवार के साथ जमीन पर आ गिरा, इतने में बाफ ने फुर्ती से अपने आप को बचाते हुए अपनी पिस्ताौल से जवाबी गोली चलाई, लेकिन वह बेकार गई। तब तक मंगल पांडे तलवार लेकर खुले मैदान में आ चुके थे। उन्होंने बड़ी तेजी से सीधे बाफ पर हमला बोल दिया। बाफ अपनी तलवार निकाल पाते कि तब तक मंगल पांडे बाफ को घायल कर चुके थे।
Front taken from James Hewson
इस फसाद की खबर जेम्स ह्यूसन को मिल चुकी थी वे भी अब मौके पर आ चुके थे। ह्यूसन अपनी बंदूक से जब तक मंगल पांडे पर निशाना साधते कि उन पर भी हमला बोल दिया गया। बंदूक के पिछले हिस्से से मारकर पांडे ने ह्यूसन को नीचे गिरा दिया। इसी बीच हिन्दुस्तानी फौजियों में एक सिपाही शेख पलटू लगातार मंगल पांडे को पकड़ने की कोशिश कर रहा था, जबकि बैरक से निकलकर मैदान में आ चुके बाकी सिपाही पलटू पर पत्थरों और जूतों की बरसात कर रहे थे ताकि वह मंगल पांडे पर अपनी पकड़ न बना सके। उधर ऊपर के अफसरों को इस बारे में खबरें दी जा चुकी थीं। कंपनी के कमांडिंग अफसर जनरल हियरसे दो अंग्रेज अफसरों के साथ छावनी में आ चुके थे। वे सब मिलकर अब मंगल पांडे को काबू में करने की कोशिश कर रहे थे। इससे वे घायल हुए पर जान नहीं गई।
मंगल पांडे गिरफ्तार हो चुके थे। हफ्ते भर में ही उनके खिलाफ मुकदमा चलाकर उन्हें फांसी की सजा सुना दी गई। उनकी मदद के जुर्म में जमादार ईश्वरी प्रसाद को भी फांसी की सजा सुनाई गई। तारीख मुकर्रर हुई कि मंगल पांडे को 18 और प्रसाद को 21 अप्रैल को फांसी दी जाएगी लेकिन अंग्रेजों को डर लगा कि मंगल पांंडे को इतने दिन जिंदा रखा तो दूसरे फौजी भी कहीं बगावत न कर दें। लिहाजा Hanged on 8th April.
प्रसाद की फांसी की तारीख वही रही। अंग्रेजों की मदद करने वाले शेख पलटी को तरक्की दे दी गई। उसे हवलदार बना दिया गया था। हालांकि पड़ताल आगे जारी रही। इसमें पाया गया कि पलटन के करीब-करीब सभी हिंदुस्तानी फौजी मंगल पांडे का साथ दे रहे थे। लिहाजा 34वीं बंगाल नेटिव इन्फेंट्री खत्म कर दी गई। बतौर सजा तारीख थी छह मई 1857। हालांकि कि इंफेंट्री खत्म होती उससे पहले शेख पलटू को किसी ने खत्म कर दिया। मगर बगावत का सिलसिला जो शुरू हुआ वह खत्म न हो सका। यह Freedom Struggle ही था कि आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं।
Remembering the Socialist leader : समाजवादी समागम की ओर से आयोजित किया गया कार्यक्रम
नई दिल्ली। श्रमिक आंदोलन के शिखर पुरुष बृजमोहन ‘तूफ़ान’ की 102 वीं जयंती का हिंद मजदूर सभा के राष्ट्रीय कार्यालय में एक यादगार कार्यक्रम रहा। यह कार्यक्रम समाजवादी समागम की ओर से आयोजित किया गया था। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रख्यात समाजवादी प्रो. राजकुमार जैन की। कार्यक्रम में तीन घण्टे तक संस्मरणों का सिलसिला चलता रहा।
श्री तूफ़ान के चित्र पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई। तूफान के विचार सूत्रों एक संकलन के वितरण से शुरू आयोजन में उनके विद्यार्थी जीवन, समाजवादी युवा आंदोलन, हिंद मजदूर सभा के निर्माण, दिल्ली की राजनीति में योगदान और देश-विदेश में हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी पत्रकारिता में भूमिका के बारे में यादों की चर्चा की गयी।
वक्ताओं ने तूफान के जीवन में आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और लोहिया के प्रभाव और स्वयं उनके द्वारा दिल्ली और पंजाब में समाजवादियों के मार्गदर्शन का विस्तार से उल्लेख किया। उनके विनोदी स्वभाव, निडर व्यक्तित्व, आत्मीय व्यवहार और बेदाग सार्वजनिक जीवन के प्रेरक प्रसंगों का उल्लेख हुआ।
ब्रजमोहन तूफान स्मृति समारोह में हिंद मजदूर सभा, महिला दक्षता समिति, समाजवादी शिक्षक मंच, जयप्रकाश फाउंडेशन, नागरिक मंच, मधु लिमये शताब्दी समिति, समाजवादी समागम और सुनील मेमोरियल ट्रस्ट के प्रतिनिधियों ने सहयोग किया। कार्यक्रम को मंजू मोहन, महेंद्र शर्मा, जगजीत दुग्गल, विजय प्रताप, रमाशंकर सिंह, अनिल ठाकुर, सोमनाथ भारती, राकेश कुमार, शम्भूनाथ सिंह, संतप्रकाश, संजय कनौजिया, आनंद कुमार ने संबोधित किया। कार्यक्रम का संचालन हिंद मजदूर सभा के राष्ट्रीय महामंत्री हरभजन सिंह सिद्धू ने किया।
Chandrasekhar’s Socialism : ईमरजेंसी के खिलाफ कांग्रेस में बागी चेहरा बने थे युवा तुर्क
Chandrasekhar’s Socialism : आज की तारीख में राजनीतिक दलों में गुलामी का आलम यह है कि हाईकमान जो निर्देश जारी कर दे कार्यकर्ता सिर झुकाकर उसे मान लेते हैं। भले ही वह निर्णय जनहित के खिलाफ हो। सत्ता में बैठे नेता तो बस यह समझ लेते हैं कि अब जो कुछ उनकी पार्टी कर रही है वह सब ठीक है। हां सत्ता के लिए जरूर पार्टी में बगावत हो जाती है। जनहित के मामले में कोई नेता पार्टी नेतृत्व का विरोध करने को तैयार नहीं। यह Chandrasekhar’s Socialism ही था कि पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ऐसे नेता हुए हैं जो सत्ताविरोधी रानजीति के पक्षधर थे। अपनी इस सोच को उन्होंने करके भी दिखाया। कांग्रेस में रहते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की नीतियों का जमकर विरोध किया।
हालांकि चंद्रशेखर की व्यक्तिगत स्वार्थों से हटकर वैचारिक और सामाजिक परिवर्तन की उन्हें लोकनायक जयप्रकाश नारायण और उनके आदर्शवादी जीवन के करीब ले आई थी। चंद्रशेखर Supporter of Change of Power. चंद्रशेखर की वजह से इंदिरा गांधी के खिलाफ कांग्रेस के भीतर गहरा असंतोष पनपा था। कांग्रेस में बगावत का खामियाजा उन्हें जेल में जाकर में भुगतना पड़ा। दरअसल 25 जून 1975 को आपातकाल घोषित किये जाने के समय आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। चंद्रशेखर की गिरफ्तारी उस समय हुई जिस समय वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शीर्ष निकायों, केंद्रीय चुनाव समिति तथा कार्य समिति के सदस्य थे। वह चंद्रशेखर का Supporter of Change of power ही था कि वह गिरफ्तार हुए थे। चंद्रशेखर सत्तारूढ़ पार्टी के उन सदस्यों में से थे, जिन्हें आपातकाल के दौरान गिरफ्तार कर जेल भेजा गया था।
सत्ता के लोभी नेताओं को चंद्रशेखर की राजनीति से सीख लेनी चाहिए। चंद्रशेखर हमेशा सत्ता की राजनीति का विरोध करते थे एवं लोकतांत्रिक मूल्यों तथा सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रति प्रतिद्धता की राजनीति को महत्व देते थे। आपात काल के दौरान जेल में बिताये समय में उन्होंने हिन्दी में एक डायरी लिखी जो बाद में मेरी जेल डायरी के नाम से प्रकाशित हुई। सामाजिक परिवर्तन की गतिशीलता उनके लेखन का एक प्रसिद्ध संकलन है। चंद्रशेखर की Young Turk was the Identity थी, जिन्होंने दृढ़ता, साहस एवं ईमानदारी के साथ जन समस्याओं को उठाते हुए सत्ता के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी। उनके जनसमस्याओं को उठाने का जज्बा इस कदर था कि वह जिंदगी भर कमजोर की लड़ाई लड़ते रहे। उनमें नेतृत्व के साथ ही पत्रकारिता का जज्बा भी गजब का था।
चंद्रशेखर १९६९ में दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका यंग इंडियन के संस्थापक और संपादक थे। इस पत्रिका का संपादकीय अपने समय के विशिष्ट एवं बेहतरीन संपादनों में से एक हुआ करता था। आपातकाल (मार्च 1977 से जून १९७५) के दौरान यंग इंडियन को भी बंद कर दिया गया था। फरवरी 1989 में इसका पुनज् नियमित रूप से प्रकाशन शुरू हुआ। चंद्रशेखर इसके संपादकीय सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे।
Young Turk was the Identity : यह जज्बा चंद्रशेखर में ही था कि 6 जनवरी 1983 से 25 जून 1983 तक दक्षिण के कन्याकुमारी से नई दिल्ली में राजघाट तक लगभग 4260 किलोमीटर की दूरी तय कर उन्होंने पदयात्रा की थी। उनके इस पदयात्रा का एकमात्र लक्ष्य लोगों से मिलना एवं उनकी महत्वपूर्ण समस्याओं को समझना था। चंद्रशेखर का जन्म 17 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में स्थित इब्राहिमपत्ती गांव के एक किसान परिवार में हुआ था। वह 1977 से 1988 तक जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे। उनके अध्यक्ष रहते हुए ही जनता पार्टी ने इमरजेंसी के खिलाफ लड़ते हुए न केवल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को गद्दी से उतारा था बल्कि प्रचंड बहुमत से सरकार भी बनाई थी।
चंद्रशेखर अपने छात्र जीवन से ही राजनीति की ओर आकर्षित होने लगे थे। वह एक क्रांतिकारी जोश एवं गर्म स्वभाव वाले आदर्शवादी नेता के रूप में जाने जाते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान में अपनी मास्टर डिग्री करने के बाद वह समाजवादी आंदोलन में शामिल हो गये थे। चंद्रशेखर Close to Acharya Narendra Dev. वे बलिया में जिला प्रजा समाजवादी पार्टी के सचिव चुने गये एक साल के भीतर वे उत्त प्रदेश में राज्य प्रजा समाजवादी पार्टी के संयुक्त सचिव बने। 1955-56 में वे उत्तर प्रदेश में राज्य प्रजा समाजवादी पार्टी के महासचिव बने। 1962 में वह उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए चुने गये। वह जनवरी 1965 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गये। 1967 में उन्हें कांग्रेस संसदीय दल का महासचिव चुना गया।
संसद के सदस्य के रूप में उन्होंने दलितों के हित के लिए कार्य करना शुर किया एवं समाज में तेजी से बदलाव लाने के लिए नीतियां निर्धारित करने पर जोर दिया। Socialist Movement में जब उन्होंने समाज में उच्च वर्ग के गलत तरीके से बढ़ रहे एकाधिकार के खिलाफ अपनी आवाज उठाई तो सत्ता पर आसीन लोगों के साथ उनके मतभेद हो गये। चंद्रशेखर ने सामाजिक एवं राजनीतिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण करने के मकसद से केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं हरियाणा समेत देश के विभिन्न भागों में लगभग पंद्रह भारत यात्रा केंद्रों की स्थापना की थी ताकि वे देश के पिछड़े इलाकों में लोगों को शिक्षित करने एवं जमीनी स्तर पर कार्य कर सकें। Socialist Movement के चलते 1984 से 1989 तक की संक्षिप्त अवधि को छोड़कर 1962 से वह संसद के सदस्य रहे। 1989 में उन्होंने अपने गृह क्षेत्र बलिया और बिहार के महाराजगंज संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा एवं दोनों ही चुनाव जीते। बाद में उन्होंने महाराजगंज की सीट छोड दी।
Chandrasekhar’s Socialism
आज की तारीख में भले ही पत्रकार राजनीतिक दलों के कार्यक्रमों में पार्टी कार्यकर्ता के रूप में शामिल न हो सकें पर देश में राजनीति और पत्रकारिता एक दूसरे के पूरक रहे हैं। देश के अधिकतर बड़े नेता पत्रकार और लेखक रहे हैं। आजादी की लड़ाई में तो नेता दिन में आजादी की लड़ाई लड़ते थे और रात में अखबार निकालते थे। चाहे पंडित जवाहर लाल नेहरू हों, फिरोज गांधी हों, अटल बिहारी वाजपेयी हों, चौधरी चरण सिंह रहे हैं या फिर चंद्रशेखर ये सभी नेता एक नेता के साथ ही बड़े पत्रकार और लेखक भी रहे हैं। देश के सबसे बड़े पत्रकार के रूप में जाने जाने जाने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी भी कांग्रेस से जुड़े रहे। देश में चंद्रशेखर ऐसा नेता रहे हैं जिन्होंने जिंदगी में कभी समझौता नहीं किया और कहा कि वह जब भी बनेंगे प्रधानमंत्री बनेंगे और बने। प्रधानमंत्री पद से नीचे का कोई पद उन्हें गवारा नहीं था। चंद्रशेखर एक क्रांतिकारी नेता के साथ ही एक पत्रकार और लेखक भी थे।
Bihar News : पटना के एक निजी अस्पताल में ली अंमित सांस, राजनीतिक गलियारे में शोक की लहर
पटना/नई दिल्ली। बिहार के पूर्व मंत्री और बिहार राज्य परिषद एचएमएस के अध्यक्ष नरेंद्र सिंह का निधन हो गया है। पटना के एक निजी अस्पताल में उन्होंने अंमित सांस ली। यह जानकारी एचएमएस के राष्ट्रीय महासचिव हरभजन सिंह सिद्धू ने दी है। उन्होंने बताया कि बडे दुख के साथ बताना पड़ रहा है कि उनके पुराने समाजवादी साथी नरेंद्र सिंह अब दुनिया में नहीं रहे। उन्होंने बताया कि नरेंद्र सिंह लंबे समय से लीवर की बीमारी से पीड़ित थे। पटना के एक निजी अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था।
Entered Politics Through JP Movement : हरभजन सिंह सिद्धू ने बताया कि नरेंद्र सिंह ने जेपी आंदोलन से राजनीति में प्रवेश किया था। हरभजन सिंह सिद्धू ने एचएमएस की ओर से उनके शौक संतप्त परिवार प्रति संवेदनाएं व्यक्त की है। नरेंद्र सिंह के निधन की खबर सुनते ही उनके पैतृक गांव जमुई में शोक की लहर दौड़ गई। पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने अस्पताल में जाकर उनसे मुलाकात की थी। नरेंद्र सिंह कई विभागों में मंत्री पद संभाल चुके हैं।
RSS chief MS Golwalkar: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी की (RSS) आज भारत का शायद ही कोई ऐसा प्रान्त बचा हो जहां इस संगठन की पहुंच न हो आपको अपने आस – पास RSS की शाखा से जुड़े युवा मिल ही जाऐगें। RSS न केवल एक संगठन हैं बल्कि इसके अलावा RSS अपने विद्यालय सरस्वती शिशु मंदिर और हर संकट की घड़ी में बचाव कार्य के लिए भी जानी जाती हैं, वर्तमान में सत्ता पर काबिज BJP पार्टी का आधार RSS संगठन को ही माना जाता हैं।
इसी संगठन को 43 साल तक चलाने वाले माधव सदाशिव गोलवलकर जिन्हे गुरुजी के नाम से भी जाना जाता है 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के दिन, 5 जून को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का जन्म दिवस मनाया जाता हैं। उसी दिन RSS के भावी नेता माधव सदाशिव गोलवलकर की पुण्यतिथि मनाई जाती हैं। वही गोलवलकर जिनके हिसाब से मुस्लिमों को अगर भारत में रहना हैं तो हिन्दू बनना चाहिए, तो चलिए जानते हैं कि कैसे थे RSS के गोलवलकर (RSS chief MS Golwalkar) और RSS को भी समझने का प्रयास करेगें।
शुरुआती जीवन –
माधव सदाशिव गोलवलकर का जन्म बंगाल विभाजन के बाद 19 फरवरी 1906 में महाराष्ट्र, नागपुर के पास स्थित गांव रामटेक में हुआ था। माधव सदाशिव गोलवलकर के पिताजी का नाम सदाशिवराव और माता जी का नाम लक्ष्मीबाई था।
माधव सदाशिव गोलवलकर का जन्म मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। परिवार के समृद्ध होने के कारण उन्होंने उनकी पढ़ाई और गतिविधियों में उनका साथ दिया। गोलवलकर अपने 9 भाई-बहनों में एकमात्र जीवित पुत्र थे।
RSS को दिशा दिखाने वाले माधवराव
माधव बचपन से ही मेधावी छात्र थे। उन्होने अपनी स्नातक डिग्री हिस्लोप कॉलेज से प्राप्त की जो कि एक मिशनरी संस्था था इसके बाद वे मास्टर डिग्री के लिए वाराणसी के हिंदू विश्वविद्यालय गए। कॉलेज में रहते हुए उनकी मुलाकात विश्वविद्यालय के संस्थापक और प्रतिष्ठित हिंदू नेता पंडित मदन मोहन मालवीय से हुई। मालवीय जी ने गोलवलकर को हिंदुओं के लिए काम करने के लिए प्रेरित किया। इसी कॉलेज में गोलवलकर, गुरूजी (Guruji Madhav Sadashiv Golwalkar) के नाम से ही मशहूर हो गये थे।
गोलवलकर और संघ –
अपनी पढ़ाई के बाद गोलवलकर ने संन्यास के मार्ग पे चलने को तय किया, लेकिन संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार ने गोलवलकर की क्षमता को पहचाना और उन्हे संघ में शामिल कर लिया, गोलवलकर ने आजीवन किसी पद की इच्छा जाहिर नहीं की लेकिन हेडगेवार के निधन के बाद 34 साल के गोलवलकर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सर्वोच्च पद सरसंघचालक का पद सम्भांला। इसी के बाद गोलवलकर की जिंदगी का दूसरा पहलू शुरू होता है जहां हम उनके दूसरे धर्मों के प्रति विचारों और हिंदुत्व के प्रति उनके निष्ठा को देख सकते हैं। आज उनकी पुण्यतिथि (Golwalkar’s death anniversary) पर उनके विचारों और कार्यों को जानते हैं।
RSS के सरसंचालक माधव सदाशिव गोलवलकर
गोलवलकर के जीवन के विवाद –
गोलवलकर का मानना था कि भारत हमेशा से ही हिन्दुओं की जन्मभूमि रही हैं मुस्लिम बाहर से यहां आए अगर उन्हे यहां रहना है तो खुद को हिन्दुत्व का मानना होगा, हिन्दु हमेशा से दूसरे धर्मों के लोगों को अपनाता रहा है, खुशवन्त सिंह गोलवलकर से मिलकर बताते हैं।
इसके अलावा गोलवलकर के जीवन से जुड़े दूसरे विवाद रहे कि जब 1942 में संघ ने भारत छोड़ो आंदोलन से खुद को पीछे खीच लिया जिसके कारण आज भी उनकी आलोचना होती हैं।
गोलवलकर खुद को बदलने के पक्ष में कभी नही थे वे भारत के संविधान को नही मानते थे, संघ के कार्यालय में 1947 और 1950 इन दो दिनों के अलावा 2002 में भारत के तिरंगे झंडे को अपनाया था।
दिखावे से दुर रहने वाले माधव –
आजीवन हिन्दुत्व को बढ़ावा देने वाले – गोलवलकर
ऐसा नहीं है कि गोलवलकर की असहमतियां केवल दूसरे दलों से थी, गोलवलकर जातिगत भेदभाव को नही मानते थे जिसके कारण एक तबका उसे हमेशा से दूरी बनाकर रखता हैं।
गोलवलकर किसी भी प्रकार के ख्याति या दिखावे से दूर भागते थे। वे कहते थे कि अगर मैं अपनी मां कि लिए काम कर रहा तो उसे दिखाने की जरुरत नहीं।
गोलवलकर ने हमेशा राजनीति से दूरियां बना कर रखीं। वे महाभारत के श्लोक का हवाला देकर इसे एक गिरा हुआ काम बताते थे। कहा जाता है कि ख्याति के मामले में गोलवलकर नेहरु को टक्कर देने वाले व्यक्तित्व थे लेकिन उन्होने आजीवन राजनीति से दूरी बनाई।
संघ को गोलवलकर के बगैर नही देखा जा सकता संघ की विचारधारा में गोलवलकर की छाप दिखती हैं आज भी उन्हे गुरुजी (Guruji Madhav Sadashiv Golwalkar) के नाम से सम्मानित कर याद किया जाता हैं उनके द्वारा किये गए कार्यों का प्रचार किया जाता हैं।
गोलवलकर अपने आप को बदलने के पक्ष पर कभी सहमत नहीं थे उन्होंने आजीवन हिन्दुत्व के मुद्दे को आगे रखा, चीन के युद्द के दौरान RSS के लोग सेवा कार्यों से प्रधानमंत्री नेहरु भी प्रभावित हुए, RSS के राजनीतिक आधार न होने के चलते RSS ने कभी अंग्रेजों से सीधा लोहा नही लिया। आप गोलवलकर (RSS chief MS Golwalkar) के विचारों और कार्यों से सहमत असहमत हो सकते हैं। लेकिन इसके पहले उन्हे जानना और पढ़ना भी जरुरी हैं।
Kk Singer Songs Stories: हमेशा मीडिया की चकाचौध से दुर रहने वाले अपने जीवन के अंतिन क्षण तक गाने वाले के.के. अब हमारे बीच नही रहें, पिछले कुछ समय से उनके गाने भले कम आते रहें हो लेकिन इसके बावजूद भी लोगों के बीच के.के. के प्रति प्यार बना था। के.के. ने जीवनभर में कुछ ही चुनिंदा गाने गाए लेकिन ज्यादात्तर उनके गाने हिट ही गए। बिना किसी कांन्ट्रोवर्सी के, शांत और प्यारे गायक अब सदा के लिए चले गए हैं।
31 मई की शाम कोलकाता में लाउव कंसर्ट के दौरान तबीयक बिगडने के बाद के.के. हम सभी को छोड़कर चले गए। के.के. हमेशा से कैमरे से दुर भागते रहें थे, वे अकसर कहते थे कि आप मुझे लाइव गाने को कह दो मै आराम से गा दुंगा, जीवन भर लाइव शो करने वाले के.के. अपने गाने पल के बोल हम रहें या न रहे गाते हुए चले गए (Kk Last Performance) चलिए इस शानदार इंसान, गायक की जिंदगी के कुछ रोचक कहानियां (Kk Singer Songs Storie) और उनके सफर को जानते हैं।
शुरुआती जीवन-
के.के. का पूरा नाम कृष्णकुमार कुन्नथ (Kk Singer Full Name) था, लेकिन सब उन्हे नाम से ही जानते थें। के.के. बचपन से ही गानों के शौकीन रहे थे बचपन से ही के.के. के घर वाले उन्हें रोक कर शोले फिल्म के गाने महबूबा – महबूबा गाने को कहते थे के.के. बड़े प्यार से उस गाने को गाते थे।
शुरुआती जीवन में के.के. ने सेल्स पर्सन के तौर पर काम किया लेकिन उस काम में उनका मन न लगने से जल्दी ही उन्होंने उस काम को छोड़ दिया। इसके बाद शुरुआती दिनों में के. के. ने विज्ञापनों के लिए जिंगल लिखने का काम किया। अगर आपको जिंगल नही पता तो बता दें कि जिंगल छोटे से गाने होते हैं जिनका उपयोग लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए किया जाता हैं।
के.के. अपनी पत्नी ज्योति के साथ
के.के. ने पहली बार ए.आर. रहमान के साथ काम किया लेकिन उन गानों को कुछ खास पहचान नहीं मिली लेकिन के.के. कहते हैं कि ये गाने उनके दिल के काफी करीब हैं। इसके बाद के.के. ने स्माइल के गाने तड़प-तड़प को पहली बार गाया उसके बाद के.के. को पूरी इंडस्ट्री में अलग ही पहचान (Kk Famous Songs) मिल गई आज तक ये गाना सुना जाता है और के.के. को याद भी इसी के कारण किया जाता हैं।
जब सुबह के समय तड़प – तड़प रिकॉर्ड किया –
के.के. बताते है कि इस गाने के पहले उन्होंने इस तरह का गाना नहीं गाया था, इस गाने को मुंबई में रात को रिकॉर्ड किया जाना था लेकिन कुछ टेक्निकल फाल्ट के चलते इसे दिन में रिकॉर्ड करना तय किया गया। क्योंकि सभी रातभर स्टूडियो में ही थे इसलिए इस गाने को सुबह ही रिकार्ड करना तय किया गया। अचानक सुबह 4 बजे उसे रिकॉर्ड किया गया और चारों ओर (Kk Famous Songs) के.के.का नाम लिया जाने लगा।
कैमरे और मीडिया की चकाचौंध से दूर KK
के.के. ने अपने एल्बम “पल” के आने के बाद एक यूथ आइकॉन बन गए, के.के. खुद भी बताते थे कि लोग 15 साल बाद भी उनसे मिलकर कहते है कि आपके इस गाने के बिना कॉलेज की फेयरवेल पार्टी में मनाई ही नहीं जा सकती हैं।
के.के. को नये दौर का किशोर कुमार भी कहा जाता था। उनका जन्म 23 अगस्त 1968 में हुआ। था। के.कें बचपन में डॉक्टर बनना चाहते थे लेकिन घर में संगीत का माहौल था, के.के. को डॉक्टर बनने का भूत उनके घर आने वाले डॉक्टर अंकल को देख कर आया था।
के.के रोमांटिक गाने तो गाते थे ही लेकिन वे असल जिंदगी में भी उतनी ही रंगीन थे के.के. ने अपनी 6वीं कक्षा की दोस्त ज्योति से शादी की। इसी शादी के चलते उन्हें नौकरी करनी पड़ी क्योंकि के.के. उस समय बेरोजगार थे। लेकिन 6 महीने बाद ही उन्होंने वो नौकरी छोड़ दी।
जब गायक अपने स्पेशल गाने बचा कर रखते थे –
के.के.बताते हैं कि इतने सालों तक वे केवल इसी लिए काम कर पाए क्योंकि हर बड़े गायक ने उन्हे अपने खास गाने उनके लिए सजा कर रखे, यही वो दौलत है जो मैने कमाई, मेरी सफलता का एक बड़ा कारण यह भी रहा हैं।
आजीवन लाइव गाना पसंद करने वाले KK
जब के.के. ने विदेश में गाना रिकॉर्ड किया –
साल 2015 में आयी फिल्म बजरंगी भाईजान के लिए “तू जो मिला” गाने को के.के. ने गाने दिया जो न केवल उस फिल्म का हिट गाना बल्कि साल के सबसे बड़े हिट (Kk Famous Songs) में शामिल हुआ। इस गाने के पीछे की कहानी अपने एक Interview में बताई की कि वे ऑस्ट्रेलिया में अपने परिवार के साथ छुट्टियां मनाने गए हुए थे।
ऐसे में प्रीतम जल्दबाजी में के.के. को फोन कर गाने के लिए कहा के.के. के बचपन के दोस्त कबीर की फिल्म होने के कारण के.के.मान गए, इसके बाद अपने घर वालों को समझाने के बाद के.के. ने आस्ट्रेलिया के एक स्टूडियो में ही गाना रिकॉर्ड किया और भेज दिया, केके के द्वारा भेजा गया ये गाना सलमान और कबीर को एक बार में पसंद आ गया, और उन्होंने इसमें और लाइन जोड़ने के लिए कहा, इसके बाद इस गाने को भारत में भी रिकॉर्ड किया।
2008 के साल के.के. अपना एल्बम हमसफर ले कर आए थे जिसमें के.के. ने खुद एक्ट किया था कैमरे से दूर रहने वाले KK को इस तरह एक्ट करते देखना रोचक था।
ये थी कुछ कहानिया जो कि गायक के.के. से जुड़ी हुई थी अब इन कहानियों (Kk Singer Songs Stories) में नई कहानियां नही जुड़ने वाली हैं। ऐसा नही था कि के.के. गाने नही गाते थे वे कम गाने गाते थे लेकिन फैंस को इंतजार रहता था उनके गानों का लेकिन अब उनके फैंस का वो इंतजार हमेशा बना रहेगा।
Kk Singer Death: कॉलेज फेयरवेल का Anthem गाने वाले महान गायक के.के. कृष्णकुमार कुन्नथ का असमय निधन हो गया। कृष्णकुमार कुन्नथ बंगाल में लाइव शो (Kk Kolkata Concert) के दौरान तबीयत खराब होने के कुछ समय बाद ही उनकी मौत की खबर आई। इस असमय मौत पर सभी दुखी हैं, आज के.के. का पार्थिव शव उनके परिवार को सौंपा जाएगा।
के.के. जिन्हें कभी भी मीडिया का अटेन्सन नहीं चाहिए था, हमेशा चकाचौंध से दूर रहने वाले के.के. आज चुपचाप आज हम सभी के बीच नहीं रहे उनके जाने की खबर (Kk Singer Death) आने के बाद हर छोटी बड़ी हस्ती ने उनके जाने पर शोक व्यक्त किया। प्रधानमंत्री से लेकर बॉलीवुड के हर दिग्गज उन्हे अपनी तरफ से श्रद्धांजलि दे रहे हैं ।
वो के.के. जिनके कोई हेटर नही –
के.के. के जाने पर चारों ओर से श्रद्धांजलि आने का कारण न केवल उनके गाने बल्कि उनका व्यक्तित्व भी था, के.के खुद हमेशा लो प्रोफाइल में रहना पसंद करते थे। उन्हे मीडिया की अटेंशन पसंद नही थी, जिस जमाने में लोग अटेंशन पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार होते है वही एक तरफ के.के. आज के दौर में रहते हुए इन सभी चीजों से दूरी बना कर रखते थें। इसलिए आज उनके यू चले जाने पर सभी शोक में हैं।
सिंगर के.के. के निधन पर प्रधानमंत्री ने शोक व्यक्त करते हुए कहां –
“प्रसिद्ध गायक कृष्णकुमार कुन्नाथ के असामयिक निधन से दुखी हूं। उनके गीतों ने भावनाओं की एक विस्तृत श्रृंखला को दर्शाया, जो सभी आयु वर्ग के लोगों के साथ जुड़ा हुआ था। हम उन्हें उनके गानों के जरिए हमेशा याद रखेंगे। उनके परिवार और प्रशंसकों के प्रति संवेदना। शांति।”
इसके अलावा देश के गृह मंत्री अमित शाह, कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, केन्द्रीय मंत्री पीयूष गोयल सभी ने उन्हें याद किया।
सिंगर इमरान हाशमी के कई गानों में के.के. ने आवाज दी थी ये आवाज इतनी सटीक बैठती थी कि लोगों को कन्फ्यूजन हो जाता थी कि ये इमरान की ही असली आवाज हैं। लेकिन के.के. ने न केवल इमरान हाशमी बल्कि सलमान खान के गाने तड़प- तड़प और बजरंगी भाईजान के गाने, शाहरुख के गाने आंखों में तेरी, आर माधवन को सच कह रहा है दीवाना के लिए आवाज दे कर हमेशा के लिए यादगार बना दिया।
अपनी जिंदगी पूरी जिंदगी गाने को समर्पित कर देने वाले के.के. आखिरी वक्त भी कोलकाता ( Kk Kolkata Concert) के एक कंसर्ट में गाना गा रहे थे। उनकी मौत के बाद बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी ने भी उन्हे श्रद्धांजलि दी।
इनरान हासमी ने उन्हे कुछ इस प्रकार याद किया – “एक आवाज और प्रतिभा जैसी कोई और नहीं.. वे उन्हें अब उसके जैसा नहीं बनाते हैं। उनके द्वारा गाए गए गानों पर काम करना हमेशा से कहीं ज्यादा खास था। आप हमेशा हमारे दिलों में रहेंगे केके और अपने गीतों के माध्यम से हमेशा जीवित रहेंगे। आरआईपी लीजेंड केके”
के.के. ने अपने कैरियर की शुरुआत के समय ज्यादा पहचना न मिलने पर वो कहते हैं कि ये अच्छी बात है कि आपको नाम कमाने में समय लग रहा हैं, ताकि आप ज्यादा से ज्यादा चींजे सीख सकें। और आपकों इतना धैर्य रखना भी चाहिए भले ही आप कितना हुनरमंद हो। के.के की मौत का कारण हार्ट अटैक (Kk Singer Death Reason) बताया जा रहा हैं।
के. के. ने बिना किसी भी सपोर्ट के इंडस्ट्री में अपनी जगह बनाई, जब के.के. आए थे तब सोनू निगम और कुमार सानू जैसे दिग्गजों के गाने लोग सुनना पसंग करते थें। वहीं जब लोग कैसेट का उपयोग कर बड़ी मुश्किल से गाने सुनते थे ऐसे समय में के.के. ने अपने गानों के दम पर लोगो को अपना दीवाना बनाया। पिछले कुछ समय से के.के. कम ही गाने गा रहे थे ऐसे उनकी मौत की खबर (Kk Singer Death) आने पर अब हम कभी वो प्यारी आवाजों में नयें गाने नही सुन पाएंगे।