Category: श्रद्धांजलि

  • Jayaprakash Narayan’s Death Anniversary : व्यवस्था जब-जब अराजकता बढ़ेगी, जयप्रकाश नारायण आएंगे याद 

    Jayaprakash Narayan’s Death Anniversary : व्यवस्था जब-जब अराजकता बढ़ेगी, जयप्रकाश नारायण आएंगे याद 

    Jayaprakash Narayan’s Death Anniversary : लोकनायक जयप्रकाश नारायण के बताए सूत्र आज भी व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए प्रासंगिक और हैं प्रभावी 

    प्रो. रमाकांत पांडेय   
    राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्थाएं जब-जब अराजक होंगी तब तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) याद आएंगे। वह किसी व्यक्ति, दल या सत्ता के विरोधी नहीं थे। उनका मानना था कि कभी-कभी व्यवस्था देश व राज्य के अनुकूल व्यवहार नहीं करती। ऐसे में समाज को जीवंत और विकास को गति देने के लिए उसमें परिवर्तन जरूरी होता है। इसके लिए संघर्ष पूरी तरह से लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित होना चाहिए। जेपी के जीवन को तीन हिस्सों में देखा जा सकता है। पहला, जेपी की क्रांतिकारी छवि, दूसरा, सर्वोदयी और तीसरा, लोकनायक का है। तीनों को समग्रता में देखने पर विरोध की अनुभूति हो सकती है, यही जेपी की महानता थी।

    1973 के नवंबर-दिसंबर की बात है। पटना विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षक और छात्र नेता जेपी से विमर्श के लिए कदमकुआं स्थित उनके निवास स्थान पहुंचे थे। इंदिरा गांधी को लेकर उन्होंने कहा था कि वह बेटी के समान हैं। उनका विरोध इंदिरा या कांग्रेस से नहीं, बल्कि व्यवस्था से है। व्यवस्था आमजन की हितैषी हो और उसमें अहंकार, भ्रष्टाचार की गंदगी न हो। इसे साफ करने की जिम्मेवारी बुद्धिजीवियों व युवाओं के कंधे पर होती है।

    कोई दांव-पेच नहीं

    वे लोकतंत्र को मजबूत बनाना चाहते थे। इसके लिए उनका सुझाव था कि लोकशक्ति राज्यशक्ति पर अंकुश रखे। वर्तमान में राजनीतिक दल एक-दूसरे को मात देने के लिए कल, बल व छल (तकनीक, शक्ति व दांव-पेच) का बड़े स्तर पर इस्तेमाल करते हैं। जेपी इसके सख्त विरोधी थे। उनका मानना था कि व्यवस्था व्यक्ति आधारित न हो। अगर जेपी को सरकार का कोई फैसला अच्छा नहीं लगता था तो वह तत्काल संबंधित को पत्र लिखते और सुझाव देते थे। इंदिरा गांधी को उन्होंने व्यवस्था में सुधार के लिए दर्जनों पत्र भेजे। इनमें से कई को बाद में सार्वजनिक भी किया गया।

    पेश किया लोकतंत्र का एजेंडा

     

    1977 में तानाशाही खत्म करने वाले जेपी ने लोकतंत्र के लिए अपना एजेंडा भी कई अवसरों पर प्रस्तुत किया था। 1959 में ‘ए प्ली फार रिकंस्ट्रक्शन आफ इंडियन पालिटी’ में विस्तार से इस पर प्रकाश डाला है। उनके शब्दों में, ‘मैं चाहता हूं कि हमारी वर्तमान राजनीतिक संस्थाएं उन सिद्धांतों पर आधारित हों, जो प्राचीन भारतीय राज्य व्यवस्था में प्रचलित थीं, क्योंकि मेरे हिसाब से वह सामाजिक विकास की दिशा में सबसे ज्यादा स्वाभाविक होगा और वे सिद्धांत समाज विज्ञान के नजरिए से कहीं ज्यादा सार्थक हैं। आज का राजतंत्र पूरी तरह से विदेशी है। जिसकी भारत की मिट्टी में कोई जड़ नहीं है। भारतीय जीवन जब तक फिर से आत्मनिर्भर और आपसी सहयोग पर आधारित नहीं होगा, तब तक स्वस्थ और आत्मनियंत्रित समाज संभव नहीं। हमें धर्म की पुरातन अवधारणा को फिर से स्थापित करना होगा और लोकतंत्र के लिए समुचित धर्म का स्वरूप तैयार करना होगा।’

    जिनके स्वागत में बैठी रही सत्ता

    जेपी स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी की अगली पंक्ति के पैदल सिपाही थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद वह प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार थे। पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी उन्हें कैबिनेट में शामिल होने के लिए कई बार अनुरोध किए, मगर इमरजेंसी के बाद जेपी ने कोई सरकारी पद ग्रहण नहीं किया। बिहार और उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित सिताब दियारा में 11 अक्टूबर, 1902 को जन्मे जेपी 1929 में अमेरिका से पढ़ाई पूरी कर स्वाधीनता समर में कूद पड़े थे। 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया। जिसमें नरेंद्र देव, यूसुफ मेहरैली, अच्युत पटवर्धन और राम मनोहर लोहिया का खूब साथ मिला। जेपी ने नेपाल में आजाद दस्ता नाम से एक गुरिल्ला फौज बनाई थी। खान अब्दुल गफ्फार से रावलपिंडी मिलने जाने के दौरान वह 18 सितंबर, 1943 को गिरफ्तार कर लिए गए।

    यातना चैंबर के नाम से कुख्यात लाहौर किले में उन्हें 16 माह तक यातना देकर 12 अप्रैल, 1946 को रिहा किया गया। 19 अप्रैल, 1954 को विनोबा भावे के सर्वोदय आंदोलन में उन्होंने खुद को समर्पित कर दिया। इन्हीं दिनों जेपी ने नवादा जिले के कौआकोल प्रखंड अंतर्गत सोखोदेवरा गांव में आश्रम की स्थापना की। उनकी शोधपरक पुस्तक ‘ए प्ली फार रिकंस्ट्रक्शन आफ इंडियन पालिटी’ के लिए उन्हें रैमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया। चंबल घाटी में डाकुओं से आत्मसमर्पण कराने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। आठ अक्टूबर, 1979 को जेपी के जीवन का अंत हो गया।

  • JP’s Death Anniversary : इस अराजकता के दौर में याद आ रहे हैं लोक नारायण जयप्रकाश : देवेंद्र अवाना 

    JP’s Death Anniversary : इस अराजकता के दौर में याद आ रहे हैं लोक नारायण जयप्रकाश : देवेंद्र अवाना 

    JP’s Death Anniversary : राजनीति को भ्रष्ट होने से बचाने की जिम्मेदारी बुद्धिजीवियों पर होना मानते थे जयप्रकाश नारायण : देवेंद्र गुर्जर, भारतीय सोशलिस्ट मंच ने मनाई समाजवादी विचारक और चिंतक की पुण्यतिथि

     

    नोएडा । सेक्टर 11 स्थित कार्यालय पर भारतीय सोशलिस्ट मंच ने प्रख्यात समाजवादी जयप्रकाश नारायण की पुण्यतिथि मनाई। इस अवसर उनके चित्र पर पुष्पांजलि अर्पित कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
    इस अवसर पर प्रदेश प्रभारी देवेंद्र अवाना ने कहा कि राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था जब-जब अराजक होंगी तब तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण याद आएंगे। उन्होंने कहा कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण किसी व्यक्ति, दल या सत्ता के विरोधी नहीं थे। उनका मानना था कि कभी-कभी व्यवस्था देश व राज्य के अनुकूल व्यवहार नहीं करती। ऐसे में समाज को जीवंत और विकास को गति देने के लिए उसमें परिवर्तन जरूरी होता है। इसके लिए संघर्ष पूरी तरह से लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित होना चाहिए। देवेंद्र अवाना ने कहा कि जेपी के जीवन को तीन हिस्सों में देखा जा सकता है। पहला, जेपी की क्रांतिकारी छवि, दूसरा, सर्वोदयी और तीसरा लोकनायक का है। तीनों को समग्रता में देखने पर विरोध की अनुभूति हो सकती है, यही जेपी की महानता थी।
    जिला अध्यक्ष देवेंद्र गुर्जर ने कहा कि 1973 के नवंबर-दिसंबर की बात है कि पटना विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षक और छात्र नेता जेपी से विमर्श के लिए कदमकुआं स्थित उनके निवास स्थान पहुंचे थे। इंदिरा गांधी को लेकर उन्होंने कहा था कि वह बेटी के समान हैं। उनका विरोध इंदिरा या कांग्रेस से नहीं, बल्कि व्यवस्था से है। व्यवस्था आमजन की हितैषी हो और उसमें अहंकार, भ्रष्टाचार की गंदगी न हो। इसे साफ करने की जिम्मेवारी बुद्धिजीवियों व युवाओं के कंधे पर होती है।
    इस अवसर पर राष्ट्रीय प्रवक्ता चरण सिंह राजपूत,राष्ट्रीय, देवेन्द्र गुर्जर जिलाध्यक्ष गौतमबुद्धनगर, सचिव नरेंद्र शर्मा, जिला उपाध्यक्ष मौ यामीन, जिला उपाध्यक्ष विक्की तंवर ने भी अपने विचार व्यक्त किये।
    इस मौके पर गौरव,पप्पू,गुलशन चावला, रमेश,आदि मौजूद रहे

  • Mahendra Singh Tikait Jayanti : जमीनी संघर्ष ने महेंद्र टिकैत को बना दिया था ‘महात्मा’

    Mahendra Singh Tikait Jayanti : जमीनी संघर्ष ने महेंद्र टिकैत को बना दिया था ‘महात्मा’

    चौधरी अशोक बालियान

    उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले का एक गांव है सिसौली। इसी गांव में बालियाना खाप के मुखिया चौधरी चौहल सिंह के घर आज ही के दिन 6 अक्टूबर 1935 को जन्मे थे चौधरी महेन्द्र सिंह। जब महेन्द्र सिंह बहुत छोटे थे, तभी असमय उनके पिता का साया उनके सिर से उठ गया। सर्व खाप पंचायत ने महेन्द्र सिंह को तिलक (टीका लगाना) करके बालियान खाप का चौधरी बना दिया। इस प्रकार वह बालक महेन्द्र सिंह टिकैत से चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत बन गए। आज उनकी जयंती पर पूरे देश में जगह-जगह आयोजन हो रहे हैं। सबसे बड़ा आयोजन तो उनके गांव सिसौली में ही हो रहा है। यहां उनकी याद में ‘किसान मजदूर अधिकार दिवस’ मनाया जा रहा है।

    आप जानते ही हैं कि चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के किसान आन्दोलन से पहले भी अनेक किसान आन्दोलन हुए थे। 17वीं सदी में भी किसानों ने मुगल राज्य के विरुद्ध बगावत कर दी थी। इसके बाद किसान आन्दोलन अंग्रेजों के विरूद्ध किये गए थे। लेकिन, भारत में किसान आन्दोलन को चौधरी टिकैत ने एक नई दिशा दी और सरकार को किसान की चौखट पर आने को अनेक बार मजबूर किया। मुझे चौधरी टिकैत के जीवन पर आधारित अपनी पुस्तक ‘किसान आन्दोलन में चौधरी टिकैत की भूमिका’ लिखने के समय उनके साथा काम करने का अवसर मिला। वह बेहद सरल और ईमानदार किसान नेता थे, परन्तु अपने अक्खड़पन के लिए भी जाने जाते थे। तब भारत के अनेक प्रधानमंत्रियों को भी किसानों की बात सुनने के लिए किसान राजधानी सिसोली आना पड़ा था।


    चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में 80 के दशक में सरकारी विभागों के भ्रष्टाचार, बिजली के दाम में बढ़ोतरी और किसानों को उनकी फसलों का मूल्य न मिलने के खिलाफ एक गैर-राजनैतिक किसान आंदोलन खड़ा हुआ था। अगर चौधरी टिकैत के संघर्ष को गौर से देखें तो पाएंगे कि उनके आंदोलन का मुख्य मुद्दा फसलों के वाजिब दाम था। विभिन्न मंचों एवं आन्दोलनों के माध्यम से चौधरी टिकैत जीवनपर्यन्त किसानों के इस महत्वपूर्ण मुद्दे को उठाते रहे। क्योंकि देश में गन्ना, गेहूं, धान, रबड, कपास, जूट, आलू, टमाटर और नारियल समेत कई कृषि उत्पाद को किसान लागत मूल्य से कम कीमत पर बेचने को मजबूर रहते है। चौधरी टिकैत के समय में दुनियाभर के समाचार पत्रों ने किसानों के शोषण, उनके साथ होने वाले सरकारी अधिकारियों के पक्षपातपूर्ण व्यवहार और किसानों के संघर्ष को अपने पत्रों में प्रमुखता से प्रकाशित किया था।

    चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का जीवन किसान आंदोलन के गौरवमयी इतिहास और विखंडित वर्तमान को समझने में मदद देता है। भारतीय राजनीति के शिखर पर चौधरी टिकैत का उदय अस्सी के दशक में हुआ। बिजली की दरों के मुद्दे पर वीर बहादुर सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार को झुकाकर टिकैत ने अपना सिक्का जमाया था। चौधरी टिकैत का ठेठ गंवई व्यक्तित्व और किसी भी दबाव या लालच से ऊपर रहने की उनकी क्षमता से बने व्यक्तित्व ने 1988 में बोट क्लब पर हुए ऐतिहासिक धरने को संभव बनाया था। उससे बड़ा धरना दुनिया के इतिहास में कभी नहीं दिया गया था। कुछ दिन के लिए ही सही, ऐसा लगा जैसे ‘भारत’ ने ‘इंडिया’ को उसकी औकात बता दी हो। अस्सी के दशक के तमाम किसान आंदोलनों के चरमोत्कर्ष का प्रतीक बना यह धरना भारतीय राजनीति में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ था।

    आज किसान और किसानी के सामने एक अभूतपूर्व संकट मुंह बाये खड़ा है, लेकिन देश की राजनीति में इसकी गूंज कहीं सुनायी नहीं पड़ती। चौधरी टिकैत और श्री नंजुंदास्वामी के वारिस किसान राजनीति में किस सफलता तक जायेंगे, यह अभी भविष्य के गर्त में है। अस्सी के दशक में ट्रैक्टरों से दिल्ली को घेरने का दुस्साहस रखने वाला किसान आज खुद घिरा बैठा उसी दिल्ली को फिर से चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की तरह घेरने कि उम्मीद लगाये हुए है।

    किसान आंदोलन की इस दशा की पड़ताल करने पर हम चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के किसान आंदोलन से सीखते हैं कि वह आन्दोलन मुख्य रूप से खेती की लागत और उपज के मूल्य के सवालों पर केंद्रित था। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल यह था कि चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के जाने के बाद विकास के वर्तमान ढांचे में क्या किसान को कभी न्याय मिल पायेगा। किसानी को बचाने की मुहिम को गांव के पुनरोद्धार से कैसे जोड़ा जाये? किसान को बेहतर दाम की मांग के सस्ते खाद्यान्न और भोजन की जरूरत से सामंजस्य कैसे बैठाया जाये? चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने इन सवालों का सामना बड़ी ही शिद्दत के साथ किया था। चौधरी टिकैत और भारतीय किसान यूनियन के नेताओं ने दलगत राजनीति से दूरी बनाये रखी थी। चौधरी टिकैत के आन्दोलन में न तो नेताओं की भरमार थी और न पदाधिकारियों की कतार। इस आन्दोलन में शामिल हर व्यक्ति सिर्फ किसान था। चौधरी टिकैत जनता के बीच से आए थे और अंतिम समय (15 मई 2011) तक जनता के बीच रहे। चौधरी टिकैत अंतिम समय तक स्वयं खेती से भी जुड़े रहे। वे लाखों की पंचायत, धरने व आंदोलन की अगुवाई करने के बावजूद एक साधारण किसान की तरह अपने गांव में रहते थे तथा खुद खेती करते थे।

    हम उनके जन्म दिवस पर उम्मीद करते हैं कि भारतीय किसान यूनियन राजनीति से अलग रहकर किसानों के लिए लड़ाई लड़ती रहेगी। भारतीय किसान यूनियन की जिम्मेदारी आज पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। किसान नेताओं को भी यह समझना होगा कि टिकैत एक आन्दोलन से बढ़कर किसानों के लिए एक विचार हैं। चौधरी टिकैत की तरह जमीन से जुड़कर ही उसकी मुसीबतों को समझा जा सकता है। चौधरी टिकैत के जीवन का उद्देश्य किसानों को इतना जागरूक करना था कि किसान की आवाज हुक्मरानों तक पहुंच सके। उनका यह सपना बखूबी पूरा भी हुआ। किन्तु, खेती व किसानी के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन के कारण भारत में चौधरी टिकैत को महात्मा टिकैत की उपाधि दी थी। वे एक साधारण किसान से महात्मा टिकैत बने थे।

  • Death Anniversary : शराब की दुकान जलाने से बात बनती है तो जला दो जनता का यह अधिकार है : गोकुलभाई भट्ट

    Death Anniversary : शराब की दुकान जलाने से बात बनती है तो जला दो जनता का यह अधिकार है : गोकुलभाई भट्ट

     -सुधेन्दु पटेल

    राजस्थान के पांच बडे़ नेताओं में से एक गोकुलभाई भट्ट प्रदेश के गांधी माने जाने हैं। गांधी दर्षन को आचरण में समेटे हुए 86 वर्षीय गोकुल भाई आज भी जनता की सेवा में सक्रिय रूप से समर्पित हैं। सादगी और सहजता में वे बालक की तरह हैं। निष्चलता, निर्भीकता सिंद्वात के प्रति दृढ़ता एवं स्पष्टवादिता उनके व्यवहार का स्वाभाविक हिस्सा है। पद पर रहते हुए भी वे हमेशा ’जनक’ की तरह ’विदेह’ रहे हैं। पुस्तको के बेहद शौकीन हैं। शराब मिटाने के लिए सतत सक्रिय है।

    शराबबन्दी की लड़ाई में उम्र उनके लिए बाधा नहीं बनती। शराब के खिलाफ आज भी वे एक युवा आंदोलनकारी का मन लिए हैं। उनसे मिलना एक सच्चे संत से मिलना है। मिलते ही बोले  भाई क्या परीक्षा लेने आये हो ?फिर उघाडे़ बदन कान में यंत्र लगा कर बोले, हाँ  तो सवाल पूछ रहे हो पूछो भई, कुछ निकले तो।
    अभी-अभी राष्ट्रपति से आप मिल आये, क्या चर्चा हुई ?
    उनको स्थिति और विधेयक का विवरण बताया। यह भी कहा कि इसमें बताये गये कारण बेबुनियाद है। आप जांच करके राज्य सरकार को सलाह दें। उन्होने कहा कि विधानसभा ने पारित कर दिया है। मेरे पास औपचारिक रूप से ही अब आयेगा। फिर भी जो संभव होगा वह करूंगा। लेकिन आप जो चाहो कि मैं रोक दूँ, यह तो अब नहीं हो सकेगा।
    आपने 1973 में शराबबन्दी से होने वाले राजस्व की पूर्ति के लिए एक ’सरल, कारगर योजना दी थी, उसे दुहरायेंगे?
    यह योजना अजमेर सत्याग्रह के वक्त मैंने प्रधानमंत्री को दी थी। शराब परमिट से देने की बात कही थी ताकि आदतन शराबियों की स्वतंत्रता पर कोई हल्ला न हो और उससे आमदनी भी होगी जो कम नहीं होगी। मुझे जवाब दिया गया था कि इतनी परमिटें लोग नहीं लेंगे जितनी आप बताते हो।
    लेकिन अपनी योजना में तो आपने गांजा, भांग, अफीम और लाटरी तक की आय को जोड़ लिया था।
    उस योजना में व्यावसयिक स्प्रिट, अफीम, भांग आदि की आय तथा प्रशासनिक कड़ाई से प्राप्त जुर्माने की आय की बात भी थी। यह सारी आय मिलाकर सरकार को अफसोस करने लायक घाटा नहीं होगा। प्रषासनिक खर्चे भी कम होंगे।
    आपको संपूर्ण व्यसन मुक्ति जरूरी नही लगती। एक बुराई की समाप्ति के लिए दूसरी अन्य बुराईयों की आय से क्षतिपूर्ति नैतिक कैसे हो सकती है ?
    यह आप किस आधार पर कहते हैं। मै तो पष्चिमी राजस्थान का ही हूँ । मेरे इलाके में अफीम ज्यादा नहीं चलती। यह मानता हँू कि कुछ इलाको में अफीम खूब चलती है। जोधपुर में है। लेकिन अफीम बन्दी है। परमिट से प्राप्त होती है।
    लेकिन सवाल है कि शराब के अलावा भी नशे  हैं जो खतरनाक है। जैसे सस्ती नशीली दवाएं। हां यह सब भी होनी चाहिए बन्द। आपकी मांगों में तो यह जिक्र नहीं है।
    नहीं…. नहीं…. मांग हमारी …….. ऐसा है कि हम एक-एक सीढ़ी चढ़ रहे हैं। पहले शराब को ले रहे है फिर दूसरी चीजों को लेंगे। हमारी आखिरी मंजिल तो पूर्ण नशाबंदी ही है।
    नशीली दवाएं सस्ती और सुलभ भी है जिससे बड़ी संख्या में युवाजन इसकी चेपट में आ रहे हैं।
    हमने सरकार का ध्यान दिलाया है कि ये दवाइयां भी बन्द होनी चाहिए। कुछेक दवाइयां बन्द भी की है, कर रहे हैं। यह जवाब आबकारी विभाग ने दिया हैं।
    आज भी समाज व्यवस्था में  शराब बहुत छोटा-सा केन्द्र बिंदु हैं।  जो लालच का जाल फैलाया जा रहा है जैसे प्रधानमंत्री ने हाल ही में कहा कि भ्रष्टाचार तो पूरी दुनिया में है, ऐसी स्थिति में केवल शराब .?
    प्रधानमंत्री का यह कोई तर्क नहीं हैं।इस परिप्रेक्ष्य में यह आंदोलन एकांगी नही लगता ?
    हमारी शक्ति जितनी है उतना ही हम काम करेंगे। हम सर्वव्यापी हो जाएं यह अपेक्षा हो सकती है लेकिन हम शक्ति भर ही काम करेंगे। हम यह जरूर मानते हैं कि सब चीजों को साथ में लिया जाना चाहिए लेकिन हमारे हाथ तो छोटे हैं। शायद हम सबको नहीं पकड़ सकंे।
    आप क्या पकड़ पाते हैं, इसका क्या मानदण्ड है ?
    हम एक-एक चीज को पकड़ने जा रहे हैं। मकान के उस हिस्से की मरम्मत पहले करेंगे जो गिरने जा रहा है या कमजोर है। खंभा पहले उधर ही लगाऊंगा।

    क्या एक एक के क्रम की प्रक्रिया पूर्णतः गांधीवादी है ? इससे क्या आप समग्र विकास की कल्पना कर लेते हैं ?
    गांधीवादी का मतलब इतना ही है कि ’एक साधे सब सधै …। एक को साधने से शक्ति बढ़ेगी। अगर जनता तय कर ले कि हमें शराब, भ्रष्टाचार या गोहत्या बन्द करनी है। ऐसी स्थिति में एक-एक चीज हाथ में लेने से जनता सक्षम हो जाएगी। उसमें हौसला आएगा कि हम कामयाब हो सकते है।
    आपके आंदोलन का एक नारा हैं ’शराब हटी गरीबी मिटी’-यह सटीक है क्या ?
    जो गरीब में भी गरीब है उनकी पूरी कमाई शराब में जाती है। यह लत बुरी है शराब से मुक्त होने पर उसकी आय बचती है। मजदूर और हरिजन वर्ग सुखी हुआ है जहां ऐसा उपक्रम किया गया हैं। यह बात सर्वेक्षणों से प्रमाणित हो चुकी हैं।
    आपको नहीं लगे हैं कि हमारा रूख नकारात्मक है दरअसल हम साफ बात करना चाहते हैं कि गांधीजी  ने खादी वृद्धि  ही बात कही थी। आपको नहीं लगता कि आज खादी एक धंधा बन गया है?
    खादी आज एक राहत का कार्य बन गया है। धंधा यानी संस्था और दूकानें तो बेचने के लिए रखनी ही पड़ती है। आखिर कहीं न कहीं तो धंधा है। यह व्यापार की चीज बन गयी है।
    नहीं, हमारा सवाल है कि जो कार्यकर्ता लगे हैं उनमें एक संकल्प, एक मिषन की बजाय रूढ़ता आ गयी है। संकल्प, लगाव और चेतना की बात जाती रही है। आप नहीं स्वीकारते ?
    आपका आषय संभवतः कार्यकर्ताओं के धंधार्थी बनने से ही होगा। देखिए ऐसा है कि इसमे नये-नये लोग हैं। गांधीजी के जमाने में भी सब लोग कोई मिषन वाले नहीं थे ? उस समय भी कुछ आदमी नौकरी पेशा ही थे। कहीं नौकरी नहीं मिली तो यहीं कर लो। आज ऐसे लोगों का प्रतिशत ज्यादा जरूर है।
    आप नहीं मानते कि प्रषासनिक खर्च और चकाचौंध के बाजार से होड़ लेने की प्रकृति खादी के महंगेपन का कारण है ? खादी देशवासियों को नसीब नहीं लेकिन खादी विदेश भेजी जाती है। खादी फैशन बन गया है आपको इस पर आपति नहीं होती ?
    खादी का अभी तक अंग है। वह पूरा अंग नहीं है कि खादी के द्वारा स्वराज्य या स्वावलम्बन हम प्राप्त करें। हम प्रयत्नशील हैं। मैं मानता हँू कि खादी को ग्राम स्वराज्य का प्रतीक होना चाहिए। चरखा सारे गांव के उद्योगों का सूर्य बने। गांव शहर आश्रित न हो। तब तो हम समझंेगे की खादी की भावना उपजी है।
    खादी के पीछे स्वदेशी वस्तुओं से लगाव का दर्षन रहा है लेकिन आज खादी आंदोलन के नेता खादी पहनते तो हैं किंतु शेष जीवनपयोगी वस्तुओं के लिए स्वदेषी का आग्रह नहीं दिखता है, यह विडम्बना नहीं है क्या ?
    वे खादी पहनते तो हैं इतना तो काम करते हैं। उनका पहनना रूढ़ अर्थो में हैं। आपको मात्र इतने से ही संतोष हैं।
    कोई आदमी थोड़ा सा भी अच्छा काम करता है तो उसको अभिनंदन देना चाहिए ही।
    अवष्य अभिनंदनीय है। लेकिन वर्षो से जुड़े आदमी का मानस न बने। यह बड़ी विचित्र स्थिति है। इससे कई चीजें जुडी हुई हैं।
    यह मानस नहीं बना है उसमें कमी हम लोगों की ही है। लेकिन कमी से हम निराश नहीं हैं। कमी को दूर करने के प्रयत्न में लगे है, जो गांधी के विचार को थोड़ा भी समझते हैं, उन्हे उसी प्रयत्न में लगना चाहिए।
    आप जयप्रकाश जी के विचारों से कहां तक सहमत हैं? यह सवाल इसलिए भी पूछना पड़ रहा है कि जयप्रकाशजी जनेऊ तोड़ने की बात कहते थे जबकि आप जनेऊ पहने हुए हैं।
    मैं पुराने जमाने का आदमी हँू मैंने जनेऊ के बारे में अभी पूरा चिंतन किया नहीं है कि मुझे छोड़ देना चाहिए या रखना चाहिए। जब तक मुझे यह विष्वास नहीं हो जाये की इसे छोड़ देना चाहिए तब तक मेरे जो पारम्परिक संस्कार है उन पर मैं चल रहा हँू। आप मान के चलो कि इतना मैं बुढा बैल हूँ  ।
    आप नवजवानों के आस्था बिन्दु है फिर उनकी दुविधा कैसे खत्म होगी?
    उनकी दुविधा को तो ज्ञान से निकालना होगा, यह यज्ञोपवीत है। मैं जब गायत्री जप या यज्ञ करता हंू तब शव्य या अपषव्य करना पड़ता है व्यावहारिक तौर पर इसका उपयोग एक डोरी की तरह ही होता है। जनेऊ पहले सघन हुआ करते थे। लम्बे यज्ञ में हाथ को सहारा मिलता था। इसका आध्यात्मिक अर्थ भी है। अभी तो आप मुझे पुराना बुद्धू मान लीजियें।
    आपको सरकार के वर्तमान चरित्र से नहीं लगता कि वापस असहयोग आंदोलन की शुरूआत करनी होगी ?
    ऐसी स्थिति भी आयेगी कि जब हमको ऐसा लगे कि यह सरकार तो गलत रास्ते ही जा रही है तो हमको असहयोग करना पडे़गा।
    अभी नहीं लगता आपको सरकार गलत रास्ते पर जा रही हैं ?
    अभी तो ….. अभी …. थोड़े …..अभी ….. हम असहयोग कर ही रहे हैं। नशाबंदी मण्डल की बातें जब मान्य नहीं हुई तो मैंने उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। खादी के काम में अगर ये नीति बदलेंगे तो मैं खादी बोर्ड में नहीं रहूंगा। मैं खादी को ग्राम स्वराज्य की पहली सीढ़ी मानता हूं। वे रोकेंगे तो हट जाऊंगा।
    राज्यपालों से जो बर्ताव किया गया उसके बाद आप किस आशा से सत्ता का सहयोग कर रहे हैं। क्या औचित्य हैं ?
    मुझे यह स्थिति नहीं लगती। मैं टीका टिप्पणी कर सकता हूं। रोका गया तो विरोध करूंगा। मैं सहयोग क्या करता हूं बताइये न ?
    आपका नाम खादी बोर्ड के माध्यम से उनके साथ होना ही सबसे बडा सहयोग हैं, आपको नहीं लगता ?
    समझो मैं अनशन पर बैठता हँू। वह कहेंगे कि आप अनषन पर बैठते हैं तो फिर खादी बोर्ड से हटना पडे़गा। मैं कहूंगा इसी निमित्त से छोड़ देता हूं।
    तो आप एक राजनैतिक कौशल के रूप में खादी बोर्ड के अध्यक्ष पद पर अभी तक हैं ?
    नहीं… नहीं…. राजकारण अलग है और राजनीति अलग है। सत्ता की राजनीति में नहीं हूं। राजकारण तो मेरी है ही। उसे मै जीवन के साथ संबंधित समझता हूं। राजकारण किसी के भी जीवन में छूटता नहीं हैं।
    लेकिन राजनीति को मैं लोकनीति में बदलना चाहता हूं, जो नहीं हैं।
    एक सवाल है कि कल को अगर इंदिरा गांधी या विनोबा भावे नम्रता से निवेदन करें कि आप शराबबंदी का विरोध कुछ समय के लिए स्थगित करके सहयोग करो क्या आप मान लेगें?
    सहयोग की बात कहाँ  आयी। मैं क्या विरोध करता हँू, मैं तो कहता हँू कि मैं शराबबंदी का प्रयत्न करता हूँ। आंदोलन करता हँू। हां शराब जारी रखने में मैं एक क्षण भी सहयोग नही करूंगा।
    सेवा के काम  में लगी संस्थाएं आज सरकार मुखापेशी हो गयी है। यह सहयोग की स्थिति नहीं हैं ?
    हमारी संस्थाएं दबी हुई नहीं हैं।वे संस्थाएं स्वायत्त  संस्थाए हैं।
    तो किसी सत्ता या सम्पति में हिस्सेदारी करके अपना काम चलाना कितना स्वयत्त होगा।
    जो पैसा जिस काम के लिए मिला है उसी में खर्च करते हैं उससे जो मुनाफा होता है। उससे फिर सर्वोदय की गतिविधियांे को मदद करते हैं। सेवा का काम करते हैं।
    आप यह मानते है कि सत्ता का भ्रष्ट पैसा उपयोग करना नैतिक होता हैं ?
    उनका उपयोग जिस काम के लिए है। उसमें से जो मुनाफा होता है। उस मुनाफे का उपयोग जिन कार्यो के लिए संस्था बनायी है उसमें कर सकते है।
    इंदिरा सरकार के धारक बांड के माध्यम से जो काला धन इकट्ठा किया हैं उसे ठीक मानते हैं ?
    हमारी संस्थाओं में काले धन की बात नहीं हैं।हम शासन प्रणाली की बात कर रहे हैं।
    काले धन को सफेद करने की क्रिया को आप नैतिक मानते हैं ?
    नहीं, मैं नैतिक नहीं मानता हँू।लेकिन वह पैसा जब आपको मिल जाएगा तो वह नैतिक हो जायेगा ?
    आपका कहना सही है। जो अनैतिक पैसा हमारे काम चलाने के लिए आता हैं उसमें अनैतिकता उपजेगी ही। शराब की आय के पैसे अनैतिकता बढे़गी।
    (और फिर धर्मपरिवर्तन, विनोबा, नयी तालीम, ग्रामदान, राजनीति, लोक उम्मीदवार, गांधी शांति प्रतिष्ठान और एवार्ड के खिलाफ जांच तथा सर्वोदय के अन्य कार्यक्रमों की चर्चा से गुजरते हुए बात सघन ग्राम स्वावलम्बन के क्षेत्रों तक जा ठहरीं। उन्होंने बस्सी तहसील के एक जाग्रत गांव जैतपुरा की चर्चा प्रारम्भ की )
    जैतपुरा में जब शराब का ठेकेदार दुकान खोलने पहुंचा तो उसे गांव वालों ने जगह नहीं दी। ठेकेदार ने कहा कि मेरे पन्द्रह हजार रूपये डूब जायेंगे। उस पर गांव के लोगों ने कहा कि तैने पूछ कर ठेका लिया था क्या ? उस पर ठेकेदार ने अपनी झोपड़ी स्वयं बनाने की बात कही। जनता ने विरोध किया कि इस गांव में शराब की दूकान नहीं खुलेगी। यदि तूने झोपड़ी डालकर ठेका चलाया तो हम झोपड़ी जला देंगे। वहां खादी का काम चलता हैं। उसी से जागृति आयी है।
    क्या आप अपने आंदोलन को उस उग्रता तक ले जायेगें जब शराब की दूकानों को जलाया जायेगा ?
    मैं पहले नहीं कहता। शराब की बोतलें फोड़ने तथा ताला लगाने की बात कहता हँू।
    मान लीजिये ऐसी स्थिति में आंदोलन उग्र होता हैं तो होना चाहिये या नहीं ?
    लगभग सौ साल पहले मेरे गांव हाथल (जिला सिरोही ) में पुलिस थाना आने की बात हुई, गांव वालों ने विरोध किया। लेकिन जबरदस्ती थाना बनाया गया तो लोगों ने राय करके थाने में आग लगा दी। थाना जल गया। लोग गिरफ्तार हुए। लेकिन प्रतिकार का असर हुआ  ……
    यदि शराब की दूकानों के खिलाफ जनता ऐसा करती है तो ?
    यदि जनता ऐसा करती है तो मैं उसे गलत नहीं मानूंगा। जो एक गन्दी खराब चीज है अगर उस चीज को जलाने से बात बनती है तो जनता का यह अधिकार है।

  • Swami Swaroopanand Saraswati Death : द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का निधन, 99 साल की उम्र में ली अंतिम सांस

    Swami Swaroopanand Saraswati Death : द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का निधन, 99 साल की उम्र में ली अंतिम सांस

    Swami Swaroopanand Saraswati Death: द्वारका एवं शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का रविवार (11 सितंबर 2022) को निधन हो गया। वह 99 साल के थे। शंकराचार्य ने मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर में आखिरी सांस ली। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने नरसिंहपुर के झोतेश्वर स्थित परमहंसी गंगा आश्रम में रविवार दोपहर 3.30 बजे अंतिम सांस ली। वह लंबे समय से अस्वस्थ चल रहे थे। स्वामी स्वरूपानंद ने राम मंदिर निर्माण के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी थी। वह आजादी की लड़ाई में जेल भी गए थे।

    पीएम मोदी ने किया ट्वीट : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शंकराचार्य के निधन पर ट्वीट किया, “द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी के निधन से अत्यंत दुख  व्यक्त किया है।
    प्रियंका गांधी ने जताया शोक: कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने शंकराचार्य के निधन पर ट्वीट किया, “जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी महाराज के महाप्रयाण का समाचार सुनकर मन को भारी दुख पहुंचा। स्वामी जी ने धर्म, अध्यात्म व परमार्थ के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। साल 2021 में प्रयागराज में गंगा स्नान के बाद उनका आशीर्वाद प्राप्त कर देश व धर्म की।”

    अपने दूसरे ट्वीट में उन्होंने लिखा, “उदारता व सद्भावना पर उनके साथ चर्चा करने का मौका मिला। स्वामी जी ने मेरे पिता के रहते हुए 1990 में हमारी गृहप्रवेश की पूजा कराई थी। ये पूरे समाज के लिए एक अपूर्णीय क्षति है। ईश्वर से प्रार्थना है कि इस कठिन समय में स्वामी जी के अनुयायियों को कष्ट सहने का साहस दें।”  9 साल की उम्र में छोड़ दिया था घर: स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितंबर 1924 को मध्य प्रदेश के सिवनी जिले के दिघोरी गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम धनपति उपाध्याय और मां का नाम गिरिजा देवी था। माता-पिता ने उनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा। स्वामी स्वरूपानंद ने 9 साल की उम्र में घर छोड़ कर धार्मिक यात्राएं शुरू की। इस दौरान वह काशी पहुंचे जहां उन्होंने स्वामी करपात्री महाराज से वेदों और शास्त्रों की शिक्षा ली।

    साल 1981 में मिली शंकराचार्य की उपाधि: आजादी की लड़ाई के दौरान जब 1942 में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में 9 महीने और मध्य प्रदेश की जेल में 6 महीने की सजा भी काटी। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती करपात्री महाराज के राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी थे। 1950 में वह दंडी संन्यासी बनाये गए और 1981 में उन्हें शंकराचार्य की उपाधि मिली। 1950 में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दंड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती के नाम से जाने गए।

  • Patriarchy : श्राद्ध  का  महत्व

    Patriarchy : श्राद्ध  का  महत्व

    बी कृष्णा नारायण

    पितरः प्रीति मापन्ने सर्वाम प्रीयन्ति देवता ||

    पितर के प्रीत से ही देवता प्रसन्न होते हैं|

    जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे, आर्यावर्ते, पुण्य क्षेत्रे (अपने नगर/गांव का नाम लें) श्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, उत्तरायणे बसंत ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे अमुक मासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुक वासरे , अमुक गोत्रोत्पन्नोऽहं (अपने गोत्र का नाम लें), अमुकनामा (अपना नाम लें) सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया- श्रुतिस्मृत्योक्तफलप्राप्त्यर्थं मनेप्सित कार्य सिद्धयर्थं … च अहं पूजन करिष्ये। तत्पूर्वागंत्वेन निर्विघ्नतापूर्वक कार्य सिद्धयर्थं यथामिलितोपचारे… पूजनं करिष्ये।

    किसी भी शुभ संकल्प से पहले जब पंडित जी यह मन्त्र बोलते थे तब हमारा ध्यान बरबस ही इस ओर जाता था| जब मैंने बाबूजी से इसके बारे में पूछा तब उन्होंने विस्तार से इसके बारे में बताया और न केवल मेरी शंका का शमन किया अपितु अपने पूर्वजों से भी मिलवाया| इस मंत्र में अन्य बातों के साथ जब हम अपना गोत्र जोड़ते हैं तो अपने पितरों के साथ तो हम अपना सम्बन्ध स्थापित करते ही हैं साथ ही साथ हम कौन हैं इसकी पहचान भी होती है|

    श्राद्ध – अपने पितरों से मिलने का समय, उनसे मिलकर एकाकार होने का समय, उनके प्रति श्रद्धाभाव से समर्पित होने का समय है|

    श्रद्धां दीयतेश्रद्धां क्रियतेश्रद्धां अनुदीयते श्राद्धंश्राद्येषु पितरं तृप्तः|

    श्राद्ध को लेकर शास्त्रीय कथन क्या है?

    इसके पीछे का वैज्ञानिक रहस्य क्या है ?

    तर्पण की विधि क्या है और कौओं को खाना खिलाये जाने के पीछे का रहस्य क्या है, इन सभी बातों को हमलोग जानेंगें|

    भगवद्गीता –

    संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।

    पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रिया:॥1 /42॥

    लुप्तपिण्डोदकक्रिया: – समाज में जब तर्पण लुप्त हो जाता है मतलब कि अपने पूर्वजों के प्रति जो श्रद्धा है उस श्रद्धा से समाज विमुख  हो जाता है तो समाज का ह्रास शुरू हो जाता है| समाज कि अवनति आरम्भ हो जाती है|

    अपने से बड़ो को सम्मान देना, अपने वरिष्ठों को मान देना यह धर्म पालन का एक महत्वपूर्ण अंग है| श्राद्ध और तर्पण, इस एक प्रक्रिया से पूरा का पूरा धर्म जीवित है|

    मतस्य पुराण मैं पिण्डोदक कर्म का विस्तार से वर्णन किया गया है|

    छान्दोग्य उपनिषद में भी इस कर्म का वर्णन है|

    मार्कण्डेय पुराण में ऋतुध्वज अपनी पत्नी मदालसा को कहते हैं कि पुत्रों को प्रवृत्ति मार्ग में लगाओ| ऐसा करने से कर्म मार्ग का उच्छेद नहीं होगा तथा पितरों के पिंडदान का लोप नहीं होगा| जो पितर देवलोक में हैं, तिर्यक योनि में जो परे हैं, वे पुण्यात्मा हो या पापात्मा, जब भूख, प्यास से विकल होते हैं तो अपने कर्मो में लगा हुआ मनुष्य पिंडदान द्वारा उन्हें तृप्त करता है| तब मदालसा अपने पुत्र अलर्क को श्राद्ध कर्म के बारे में बतलाते हुए कहती हैं कि मृत्यु के पश्चात् जो श्राद्ध किया जाता है उसे औरघवदैहिक श्राद्ध कहते हैं| व्यक्ति जिस दिन ( तिथि में ) मरा  हो ,उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध करना चाहिए| एक ही पवित्रक का उपयोग किया जाता है| अग्निकरण की क्रिया नहीं होती|

    ब्राह्मण के उच्छिष्ट के समीप प्रेत को तिल और जल के साथ अपसव्य होकर ( जनेऊ को दाहिने कंधे पर डालकर )उसके नाम गोत्र का स्मरण करते हुए एक पिंड देना चाहिए| तत्पश्चात हाथ में जल लेकर कहें  – ‘ अमुक के श्राद्ध में दिया हुआ अन्न-पान आदि अक्षय हो यह कहकर वह जल पिंड पर छोड़ दे ,फिर ब्राह्मणो का विसर्जन करते समय कहे ‘ अभिरंबताम’ ( आपलोग सब तरह से प्रसन्न हों )| उस समय ब्राह्मण लोग कहें  ‘अभिरता स्मः ‘( हम भली भांति संतुष्ट हैं )|

    श्राद्ध में विषम संख्या में ब्राह्मणो को आमंत्रित करे|

    पिता ,पितामह और प्रपितामह इन तीनो पुरुषों को पिंड के अधिकारी समझना चाहिए|

    यही बात मातामहों के श्राद्ध में भी होना चाहिए|

    पितृश्राद्ध में बैठे हुए सभी ब्राह्मणो को आसन के लिए दोहरे मुड़े हुए कुश देकर उनकी आज्ञा ले विद्वान पुरुष  मन्त्रोच्चारपूर्वक पितरों का आवाहन करे और अपसव्य होकर पितरों की प्रसन्नता के लिए तत्पर हो उन्हें अर्घ्य निवेदन करे|

    इसमें जौ के स्थान पर तिल का प्रयोग करना चाहिए|

    नमक से रहित अन्न लेकर विधिपूर्वक अग्नि में आहुति दें| ‘अग्नये कव्यवाहनाये स्वाहा ‘ इस मन्त्र से पहली आहुति दें, ‘ सोमाय पितृमते स्वाहा ‘ इस मंत्र से दूसरी आहुति दें तथा ‘यमाये प्रेत्पतये स्वाहा ‘इस मंत्र से तीसरी आहुति दें |आहुति से बचे हुए अन्न को ब्राह्मणो के पात्र में परोसें फिर विधिपूर्वक जो जो अन्न उन्हें अत्यंत प्रिय लगे वह वह उनके सामने खुशीपूर्वक प्रस्तुत करें |

    यहाँ सिर्फ पितरों के तृप्त और सुखी होने की कामना नहीं की जाती है बल्कि देव, ऋषि, दसों दिशाएं, ऋतु और यहाँ तक कि यम के तृप्त और सुखी होने की कामना से उन्हें जल दिया जाता है| सर्वे भवन्तु सुखिनः और श्रद्धा भाव दो मूल मन्त्र पकड़ता है हमें श्राद्ध|

    ब्राह्मणों को आग्रहपूर्वक भोजन कराएं| उनके भोजनकाल में रक्षा के लिए पृथ्वी पर तिल और सरसो बिखेर दे और रक्षोग्न मन्त्र का पाठ करें क्योंकि श्राद्ध में अनेक प्रकार के विघ्न उपस्थित होते हैं|

    अंत में यथा शक्ति दान देकर ब्राह्मणो से कहें ‘ सुस्वधा अस्तु ‘( यह श्राद्धकर्म भली भांति संपन्न हो ) ब्राह्मण भी संतुष्ट होकर कहें ‘ तथास्तु ‘इसके बाद उनका आशीर्वाद लें और उन्हें विदा करे ,तत्पश्चात अथितियों को भोजन कराएं| इसके बाद बचा हुआ भोजन यजमान ग्रहण करें|

    जो वंशज अपने पितरों को तर्पण और श्राद्ध द्वारा तृप्त करते हैं, पितर उनकी सब प्रकार से रक्षा करते हैं|

    भाद्रपद (भादो माह) में मनाये जाने वाले श्राद्ध का वैज्ञानिक आधार –

    ज्योतिषशास्त्र के अनुसार, सूर्य का कन्या राशि में जब गोचर हो रहा होता है या सूर्य कन्या राशि में प्रवेश करने वाला होता है  तब श्राद्धकर्म किया जाता है | इसे पितृपक्ष कहते हैं | सारे व्रत और त्योहार सूर्य और चन्द्रमा के परस्पर संबंधों पर आधारित हैं पर यह सिर्फ सूर्य पर आधारित है | ज्योतिष्शास्त्र ने हज़ारों वर्ष पूर्व सूर्य के कन्या राशि में गोचर के साथ पितरों की चर्चा की| यह विज्ञान सम्मत भी है| कैसे ,आइये जाने -पृथ्वी और अन्य ग्रह सूर्य के चारो तरफ चक्कर लगाते हैं .सूर्य आकाशगंगा के चारो तरफ घूमता है और कई आकाशगंगाओं का समूह जिस तारामंडल के चारो तरफ घूमते हैं उस तारामंडल की गति दिशा कन्या राशि की तरफ होती है ,इसे विज्ञान VIRGO(कन्या) super cluster कहता है|

    रांची में अभी भी आदिवासी जाति है जो हर तीसरे वर्ष अपने पितरों को तृप्त करने हेतु पूजा करते हैं| वे जिस समय पूजा करते हैं सूर्य कन्या राशि में आ चुका होता है|

    है न आश्चर्य की बात कि आज विज्ञान जिस बात को स्वीकार रहा है, ज्योतिषशास्त्र हज़ारो वर्ष पूर्व ही उसका दर्शन करा  चुका है| उन्होंने इस मार्ग को पितृमार्ग कहा| इसका सारगर्भित अर्थ यह कि पितृमार्ग अर्थात जनम -मरण-जनम -का चक्र|

    कौओं को खाना खिलाने के पीछे का सारगर्भित अर्थ –

    लोक, आस्था, प्रकृति और जीवन से जोड़ है यह|  पीपल के बीज को कौए जब खाकर मल द्वारा बाहर निकालते हैं  तभी पीपल के बीज से पौधा निकल पाता है| लोग जब कौओ के माध्यम से पितरों से जुड़ते है तो पता चलता है कि इसका भी कितना महात्त्म्य है| और यह ज्ञान हमें किताबों से नहीं मिलता वरन  प्रकृति से जुड़कर मिलता है|

    इतना सारगर्भित है यह| आस्था के साथ साथ प्रकृति से तो जोड़ता ही है, हर एक के तृप्त और सुखी होने की कामना श्रद्धा पूर्वक करने का पाठ पढ़ाता है| हमें अपनी पहचान दिलाता है|

    आइये हम अपनी पहचान के प्रति सचेत हों और सनातन परंपरा के बीज को फिर से पोषित करें| तर्पण करें| अपने पितरों का आशीर्वाद प्राप्त करके ग्रहजन्य पीड़ा एवं पितृदोष से मुक्ति पाकर आधिदैविक, अधिभौतिक और आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करें|

    पितरों के प्रति अपनी श्रद्धा सुमन श्राद्ध के रूप में अर्पित करें|

  • What is Operation Unicorn? : महारानी एलिजाबेथ की मौत पर क्यों किया गया ऑपरेशन यूनिकॉर्न

    What is Operation Unicorn? : महारानी एलिजाबेथ की मौत पर क्यों किया गया ऑपरेशन यूनिकॉर्न

    What is Operation Unicorn? जानिए लंदन ब्रिज से क्या है इसका कनेक्शन?

    शिवानी मांगवानी 

    महारानी एलिजाबेथ, जिनका बीते दिन ब्रिटेन की सत्ता पर 70 साल शासन करने के बाद 96 साल की आयु में स्कॉटलैंड के बाल्मोरल कैसल में निधन हो गया । बता दें कि 21 अप्रैल 1926 को जन्मी क्वीन एलिजाबेथ का पूरा नाम एलिजाबेथ एलेक्जेंडरा मैरी विंडसर था, जिस वक्त क्विन का जन्म हुआ था उस समय ब्रिटेन में किंग जॉर्ज पंचम का राज था वही एलिजाबेथ के पिता किंग जॉर्ज छह भी..बाद में ब्रिटेन के राजा बने थे.एलिजाबेथ द्वितीय दुनिया में सबसे लंबे समय तक राज करने वाली शासक थी । एलिजाबेथ द्वितीय सिर्फ ब्रिटेन ही नहीं बल्कि 14 और देशों की रानी भी थी..1952 में जब महारानी एलिजाबेथ द्वितीय को राजगद्दी मिली थी तो उनकी उम्र उस समय महज 26 साल थी तो इस महान हस्ती को खौने के बाद पुरी दुनिया शोक में है जिसको लेकर महारानी के निधन के बाद ऑपरेशन यूनिकॉर्न को भी शुरू कर दिया गया है अब आप सोच रहे होंगे की ये कैसा ऑपरेशन है ?शायद आप में से कुछ लोग जानते भी हो लेकिन जो लोग नही जानते है, ये वीडियो उन्ही के लिए है ।

    ऑपरेशन यूनिकॉर्न 

    ब्रिटेन के अधिकारियों के अनुसार, महारानी की मौत और अंतिम संस्कार के बीच पहले 10 दिनों के दौरान घटनाओं को मैनेज करने के लिए ऑपरेशन लंदन ब्रिज तैयार किया गया था । अगर स्कॉटलैंड में मृत्यु होती है तो ऑपरेशन यूनिकॉर्न के बारे में सोचा गया था । इसी के साथ लंदन ब्रिज इज डाउन के साथ ऑपरेशन यूनिकॉर्न भी शुरू हो गया है, वही बता दें कि यूनिकॉर्न स्कॉटलैंड का नेशनल पशु है ।

    ऐसे में लंदन की जगह स्कॉटलैंड में महारानी एलिजाबेथ द्वितीय की मौत को अब ऑपरेशन यूनिकॉर्न नाम दिया गया है । साथ ही यह पहले से तय था कि अगर स्कॉटलैंड में महारानी का निधन होता है तो ऑपरेशन का नाम स्कॉटलैंड के राष्ट्रीय पशु के नाम पर होगा। इसके तहत ऑपरेशन के कुछ हिस्सों को पहले सक्रिय कर दिया गया है। ऑपरेशन लंदन ब्रिज के तहत खबर को भी एंकर ने काले कपड़े पहनकर समाचार पढ़ा। इस बीच, डाउनिंग स्ट्रीट पर राष्ट्रीय ध्वज को पहले आधा झुका दिया गया और राजनेता शोक प्रस्ताव और राजकीय अंतिम संस्कार की तैयारी शुरू हो गई। शाही परिवार पहले से बाल्मोरल में है और राजा चार्ल्स के अंतिम संस्कार से पहले दिनों में देश के दौरे पर जाने की संभावना है।

    डी-डे किया जाएगा घोषित 

    ऑपरेशन लंदन ब्रिज के मुताबिक महारानी की मौत के दिन को ‘डी-डे’ कहा जाएगा और उनके अंतिम संस्कार तक आने वाले हर दिन को डी + 1,डी + 2″ के रूप में बताया जाएगा. जबकि महारानी की मृत्यु का संदेश देने के लिए कोड ‘लंदन ब्रिज डाउन’ है. इस योजना के तहत भीड़ से निपटने के लिए बड़ा सुरक्षा बंदोबस्त किया जाएगा. ऑपरेशन लंदन ब्रिज का खुलासा पहली बार मई 2017 में द गार्जियन में हुआ था, जिसमें बताया गया था कि महारानी की मृत्यु के अगले दिन से 10 दिनों की अवधि के दौरान क्या होगा तो इसके तहत रानी की मृत्यु का संदेश देने के लिए कोड लंदन ब्रिज डाउन है, जारी कि गयी रिपोर्ट में कहा है कि भीड़ और यात्रा के दौरान अराजकता को प्रबंधित करने के लिए सुरक्षा अभियान का अनुसरण किया जाएगा।

    शाही परिवार महारानी के अंतिम संस्कार की योजना की घोषणा करेगा। रानी की मृत्यु के दस दिन बाद ही ब्रिटेन के नवनियुक्त प्रधानमंत्री लिज ट्रस बयान देने वाले सरकारी पहली सदस्य होंगी। पीएम और सरकार के अन्य सदस्यों के बयान के बाद सभी सैल्यूटिंग स्टेशनों पर तोपों की सलामी की व्यवस्था की गई है। इसके बाद, लिज ट्रस नए राजा के साथ जनता के लिए एक जनसभा में किंग चार्ल्स देश को संबोधित करेंगे। महारानी का अंतिम संस्कार राजकीय सम्मान के साथ वेस्टमिंस्टर एब्बे में होगा। विंडसर कैसल के सेंट जॉर्ज चैपल में एक कमिटमेंट सर्विस होगी। इसके बाद, महारानी एलिजाबेथ द्वितीय को महल के किंग-जॉर्ज मेमोरियल चैपल में दफना दिया जाएगा।

    ट्रेंड हो रहा कोहिनूर 

    महारानी की मौत पर वैसे तो बहुत कुछ ट्रेंड कर रहा है लेकिन एक और चीज अचानक ट्रेंड करने लगी है और वो है कोहिनूर, इस बीच सोशल मीडिया पर ‘कोहिनूर’ ट्रेंड होने लगा है, अब तक कोहिनूर को लेकर हजारों ट्वीट्स किए जा चुके हैं, लेकिन ये इतना ट्रेंड क्यो हो रहा है जरा ये भी जानिए दरअसल इन सबकी मुख्य वजह है महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का ताज, जिस पर भारत का मशहूर हीरा कोहिनूर लगा हुआ है । बताया जाता है कि इसके अलावा उनके ताज पर दो हजार 8 सौ से ज्यादा हीरे लगे हैं, जिनमें सबसे चर्चित हीरा कोहिनूर ही है, फिलहाल सोशल मीडिया पर यूजर्स महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के निधन के बाद कोहिनूर हीरे की वापसी की बात कर रहे हैं ।

    महारानी का भारत दौरा 

    वहीं अगर बात करें महारानी एलिजाबेथ के भारत दौरे की तो महारानी ने 1997 में अपना आखिरी दौरा किया था. महारानी इस दौरे पर अपने पति प्रिंस फिलिप के साथ भारत पहुंची थी । इस दौरान ब्रिटिश क्वीन ने कई धार्मिक स्थलों का भ्रमण किया था । उन्होंने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में जाकर वहां पर माथा टेका था । इसके साथ ही जलियांवाला बाग में जाकर श्रद्धांजलि भी दी थी। ऐसा करने वाली महारानी ब्रिटेन की पहली राष्ट्राध्यक्ष थीं । वहीं भारत की उनकी अंतिम यात्रा देश की आजादी की 50वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में हुई थी. इस दौरान उन्होंने पहली बार औपनिवेशिक इतिहास के कठोर दौर का जिक्र किया था. उन्होंने कहा था,यह कोई रहस्य नहीं है कि हमारे अतीत में कुछ कठोर घटनाएं हुई हैं । जलियांवाला बाग एक दुखद उदाहरण है ।

    महारानी एलिजाबेथ की विवादों में रही शादी 

    दरअसल क्वीन एलिजाबेथ की शादी साल 1947 में राजकुमार फिलिप से हुई थी. महारानी के चार बच्चे भी हैं, जिनके नाम चार्ल्स, ऐने, राजकुमार एंड्रयू और राजकुमार एडवर्ड हैं । राजकुमार फिलिप उनके दूर के रिश्तेदार हैं और दोनों को बहुत छोटी उम्र में ही एक दूसरे से प्यार हो गया था, दोनों की पहली मुलाकात 1939 में हुई थी । महारानी एलिजाबेथ बताती हैं कि उनको 13 वर्ष की उम्र में ही एक दूसरे से प्यार हो गया था और वो एक दूसरे को प्रेम पत्र तक भेजने लगे थे. वही बात करें क्विन की शादी के बारे में तो महारानी की शादी में कई तरह विवाद देखने को मिले. यहां तक कि एलिजा बेथ को अपने परिवार के लोगों के विरोध का भी सामना करना पड़ा,  बताया जाता है कि उनके परिवार वाले फ्लिप को किन्हीं वजहों के चलते पसंद नहीं करते थे. इसके अलावा बताया यह भी जाता है कि महारानी की शादी में उनकी बहनों को भी नहीं बुलाया गया था. इतना ही नहीं राजकुमारी के ताऊ व विंडसर के ड्यूक, जो पहले राजा एडवर्ड अष्टम थे को भी इस विवाह में नहीं बुलाया गया था ।

  • Indian History : भारत के स्वर्णिम इतिहास की एक झलक दिखाता सम्राट मिहिर भोज का राज

    Indian History : भारत के स्वर्णिम इतिहास की एक झलक दिखाता सम्राट मिहिर भोज का राज

    देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट

    भारत के महान शासकों में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का नाम अग्रगण्य है । उनके विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ राकेश कुमार आर्य ने लिखा है कि अग्नि अर्थात प्रकाश के उपासक भारतवर्ष का सबसे पहला राजवंश वैवस्वत मनु के द्वारा सूर्यवंश के रूप में स्थापित किया गया । इस सूर्यवंश को ही इक्ष्वाकु वंश , अर्कवंश और रघुवंश के नाम से भी जाना जाता है । भारतवर्ष के ही नहीं अपितु समस्त भूमण्डल के सबसे पहले राजवंश के रूप में स्थापित किए गए ।इसी सूर्यवंश में अनेकों प्रतापी , जनसेवी , प्रजाहितचिंतक और ईशभक्त सम्राट उत्पन्न हुए। मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी महाराज का जन्म भी इसी वंश में हुआ ।

    भारत के राजाओं की यह एक विशेषता रही है कि वह अपनी प्रजाओं की सुख – सुविधाओं और ऐश्वर्यों की वृद्धि के लिए सदा सचेष्ट रहते थे । महर्षि मनु ने ही राजा के बारे में व्यवस्था दी है कि यह सभेश अर्थात राजा जो कि परम विद्वान और न्यायकारी है , इन्द्रअर्थात विद्युत के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता , वायु के समान सबको प्राणवत प्रिय और हृदय की बात जानने हारा , यम अर्थात पक्षपात रहित न्यायाधीश के समान वर्तने वाला , सूर्य के समान न्याय , धर्म , विद्या का प्रकाशक , अंधकार अर्थात अविद्या अन्याय का निरोधक , अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने वाला , वरुण अर्थात बांधने वाले के समान यथा दुष्टों को अनेक प्रकार से बांधने वाला , चन्द्र के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता , धनाध्यक्ष के समान कोषों का पूर्ण करने वाला सभापति होवे । ( सत्यार्थ प्रकाश , पृष्ठ 140 )

    जो राजा प्रजा की सुख सुविधा
    का ध्यान हमेशा रखता है ।
    प्रजा के ऐश्वर्यों की वृद्धि को
    सदा धर्म अपना समझता है ।।
    शीघ्र न्यायकारी ऐश्वर्यकर्त्ता ,
    वह राजा इंद्र कहाता है ।
    वायु के सम्मान सबको प्रिय ,
    वह हृदय – रहस्य समझता है ।।
    न्यायाधीश समान वर्त्ते सबसे
    इसलिए उसे हैं यम कहते ।
    सूर्य के समान विद्या प्रकाशक
    अंधकार विनाशक उसको कहते ।।
    अग्नि के समान दुष्टों को बांधे
    चंद्र तुल्य आनंद करता ।
    कोषों को पूर्ण करने वाला
    कहलाता जन -जन का भर्त्ता ।।

    महर्षि मनु के द्वारा इस श्लोक में चार बार न्याय शब्द प्रयोग हुआ है । लगभग हर पंक्ति में उनके द्वारा न्याय पर विशेष बल दिया गया है । महर्षि मनु के द्वारा अपने आदि संविधान मनुस्मृति में इस प्रकार की व्यवस्था करने का उद्देश्य केवल यही है कि राजा हर स्थिति परिस्थिति में अपनी प्रजा के मध्य न्याय करने के लिए कटिबद्ध हो । किसी भी प्रकार के अन्याय का प्रतिकार करना राजा का परम दायित्व है । केवल कर वसूल करना और जनता का खून चूसकर जनसंहार आदि के लिए अपनी सेनाओं का दुरुपयोग करना — यह हमारे देश में राजा की राजनीति में कभी भी सम्मिलित नहीं रहा है। भारत इसी प्रकार की राज्य व्यवस्था का उपासक राष्ट्र रहा है । जिन लोगों ने दूसरों की स्वाधीनता को हड़पकर दूसरी संस्कृतियों को मिटाने के लिए अपनी सेनाएं सजाईं , भारत ने उनका प्रतिकार किया ।
    भारत की इसी क्षत्रिय परम्परा का निर्वाह करते हुए गुर्जर सम्राट मिहिर भोज उन आक्रमणकारियों के लिए सीना तान कर खड़े हो गए , जो किसी भी प्रकार से उस समय अन्याय और अत्याचार का प्रतीक बन चुके थे ।

    राजा के लिए आवश्यक हैं यह 8 गुण

    महर्षि मनु ने भारतवर्ष में राज्य व्यवस्था का शुभारम्भ किया और उन्होंने राजा के ये ऊपरिलिखित आठ गुण बताए । इस प्रकार भारतीय राज्यपरम्परा में प्रत्येक जनहितकारी कार्य करने वाले राजा के लिए इन आठों गुणों को अपनाना आवश्यक है । हमारे देश में सम्राट की उपाधि उसी राजा को मिलती रही है जो इन गुणों से अपने आप को सुभूषित कर लेता है । सम्राट राज्य विस्तार से नहीं , चरित्र विस्तार से बना जाता है और इसे सीखने के लिए भारतीय राजनीति के इस मौलिक चिंतन को सीखना , समझना और स्वीकार करना पड़ेगा।
    यदि मिहिर भोज के नाम के साथ सम्राट की उपाधि लगती है तो हमें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि इस महान शासक के भीतर राजा के ये सभी आठ गुण समाविष्ट थे, उनके विचार एवं देशभक्ति अप्रतिम थी । वह स्वतन्त्रता का परम उपासक इसलिए माना जाता है कि उसने भारत पर आक्रमण करने वाले इस्लामिक आक्रान्ताओं को मार भगाने का इतिहास प्रसिद्ध कार्य किया। कुछ इतिहासकारों ने सम्राट मिहिर भोज के बारे में ऐसा लिखा है कि वह मनुस्मृति की व्यवस्था से शासन न चलाकर देवल स्मृति की व्यवस्था के अनुसार शासन चलाते थे , जबकि ऐसा नहीं था ।
    परन्तु यदि ऐसा मान भी लिया जाए तो भी हमारा तर्क है कि देवल आचार्य के द्वारा भी ‘देवल स्मृति’ में जो कुछ भी लिखा गया वह भी मनु महाराज की व्यवस्था के अनुरूप ही लिखा गया । उसमें देश, काल, परिस्थिति के अनुसार या लेखक ने अपने विवेक के अनुसार यथावश्यक कुछ आगे पीछे जोड़ दिया हो , यह एक अलग बात है , परन्तु मूल विचार ‘देवल स्मृति’ में भी महर्षि मनु का ही मिलता है।
    हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जिस सूर्यवंश के प्रतिहार शासक के रूप में सम्राट मिहिर भोज शासन कर रहे थे उस सूर्यवंश के शासन का आधार मनुस्मृति ही रही थी , इसलिए उससे अलग जाकर किसी अन्य शास्त्र के अनुसार शासन चलाना सम्राट मिहिर भोज के लिए सम्भव नहीं था । यदि यह मान भी लिया जाए कि देवल स्मृति के अनुसार उन्होंने शासन चलाया तो देवल स्मृति में भी कुछ चुने हुए उन्हीं सूत्रों को लिया गया था जो मनु प्रतिपादित व्यवस्था के एक भाग थे ।
    जैसे आचार्य मेधातिथि का कथन है कि दंड विधान या न्याय विधान राजा से ऊंचा है तथा छोटे व बड़े सब पर समान रूप से लागू होता है । किसी भी प्रकार की गलती करने पर महामंत्री भी दंडित किया जा सकता है और स्मृति के विधान अनुसार प्रजा की मान्यताओं के अनुसार देश व धर्म की रक्षा व शासन न करने वाले राजा को भी हटाया जा सकता है।

    मनु की व्यवस्था का प्रभाव

    यह कथन चाहे मेधातिथि का रहा हो चाहे देवल स्मृति का रहा हो , परन्तु मूल रूप में यह मनुस्मृति के प्रावधान में कुछ सुधार करके बनाया गया है । यद्यपि मनुस्मृति में शूद्र की अपेक्षा ब्राह्मण को अधिक दण्ड देने का विधान किया गया है । मेधातिथि के इस कथन में तो छोटे व बड़े सब पर विधान को समान रूप से लागू करने की बात कही गई है , जबकि मनु बौद्धिक स्तर के अनुसार दण्ड देने के समर्थक हैं । शूद्र क्योंकि बौद्धिक स्तर पर कमजोर होता है , इसलिए वह किए गए अपराध के परिणाम से ब्राह्मण की अपेक्षा कम परिचित होता है । अतः मनु के विधान के अनुसार ब्राह्मण और राजा या राजा के कर्मचारी शूद्र की अपेक्षा दण्ड के अधिक पात्र हैं । मनु शूद्र के अधिकारों के समर्थक रहे हैं । साथ ही शूद्र के लिए उन्होंने यह व्यवस्था भी दी है कि वह शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ब्राह्मण बन सकता है । इन व्यवस्थाओं में कुछ लोगों ने स्वार्थवश कहीं परिवर्तन किए हैं । यह सम्भव है कि गुर्जर सम्राट मिहिर भोज के समय तक यह परिवर्तन कर दिए गए हों , इसलिए उन्होंने इन परिवर्तनों को हटाने या उनके स्थान पर समय के अनुसार नए प्रावधानों को अंगीकृत करने की बात यदि स्वीकार कर ली हो तो इसका अभिप्राय यह नहीं है कि मनुस्मृति को उन्होंने कूड़ेदान में फेंक दिया था। कुल मिलाकर के मूल रूप में मनुस्मृति के राजधर्म सम्बन्धी विधान ही सम्राट मिहिर भोज के लिए प्रमाणिक था। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि चीन की महान दीवार के निर्माण के समय तक चीन जैसा देश भी मनुस्मृति के संविधान से ही शासित होता रहा था । जो कि सम्राट मिहिर भोज के शासनकाल के सदियों बाद की घटना है। ऐसे में भारत के शासक मनुस्मृति से प्रभावित ना रहे हों , ऐसा नहीं हो सकता।
    हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि मनु की राज्य व्यवस्था से सम्बन्धित श्लोकों का यदि अध्ययन किया जाए तो संसार के वर्तमान सभी संविधानों के अनेकों प्रावधानों पर भी मनुस्मृति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । तब देवल स्मृति में मनुस्मृति से अलग सारी व्यवस्था कर दी गई हो – यह भला कैसे सम्भव हो सकता है ? यही कारण है कि हम अपने इस महानायक , जन हितैषी , महापराक्रमी और महान देशभक्त सम्राट के महान कार्यों का अवलोकन मनुस्मृति में मनु महाराज द्वारा बताए गए राजा के आठ गुणों के आधार पर ही करना चाहेंगे।
    सम्राट मिहिर भोज की मंत्रिपरिषद व उसके प्रशासन के अधिकारियों का अधिक विवरण अभी उपलब्ध नहीं हो पाया है । इसका कारण यह है कि इस महान सम्राट के इतिहास को पूर्णतया मिटाने का कार्य विदेशी मुस्लिम लेखकों और शासकों के द्वारा किया गया। इसके उपरान्त भी जितनी जानकारी हमको उपलब्ध होती है उसके आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह शासक महानतम विजेताओं और साम्राज्य निर्माताओं में से एक था। जैसा कि कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी कहते हैं कि :– “भोज की महानता की यादगारों को बर्बरता ने मिटा दिया गया है। अब से थोड़े से वर्ष पूर्व तक वह भारतीय इतिहास की खोज करने वालों को ज्ञात नहीं था , लेकिन जैसा कि अब तक की खोजों से संकेत मिलता है, अब से आगे की खोजों से अवश्य ही यह पूर्णत: सिद्ध हो जाएगा कि मिहिर भोज किसी भी काल के महानतम विजेताओं तथा साम्राज्य निर्माताओं में से एक था।”
    इस सम्राट के सब प्रांतों के सब दण्डनायक और राज्यपालों , तंत्रपालों आदि का विवरण उपलब्ध नहीं है । गुर्जर सम्राट की मंत्री परिषद के सदस्यों का विवरण भी उपलब्ध नहीं है ।तत्कालीन राजकवि राजशेखर के कथन से पता चलता है कि उसका पिता सम्राट का महामंत्री था । इसी प्रकार महाकवि राजशेखर व प्रसिद्ध कवयित्री सीता तथा बालादित्य के अतिरिक्त अन्य साहित्यकारों और विद्वानों का विवरण भी उपलब्ध नहीं है । जो कि महान गुर्जर सम्राटों के दरबारों के कभी गौरव हुआ करते थे।

    विद्वानों का आश्रयदाता
    सम्राट मिहिर भोज रहा ।

    उसके शासनकाल में बंधु
    होता निरन्तर शोध रहा ।।

    गुर्जर सम्राट मिहिर भोज परम विद्वान और न्यायकारी इसलिए था कि उसने अपने भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के गौरव को स्थापित करने वाले अनेकों विद्वानों को अपने यहाँ पर आश्रय दिया । इतना ही नहीं अपनी प्रजा के मध्य जाति या संप्रदाय के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया । न्याय करते समय उसने विधि के समक्ष सबको समानता का अधिकार प्रदान किया। जिस बात पर यूरोपियन देश आज अपनी पीठ थपथपाते हैं कि विधि के समक्ष समानता की बात करने वाले सबसे पहले हम लोग हैं , उसे हमारे भारत के सम्राटों ने प्राचीन काल से अपनाया हुआ था और उसी परम्परा को सम्राट मिहिर भोज ने भी अपने शासन में अपनाया।
    धर्मात्मा, साहित्यकार व विद्वान उनकी सभा में सम्मान पाते थे। उनके दरबार में राजशेखर कवि ने कई प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की। कश्मीर के राजकवि कल्हण ने अपनी पुस्तक ‘राज तरंगिणी’ में गुर्जराधिराज मिहिर भोज का उल्लेख किया है। उनका विशाल साम्राज्य बहुत से राज्य मण्डलों आदि में विभक्त था। उन पर अंकुश रखने के लिए दण्डनायक स्वयं सम्राट द्वारा नियुक्त किए जाते थे। योग्य सामंतों के सुशासन के कारण समस्त साम्राज्य में पूर्ण शान्ति व्याप्त थी। सामंतों पर सम्राट का दंडनायकों द्वारा पूर्ण नियन्त्रण था। राजाज्ञा का उल्लंघन करने का साहस उस समय किसी को नहीं होता था।
    सम्राट मिहिर भोज ने अपने शासनकाल में हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अनेकों मन्दिरों का निर्माण करवाया। इसके अलावा कितनी ही बावड़ी भी उसके द्वारा बनवाई गईं । उसके बनाए हुए कई मन्दिर , बावड़ी और अन्य ऐतिहासिक स्थल आज भी देखे जा सकते हैं। जयपुर से 95 किलोमीटर दूर जयपुर आगरा राष्ट्रीय राजमार्ग पर आभानेरी गांव में हर्षत माता का प्रसिद्ध मन्दिर भी सम्राट मिहिर भोज ने ही बनवाया था। आभानेरी गांव में चांद बावडी भी सम्राट भोज द्वारा ही बनवाई गई थी। ये बावड़ी भारत में सबसे प्राचीन व प्रथम बावड़ी है। इस प्रकार बनवाई गई बावड़ी में वर्षा जल को संचित कर उसे पीने योग्य बनाया जाता था । इससे सम्राट की इस रुचि का पता चलता है कि वह एक दूरदर्शी शासक थे जिन्हें अपनी सेना अपने कर्मचारियों और अपनी प्रजा का बहुत अधिक ध्यान रहता था। गवालियर के विल्लभट्ट स्वामी मन्दिर के निर्माण का श्रेय भी गुर्जर सम्राट मिहिर भोज महान को जाता है। कलिंजर से प्राप्त हुए 836 ईस्वीं के ताम्रपत्र में गुर्जर सम्राट मिहिर भोज द्वारा अग्रहारा के लिए दी हुई भूमि का वर्णन है। अग्र्रहारा की भूमि को सम्राट शिवालय को दान दे देता था , जिससे उस भूमि से किसी प्रकार का कर वसूल नहीं किया जाता था और उससे होने वाली आय उस शिव मंदिर पर ही खर्च होती थी।
    ऐसा भी माना जाता है कि उत्तर प्रदेश स्थित आगरा शहर का नाम अग्रहारा के नाम पर ही रखा गया है। यहाँ के शिवालय का नाम अग्रसर महादेव के नाम से प्रसिद्ध था। यह मंदिर गुर्जर सम्राट मिहिर भोज द्वारा बनवाया गया था और यहाँ पर उनका बनवाया हुआ एक विशाल उपवन भी था। यद्यपि यह अभी शोध का विषय है।

    अरब इतिहासकारों ने की है प्रशंसा।

    अरब इतिहासकारों ने गुर्जर सम्राट मिहिर भोज को अपना परम शत्रु बताकर भी उसकी प्रशंसा की है। अरब इतिहासकार सम्राट भोज की न्यायपालिका से बहुत प्रभावित थे इसलिए उन्होंने स्थान स्थान पर सम्राट मिहिर भोज की न्याय प्रियता की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है । अरब लेखकों का कहना है कि यदि सम्राट मिहिर भोज के शासन में किसी व्यक्ति का सोना भी कहीं गिर जाए तो भी उसे दूसरा व्यक्ति उठाता नहीं था । इसका अभिप्राय यही है कि राजा के कठोर कानून थे और लोगों का नैतिक आचरण बहुत पवित्र था। इन लेखकों का कहना है कि मिहिर भोज का साम्राज्य बहुत बड़ा है। अरब के व्यापारी उसके पास जाते हैं और वे उन व्यापारियों से उनका सामान खरीदकर उन पर उपकार करता है। उसके साम्राज्य में लेन देन सोने के सिक्के से होता है। उस सिक्कों को टारटरी कहते हैं। जब अरब के व्यापारी अपना सामान सम्राट को बेचने के पश्चात उनसे अंगरक्षक उपलब्ध कराने के लिए कहते हैं तो गुर्जर सम्राट कहते हैं कि मेरे साम्राज्य में चारों ओर डाकुओं का कोई भय नहीं है। तुम्हारे धन आदि का हरण हो जाए या चोरी हो जाए या किसी भी प्रकार की कोई अप्रिय घटना तुम्हारे साथ हो जाए तो तुम सीधे मेरे पास आना। मैं तुम्हारे धन की क्षतिपूर्ति करूंगा। सम्राट मिहिर भोज के इस प्रकार के धर्माचरण से पता चलता है कि वह न्यायप्रियता में किसी के साथ पक्षपात नहीं करता था।

    शत्रु इतिहासकारों ने माना
    वह न्यायशील धर्मप्रेमी था।
    शत्रु सन्तापक होकर भी
    भोज लोकप्रिय देशप्रेमी था।।

    वह इन्द्र के समान शीघ्र ऐश्वर्यकर्त्ता इसलिए था कि उसने अपने देशवासियों की सुरक्षा को अपने जीवन का सबसे प्रमुख कर्तव्य घोषित किया । देशवासियों के सुख – ऐश्वर्य की कामना में रत रहने वाले इस सम्राट ने 36 लाख की विशाल सेना तैयार की। जिससे देशवासियों को किसी प्रकार से भी विदेशी आक्रान्ताओं की ओर से किसी प्रकार का खतरा न रहे।
    सम्राट सम्राट मिहिर भोज वायु के समान सबको प्राण प्रिय था । क्योंकि उसने सभी देशवासियों के लिए पक्षपातशून्य होकर जनहित के कार्य किए और जनहित को ही अपना धर्म घोषित किया। वह अपने प्रजाजनों के मन की बात को जानने वाला सम्राट था ।
    वह सूर्य के समान न्याय , धर्म और विद्या का प्रकाशक था । अपने राज्य में उसने नागरिकों को उच्च मानवीय गुणों से सुभूषित करने के लिए शिक्षा आदि की समुचित व्यवस्था की । नागरिक सुसंस्कृत और सुशिक्षित बनें , इसके लिए उसने प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली पर विशेष ध्यान दिया । उसने मानव निर्माण से राष्ट्र निर्माण की ओर बढ़ने के लिए अपनी व्यवस्था को पूर्णरूपेण समर्पित कर दिया।
    अरब यात्री सुलेमान ने भारत भ्रमण करके (851 ई0) में लिखा है कि -”गुर्जर सम्राट के पास बहुत बड़ी सेना है तथा भारत अर्थात हिंद में किसी अन्य शासक के पास इतनी बड़ी घुड़सवार सेना नहीं है । उसके पास घोड़े व ऊंटों के बेशुमार रिसाले हैं । वह यह भी जानता है कि अरब के शासक बहुत बड़े बादशाह हैं , फिर भी वह अरबी शासकों का कट्टर विरोधी है और भारत में उससे अधिक इस्लाम का शत्रु कोई नहीं है। वह बहुत धनवान है । घोड़े ऊंटों की उसके पास बहुतायत है । उसके राज्य में चोर ,डाकुओं का कोई भय नहीं है और भारत में अन्य कोई राज्य डाकुओं के भय से इतना सुरक्षित नहीं है ।”
    वह अविद्या अंधकार का निरोधक था। अविद्या और अंधकार में भटकने वाली प्रजा कभी भी मानव निर्माण से राष्ट्र निर्माण की ओर अग्रसर नहीं हो सकती । सम्राट मिहिर भोज इस बात को भली प्रकार जानते थे । यही कारण था कि उन्होंने साहित्यिक , धार्मिक वैज्ञानिक आदि सभी क्षेत्रों में ऐसी राज्य व्यवस्था देने का प्रयास किया जो नागरिकों को अविद्या व अंधकार से निकालकर ज्ञान के प्रकाश में ले जाए। अरबी यात्री सुलेमान से ही हमें पता चलता है कि सम्राट मिहिर भोज बारामणों अर्थात ब्राह्मणों को अर्थात विद्वानों को पूजनीय मानता है और दरबार में भी उनके चरण छूता है , जबकि वे बड़े घमंडी होते हैं और दुनिया में किसी को अपने बराबर विद्वान तथा अपने राजा से अन्य किसी को श्रेष्ठ नहीं मानते।”
    इससे सम्राट मिहिर भोज के विनम्र भाव का तो पता चलता ही है , साथ ही उसके बारे में यह भी पता चलता है कि वह विद्वानों का सम्मान करना वैसे ही राजोचित व्यवहार के अनुकूल मानता था जैसे हमारे यहाँ पर प्राचीन काल में सम्राट माना करते थे।
    सम्राट मिहिर भोज अग्नि के समान दुष्टों को भस्म करने वाले थे । इस बात का प्रमाण उन्होंने अपनी सैनिक नीति और विदेशी आक्रान्ताओं के प्रति अपने कड़े तेवर दिखाकर प्रकट की। अग्नि के समान शत्रुओं को भस्म करने की उनकी नीति का ही परिणाम था कि उनके कारण 300 वर्ष तक विदेशी शत्रुओं को भारत पर आक्रमण करने का साहस नहीं हो पाया। समकालीन इतिहास की यह बहुत महत्वपूर्ण घटना है । जिसे शत्रु इतिहासकारों ने इतिहास में स्थान नहीं दिया है। सुलेमान के विवरण से ही हमें पता चलता है कि सम्राट मिहिर भोज के पास 70 – 80 लाख के करीब की सेना थी । यद्यपि यह कुछ अतिशयोक्ति लगती है , परन्तु इसके उपरान्त भी यह विदेशी इतिहासकार हमें यह भी बताता है कि उसकी सारी सेना को नकद वेतन मिलता है । सेना में अधिकतर घोड़े व ऊंटों के रिसाले हैं , सेना के कपड़े धोने वाले धोबियों की संख्या 35 हजार है।
    निश्चय ही इतनी बड़ी सेना सम्राट मिहिर भोज ने केवल इसीलिए रखी थी कि शत्रुओं को भस्म करने में कुछ भी देर न लग सके । यही कारण रहा कि वह अपने शासनकाल में विदेशी आक्रमणकारियों को भारत से दूर रखने में पूर्णतया सफल हुए।

    कर लगाने की न्याय पूर्ण व्यवस्था

    सम्राट मिहिर भोज के भीतर वरुण के भी गुण थे। उन्होंने शत्रुओं को बांधने का सफल प्रयास किया । शत्रु अपनी चतुराई भूल गया और वह मारे भय के हथियार फेंककर भारत के बाहर भाग गया। जो शत्रु भारतवर्ष की सीमाओं के बाहर थे – वह हाथ बांधकर बाहर ही खड़े रह गए । उनका साहस भारत की सीमा में प्रवेश करने का नहीं हुआ । शत्रु की इस स्थिति को देखकर सम्राट मिहिर भोज को वरुण की उपाधि से भी सहज ही सम्मानित किया जा सकता है।
    सम्राट मिहिर भोज श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्द प्रदान करने वाले थे । प्रत्येक श्रेष्ठ राजा या सम्राट की यह विशेषता होती है कि शत्रु प्रकृति के लोग तो उससे भय खाएं और सज्जन प्रकृति के लोग अर्थात ऐसे लोग जो देश की मुख्यधारा में सम्मिलित होकर चलने में विश्वास रखते हैं और देश की सेवा के कार्य में अपनी सहभागिता सुनिश्चित करते हैं , उन लोगों को सम्राट की उपस्थिति से आनन्द की प्राप्ति होती हो ।
    सम्राट मिहिर भोज से भी उनके परिजन इसी प्रकार प्रसन्न रहते थे । इसलिए सम्राट मिहिर भोज चन्द्र के समान आनन्द प्रदान करने वाले शासक थे।
    सम्राट मिहिर भोज ऐसे धनाध्यक्ष थे जिन्होंने खजाने को भरने का काम किया । उन्होंने बड़े सन्तुलित ढंग से अपने प्रजाजनों पर कर लगाए और जिस प्रकार चावल के छिलके को हटा कर उसमें से साबुत दाना निकाल लिया जाता है , उसी प्रकार बड़ी सावधानी से उन्होंने लोगों से कर लिया था । ऐसा कर जिससे जनता को किसी प्रकार का कष्ट ना हो , इस कर से उन्होंने जनहित के कार्यों का संपादन किया।

    कर के आरोपण में सदा दया करे जो भूप ।
    प्रजा आदर उसका करे मान पिता समरूप ।।

    ‘बोहरा’ शब्द का रहस्य

    भारतवर्ष में विशेष रूप से गुर्जर समाज में किसी ऐसे व्यक्ति को ‘बोहरा’ कहने की आज भी परम्परा है। लोग ‘बोहरा’ उसे कहते हैं जो अकाल आदि के आपत्ति काल में लोगों को आर्थिक सहायता दे सके , उनके कष्टों का निवारण कर सके और उनके प्रत्येक प्रकार के कार्य को संभाल सके । विशेष रुप से अकाल आदि के समय जो लोग अपनी खत्तियां खोल कर लोगों को अनाज आदि की पूर्ति करते थे और उन्हें किसी भी प्रकार का कोई कष्ट नहीं होने देते थे उन लोगों को गुर्जर समाज में ‘बोहरा’ कहने की परम्परा है । वास्तव में यह शब्द वराह ,आदिवराह , बर्राह का ही बिगड़ा हुआ शब्द है ।
    यह शब्द हमारे यहां पर आदि वराह की उपाधि से सम्मानित किए गए सम्राट मिहिर भोज के काल से प्रचलन में आया । जिसे गुर्जर समाज के लोग आज तक भी अपनाए हुए हैं । इसका अभिप्राय है कि जैसे देश व धर्म की रक्षा करके उस समय सम्राट मिहिर भोज ने हम सबको बचाया और संवारा था , वैसे ही आज के किसी तथाकथित ‘बोहरे’ को वह अपने लिए ऐसा ही धनाध्यक्ष मानकर उसे सम्मान देते हुए यह शब्द उसके प्रति उच्चारते हैं। इसका अभिप्राय है कि आज भी भारतवर्ष के लोग ऐसे धनाध्यक्ष या बोहरे को ही सम्मान देते हैं , जिसका धन आपत्तिकाल में दूसरों के कल्याण में खर्च हो सकता हो ।
    अलमसूदी ने हमको यह भी सूचना दी है कि कन्नौज के शासकों की सामान्य उपाधि बोहरा , वर्राह या आदिवराह है। स्पष्ट है कि यह शब्द ‘बोहरा’ यहीं से चला है। अल मसूदी जैसे विदेशी लेखक से उच्चारण दोष होना स्वाभाविक है । उन्होंने जो संदेश और संकेत किया है वह आदिवराह शब्द के बर्राह , बराह , बउरा-बोहरा की ओर है।
    इस प्रकार गुर्जर सम्राट मिहिर भोज राजा के लिए या किसी सम्राट के लिए बताए गए 8 गुणों से विभूषित दिव्य व्यक्तित्व के स्वामी शासक थे ।
    गुर्जर सम्राट मिहिर भोज का साम्राज्य विद्वानों की दृष्टि में धन-धान्य से भरपूर , सुसंगठित , सुव्यवस्थित, प्रगतिशील साम्राज्य था । उसमें अनेकों स्थानों पर अनगिनत भवन स्तूप , विहार , मठों , मंदिरों , कला केंद्रों तथा धार्मिक व सामाजिक शिक्षा केंद्रों आदि का निर्माण सम्राट मिहिर भोज द्वारा कराया गया था । इससे स्पष्ट होता है कि सम्राट शिक्षा के माध्यम से सुसंस्कृत समाज के निर्माण के प्रति कृतसंकल्प था। मन्दिरों में भगवान शिव , विष्णु , भगवती तथा अन्य सभी प्राचीन व नवीन देवताओं के अतिरिक्त जैन , बौद्ध आदि सभी धर्मों के मंदिर , मठ सम्मिलित थे।
    इससे स्पष्ट होता है कि उस समय देश व समाज में अनेकों संप्रदाय खड़े हो गए थे । सम्राट ने उन सभी का सम्मान रखते हुए राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने के दृष्टिकोण से ऐसी शासकीय नीतियां बनाईं , जिनमें सभी को अपने साम्प्रदायिक हित साधने में किसी प्रकार का कष्ट अनुभव ना हो और सभी को समान संरक्षण मिलता रहे । कहीं आपस में कोई भेदभाव नहीं था यहाँ तक कि अनेक विष्णु मन्दिरों के मुख्य पुजारी शैव थे । हिन्दू शिक्षा केंद्रों में वेदों , शास्त्रों के अनुसार पुराणों , स्मृतियों , ज्योतिष , आयुर्वेद आदि का पठन-पाठन होता था ।
    इस प्रकार की शिक्षा से संस्कारवान युवाओं का निर्माण होता था । जिससे राष्ट्र के प्रति समर्पित ब्रह्मचारीगण जब समाज में आते थे तो वे समाजोत्थान व देशोत्थान के कार्यों में शासन प्रशासन का सहयोग करते थे। इससे समाज में सामाजिक समरसता का भाव प्रगाढ़ होता था । भीनमाल तथा वल्लभनगर के महान शिक्षा केन्द्रों को नष्ट किए जाने के बाद उनका स्थान उज्जैन ने ले लिया था । जो उस समय कन्नौज की भान्ति महोदया अर्थात महानगरी कहलाती थी । गुर्जर प्रतिहार सम्राटों की राजधानी कन्नौज वैभवशाली भवनों , मंदिरों , मठों शिक्षा केंद्रों व कला केन्द्रों से सुसज्जित सात दुर्गों से सुरक्षित वैभव तथा सुंदरता में प्राचीन काल के पाटलिपुत्र और पेशावर , मथुरा से कम नहीं थी । काठियावाड़ के देव पट्टन नामक स्थान पर मिहिर भोज द्वारा प्रभास पट्टन बसाए जाने से वहाँ का शिव मन्दिर सोमनाथ नाम से विख्यात हो गया था । बाद में यह मंदिर भारत की अस्मिता और सम्मान से जुड़ गया था।
    सम्राट मिहिर भोज ने हिन्दू समाज की प्राचीन वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था पर विशेष रूप से बल दिया । इसका अर्थ है कि वह समाज को जातिविहीन दृष्टिकोण से देखते थे और भारत के प्राचीन राजधर्म को अपनाकर उसी के आधार पर शासन करने को प्राथमिकता देते थे। जिसमें शासन का और शासक का मुख्य उद्देश्य मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाकर सभी प्रजाजनों के मध्य न्यायपूर्ण व्यवहार करना होता था।
    सम्राट ने भारत की संस्कृति के केन्द्र के रूप में विख्यात रही काशी की उन्नति पर विशेष ध्यान दिया था । जिसे वह अपनी ‘लाडली काशी’ के नाम से पुकारा करते थे।
    डॉ विशुद्धानंद पाठक अपनी पुस्तक ‘उत्तर भारत का राजनीतिक इतिहास’ में लिखते हैं :- ”अपने सर्वाधिक उत्कर्ष और विस्तार के समय केवल मौर्यों का साम्राज्य प्रतिहारों से बड़ा था । लेकिन उसका जीवन प्रतिहार साम्राज्य के 150 वर्षों के मुकाबले एक सौ वर्षों से भी कम (321 से 232 ईसा पूर्व ) का था। लगभग इतना ही जीवन (350 से 467 ईसवी ) गुप्त साम्राज्य का भी था , परन्तु वह अपने अन्यतम विस्तार के समय भी भोज महेंद्रपाल के साम्राज्य विस्तार से छोटा ही था । हर्ष का साम्राज्य प्रतिहारों जैसा न तो विस्तृत था, न दीर्घकालीन और न प्रशासन में ही उतना सुसंगठित था। दीर्घ जीवन में भारतवर्ष का यदि कोई अन्य साम्राज्य प्रतिहार साम्राज्य का सामना कर सका तो वह मुगल साम्राज्य था ।”
    इतने विस्तृत व सुसंगठित साम्राज्य के निर्माता गुर्जर प्रतिहार वंश के प्रतापी शासकों को इतिहास में सम्मानपूर्ण स्थान मिलना समय की आवश्यकता है।

  • Madhy Prdesh News : पूर्व केंद्रीय मंत्री हरि किशोर सिंह की 9वीं पुण्यतिथि मनाई 

    Madhy Prdesh News : पूर्व केंद्रीय मंत्री हरि किशोर सिंह की 9वीं पुण्यतिथि मनाई 

    Madhy Prdesh News : सांसद अनिल हेगड़े ने किया शिवहर के ग्राम चमनपुर में मूर्ति का अनावरण, एक बार फिर देश  बिहार को आशा की नजर से देख रहा है : अनिल हेगड़े

    शिवहर के पूर्व सांसद हरिकिशोर सिंह जी के पैतृक गांव शिवहर जिले के चमनपुर में उनकी मूर्ति का अनावरण  जनता दल यू के राज्य सभा सांसद श्री अनिल हेगड़े द्वारा किया गया. 

    समाजवादी विचारधारा के प्रख्यात नेता, कुशल प्रशासक और लोकप्रिय राजनेता हरिकिशोर सिंह वीपी सिंह जी के मंत्रिपरिषद में विदेश राज्य मंत्री रहे. 1997 में उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री आइ के गुजराल ने सीरिया में भारत का राजदूत नियुक्त किया था. अपने छात्र जीवन से ही, चाहे बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी का दौर रहा हो या ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी का दौर, हरिकिशोर सिंह समाजवादी आंदोलन में सक्रिय रहे. उनपर आजीवन आचार्य नरेंद्र देव का गहरा प्रभाव रहा. 60 के दशक के आरंभ में वे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की यूथ विंग – समाजवादी युवजन परिषद – के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे थे।
    उनके लंबे प्रशासनिक और राजनैतिक अनुभव का लाभ लगातार समाजवादी आंदोलन और देश को मिलता रहा था. सरल व्यक्तित्व के धनी और विदेश मामलों के गहन जानकार हरिकिशोर सिंह ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के इतिहास के साथ साथ देश-परदेश जैसी पुस्तकें भी लिखी थी, इसमें समाजवादी आंदोलन और इसमें आचार्य नरेंद्र देव और डॉ. लोहिया की भूमिका,  खाड़ी देशों की समस्या, भारत की विदेश नीति व अमेरिका की राजनीतिक हालात पर विस्तार से चर्चा की थी. स्वर्गीय हरिकिशोर सिंह का निधन 9 साल पहले यानी 28 अगस्त 2013 को हृदयाघात से हो गया था. लेकिन उनकी स्मृतियां आज भी देश के समाजवादी विचारधारा के लोगों की स्मृतियों में ताजा है.
    आज उनकी प्रतिमा के अनावरण के मौके पर सांसद अनिल हेगड़े के अलावा स्व. सिंह की धर्मपत्नी श्रीमती प्रतिभा सिंह, बिहार सरकार के मंत्री सुमित कुमार सिंह, शिवहर की सांसद रमा देवी, बेलसंड के विधायक संजय कुमार गुप्ता उपस्थित थे.
    सांसद अनिल हेगड़े ने कहा कि हरि किशोर सिंह देश के समाजवादियों और युवा पीढ़ियों को सदा प्रेरणा देते रहेंगे । उन्होंने कहा कि बिहार में हुआ राजनीतिक बदलाव देश की राजनीति को प्रभावित करेगा । उन्होंने कहा कि महागठबंधन की सरकार बनने के बाद देश एक बार फिर बिहार की तरफ देख रहा है।
  • अरुण तुम्हारी याद बरकरार है !

    अरुण तुम्हारी याद बरकरार है !

    साथी रमाशंकर सिंह ने अरुण जेटली को याद करते हुए उसके याराना, खुलूस,मोहब्बत,अपनेपन मुखालिफ विचारधारा,पार्टी में रहने,भाजपा तथा मुल्क के इस दौर के पहली कतार के कद्दावर नेता होने के बावजूद संबंधों की गर्माहट पर रमा की छोटी सी इस पोस्ट में बहुत कुछ लिख दिया है।

    दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र जीवन से लेकर दिल्ली की तिहाड़ जेल के लंबे कारावास तथा बाद में जनता पार्टी में एक साथ काम करने के की अनोखी, अनेकों यादें हैं। फिर कभी विस्तार से लिखूंगा। फिलहाल उसको याद करते हुए खालीपन महसूस हो रहा है।

    यह उन लंबी मुलाक़ातों में शायद आखिरी थी दो बरस पहले जब अरुण के घर सर्दी की दोपहर वे सब दोस्त इकट्ठे हुये थे जो 1969 से 1977 तक के साथी थे तमाम आंदोलनों में संघर्षों में । फिर सब अपने अपने दलों या पेशों में सक्रिय हो गये पर जब कहीं शादी ब्याह सामाजिक मिलन में मिलते तो ऐसे कि जैसे अंतरंग मित्रों को मिलना चाहिये और फ़ौरन यह तय हो जाता कि जल्दी ही किसके घर कब मिलना है !

    राजनीतिक स्थितियों और मत भिन्नता से कभी अंतर नहीं पडा। न हमने आलोचना छोड़ी और न ही किसी ने प्यार से मिलना जुलना। अभी वह सुना जिसका खटका कई दिनों से मन में लगा हुआ था! अरुण कई दिनों से जीवनसहाय सिस्टम पर थे। ढेर बीमारियॉं पल गयीं थीं पर किसी भी क्षण मानसिक शिथिलता व स्मृतिलोप नहीं देखा। अरुण का सर्वश्रेष्ठ रूप बहसों में दिखाई देता था और एकदम स्वत: स्फूर्त । चाहे वह बहस अदालत में हो या संसद में । ज्यादा तैयारी नहीं करनी पड़ती थी , सब याद रहता था आँकड़े ,तारीख़, पृष्ठसंख्या,संदर्भ बगैरह सब। अन्यों को कमतर समंझना और कह देना भी उनकी विशेष आदत थी।
    बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि अरुण जैटली का सही उत्थान भाजपा के कारंण नहीं बल्कि वीपी सिंह के समय शुरु हुआ जिसके बाद मिली ख्याति के कारण भाजपा ने भुनाया।
    भाजपा में वे अकेले व्यक्ति थे जो गैरभाजपा दलों में भी राजनीतिक सहमतियॉं बनाने का कौशल रखते थे ।
    बहरहाल भाजपा में प्रतिभा का अकाल और बढ गया है ।
    अरुण ! आ रहा हूँ दिल्ली तुम्हें अंतिम बार यह कहने कि मैं तुमसे आज फिर असहमत हूँ इतना जल्दी जाने पर । मेरी ही उम्र के तो हो !

    • राजकुमार जैन