ऋषि तिवारी
प्राचीनकाल से मनाया जाने वाला यह होलिकोत्सव ऐतिहासिक रूप से भी बहुत महत्त्व रखता है । ‘होली’ भारतीय संस्कृति की पहचान कराने वाला एक पुनीत पर्व है। यह पारस्परिक भेदभाव मिटाकर प्रेम व सदभाव प्रकट करने का एक सुंदर अवसर है, अपने दुर्गुणों तथा कुसंस्कारों की आहुति देने का एक यज्ञ है तथा अंतर में छुपे हुए प्रभुत्व को, आनंद को, निरहंकारिता, सरलता और सहजता के सुख को उभारने का उत्सव है। पूर्णिमा को होली की पूजा से पूर्व उन लकडियों की विशिष्ट पद्धति से रचना की जाती है । तत्पश्चात उसकी पूजा की जाती है । पूजा करने के उपरांत उस में अग्नि प्रदीप्त (प्रज्वलित) की जाती है ।
होली की रचना में गाय के गोबर से बने उपलों के उपयोग का महत्त्व :सनातन संस्कृति का अभिन्न अंग भारतीय देशी गाय अनादि काल से मानव को स्वस्थ, बुद्धिमान, बलवान व ओजस्वी-तेजस्वी बनाती रही है । देशी गायों में ककुद से लेकर रीढ़ के समानांतर ‘सूर्यकेतु’ नाड़ी रहती है, जिसमें सूर्य की ‘गौ’ नामक किरण प्रविष्ट होती है । जैसे मनुष्य में सुषुम्ना नाड़ी होती है, वैसी ही गाय में सूर्यकेतु नाड़ी होती है । देशी गाय के दूध, दही, मक्खन, घी, गोमूत्र एवं गोबर में भी स्वर्णांश पाया जाता है । स्वर्ण सर्वरोगहर, आरोग्य एवं दीर्घायु प्रदायक होता है ।
गौ-गोबर के कंडे से जो धूआँ निकलता है, उससे हानिकारक कीटाणु नष्ट होते हैं ।ज्योतिष में ऐसी मान्यता है कि जब हम गाय के गोबर के उपलों को किसी भी रूप में जलाते हैं तो उससे निकलने वाला धुँआ सभी नकारात्मक शक्तियों को दूर भगाने में मदद करता है । गाय के गोबर को बहुत पवित्र माना जाता है इसी वजह से इसके उपलों का उपयोग होलिका दहन में करना फायदेमंद है ।गाय के उपलों से अगर होलिका दहन किया जाए तो वातावरण में प्रदूषण नहीं फैलता बल्कि वातावरण शुद्ध, सात्विक होता है।