दीपक कुमार तिवारी।
नई दिल्ली/पटना। दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने इस्तीफा दे दिया। आम आदमी पार्टी की नेता आतिशी अब उनकी जगह दिल्ली की सीएम बनेंगी। अपनी पत्नी सुनीता केजरीवाल से अधिक भरोसा अरविंद ने आतिशी पर किया है। पर, ऐसे मौकों पर इस तरह के फैसलों का अनुभव अच्छा नहीं रहा है। लालू यादव को छोड़ दें तो नीतीश कुमार और हेमंत सोरेन को इसका अच्छा अनुभव नहीं रहा है। केजरीवाल को कैसा अनुभव होगा, यह समय बताएगा। लेकिन सवाल यही है कि लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार, हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल में सबसे चालाक नेता कौन साबित हुआ?
बिहार में दो बार ऐसे मौके आए, जब सीएम रहे नेताओं को सत्ता की चाबी दूसरों को देनी पड़ी। लालू यादव ने चारा घोटाले में जेल जाने से पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सौंप दी थी। उनका यह प्रयोग सफल रहा। दो दशक बाद नीतीश कुमार ने भी यही प्रयोग दोहराया। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में जब जेडीयू को सिर्फ दो सीटों पर जीत मिली तो नीतीश कुमार ने अपने भरोसेमंद साथी जीतन राम मांझी को सीएम बनाया और खुद 2015 के विधानसभा चुनाव की रणनीति बनाने में मशगूल हो गए। बाद में उन्हें मांझी से कुर्सी वापस लेने में जिस तरह पापड़ बेलने पड़े, उसका अनुभव उन्हें अब भी याद होगा।
लालू यादव की पार्टी आरजेडी के साथ रहते हुए भी झारखंड के सीएम हेमंत सोरेन ने उनका अनुसरण नहीं किया। वे भी नीतीश कुमार की ही तरह गलती कर बैठे। अपनी गलती का उन्हें नीतीश से भी अधिक खामियाजा भोगना पड़ा। हेमंत ने पार्टी के सीनियर लीडर और अपने परिवार के करीबी चंपई सोरेन को अपनी गिरफ्तारी के वक्त सीएम की कुर्सी सौंप दी। हालांकि वे चाहते तो अपनी पत्नी कल्पना सोरेन को कमान सौंप सकते थे। कल्पना का नाम तब बड़ी तेजी से मीडिया में उछला भी। नतीजा सबने देखा। चंपई ने हेमंत को बेल मिलने पर उनकी कुर्सी वापस तो कर दी, लेकिन इसे अपने अपमान से जोड़ कर उन्होंने पार्टी ही छोड़ दी। आज चंपाई सोरेन उनके लिए झारखंड में भाजपा के साथ मिल कर खतरे की घंटी बजा रहे हैं।
लालू यादव इस मामले में सबसे चालाक निकले। उन्हें जब लग गया कि चारा घोटाले में उनका जेल जाना निश्चित है तो आरजेडी विधायकों को विश्वास में लेकर अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सीएम बनवा दिया। इससे उन्हें रिमोट से सरकार चलाने का मौका तो मिल ही गया, पार्टी पर पकड़ भी बनी रही। आरजेडी के नेता अगर आज भी लालू परिवार के प्रति वफादार हैं तो इसकी मूल वजह पार्टी पर परिवार का कब्जा ही है। सत्ता का भी जब मौका मिलता है तो लालू परिवार के सदस्य ही सर्वाधिक लाभ उठाते हैं। शायद इसी तरह की रणनीति की वजह से लालू को राजनीति का चाणक्य भी कहा जाता है।
अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के सएम का फैसला करते समय नीतीश और हेमंत के अनुभवों का ध्यान में नहीं रखा। हालांकि उनके पास भी अपनी पत्नी सुनीता केजरीवाल को सीएम बनाने का विकल्प मौजूद था। अव्वल तो अरविंद केजरीवाल का इस्तीफा ही बेमौसम हुआ और दूसरे उन्होंने आतिशी पर अधिक भरोसा कर उन्हें सीएम बना दिया। आतिशी उनकी उम्मीदों और भरोसे पर कितनी खरी उतरती हैं, यह तो समय बताएगा, लेकिन बिहार-झारखंड के अनुभवों को देख कर संशय तो पैदा होता ही है। वैसे भी माना जाता है कि सियासत में कोई किसी का सगा नहीं होता। विश्वास न हो तो शरद पवार के परिवार को ही देख लें। परिवार के जिस सदस्य अजित पवार को उन्होंने अंगुली पकड़ कर राजनीति में चलना सिखाया, सत्ता के लिए उसी अजित पवार ने शरद को लंगड़ी मार दी।
बहरहाल, अब सवाल उठता है कि अरविंद केजरीवाल को बेमौसम इस्तीफे की जरूरत क्यों पड़ी। जब वे शराब घोटाले में जेल गए तो उस समय नैतिकता की मांग थी कि वे इस्तीफा दे देते। उन्होंने ऐसा नहीं किया। बेल पाकर जब जेल से रिहा हुए तो अचानक इस्तीफे वाले ज्ञान चक्षु क्यों खुल गए, वह भी महज पांच महीनों के लिए। सुप्रीम कोर्ट ने भले उन्हें पंगु बना दिया था, लेकिन सीएम पद छोड़ने की कोई शर्त भी नहीं रखी थी। केजरीवाल कहते हैं कि जेल जाते वक्त इस्तीफा देता तो उनके खिलाफ नैरेटिव बनाने में भाजपा कामयाब हो जाती। अब भाजपा को नैरिटिव बनाने का मौका नहीं मिलेगा। खैर, समय बताएगा कि केजरीवाल का यह फैसला उनके लिए नीतीश और हेमंत सोरेन की तरह सिरदर्द साबित होता है या उनकी रणनीति के अनुरूप सफलता देता है?