चरण सिंह
यदि कोई खाना खा रहा हो तो यह कहा जाता है कि उसको डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए। यदि यदि कोई व्यक्ति खाना खाते हुए मलबे में दब जाये तो समझ जाइये कि घटना कितनी दर्दनाक है। जी हां इसी तरह की एक घटना उत्तर प्रदेश के कन्नौज शहर की है। निर्माणाधीन लेंटर गिरने से खाना खाते हुए 40 मजदूर दब गए।
यह देश में हो क्या रहा है ? कहीं पर निर्माणाधीन पुल गिर जा रहा है तो कहीं पर निर्माणधीन मेट्रो और कहीं पर भगदड़ से हादसा हो जा रहा है और कहीं पर कोई चलते व्यक्ति को रौंद दे रहा है ऐसा लग रहा है कि जैसे देश में हादसों की बाढ़ सी आ गई हो। चिंतनीय बात यह है कि हादसों से किसी को कोई मतलब नहीं। लोग जमीनी मुद्दों को भूलकर हवाई मुद्दों में मस्त हैं।
इसमें दो राय नहीं कि राजनीतिक दलों ने तो लोगों को जाति और धर्म के नाम पर उलझा ही रखा ही है पर लोग क्या कर रहे हैं ? उन्हें भी न तो भ्रष्टाचार दिखाई दे रहा है और न ही बेरोजगारी। बस एक अनजान रास्ते पर दौड़े चले जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि जैसे आदमी की जान की कोई कीमत न रह गई हो।
समाज कितना उदासीन हो गया है उसका नजारा हाथरस में हुए हादसे को देखने के बाद लग गया था। एक बाबा दरबार लगाता था। उस बाबा के चरण धूल लेने के चक्कर में भगदड़ मच गई और 122 लोग मर गए। आगे दिन ऐसा लगा कि जैसे किसी पर कोई असर ही न हुआ हो। बवाल क्यों नहीं हुआ क्योंकि मामला वोटबैंक से जुड़ा था। यह बाबा दलित था और उसके अनुयाई भी दलित थे। चाहे विपक्ष की समाजवादी पार्टी रही हो या फिर सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी दोनों ओर से बाबा का बचाव किया गया। समाजवादी पार्टी ने तो बाबा के लिए काम करने वाले लोगों की गिरफ्तारी का भी विरोध किया था।
दिलचस्प बात तो यह है कि जिनके परिजन इस हादसे में लगे थे वे भी इसे मोक्ष की संज्ञा दे रहे थे। आज के आधुनिक दौर में लोग खुद अपनी जान के प्रति इतने उदासीन हो जाएंगे। इसकी कभी कल्पना भी नहीं की गई होगी। लोग अपनों को खोते जा रहे हैं और भूलते जा रहे हैं। एक दूसरे की पीड़ा को समझना, काम आना सामूहिकता को बढ़ावा देना जैसे लोग भूल ही गए हैं। आदमी के सामने एक आदमी दम तोड़ दे रहा है और उस पर कोई असर नहीं पड़ रहा है। इंतहा तो यह हो जा रही है कि लोग पीटते हुए, मरते हुए मदद मांगते हुए वीडियो तो बना ले रहे हैं पर किसी की मदद करने को तैयार नहीं। कहना गलत न होगा कि आज भी यदि कहीं थोड़ी बहुत संवेदनाएं बची हैं तो वह गरीब आदमी में ही बची हैं। पैसा तो आदमी को असंवेदीन बना दे रहा है।