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संविधान रक्षा के नाम पर उपद्रवियों का तांडव

 सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ भारत बंद के मायने क्या हैं?

दीपक कुमार तिवारी

पटना। विपक्ष संविधान की दुहाई देते नहीं थकता। नरेंद्र मोदी पर संविधान के साथ छेड़छाड़ का आरोप लगाता है। पर, हकीकत इसके ठीक उलट है। सभी जानते हैं कि संविधान के तहत ही सुप्रीम कोर्ट की स्थापना हुई है। इसे सरकार से ऊपर का दर्जा हासिल है। आम आदमी के लिए तो सुप्रीम कोर्ट भगवान के मंदिर से कम मान नहीं रखता। जब आदमी प्रशासन या सरकार से न्याय की उम्मीद खो देता है तो वह अदालतों की शरण में जाता है। अदालतों में सर्वोच्च सुप्रीम कोर्ट है। उसे तो बड़े देवालय का मान आम आदमी के मन में है। पर, राजनीतिक दलों के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले भी संदिग्ध हो जाते हैं। जी हां, अगर ऐसा नहीं होता तो अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण में वर्गीकरण के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सड़क पर विरोध नहीं होता।

विपक्षी दलों के गठबंधन इंडिया ब्लाक ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर बवाल मचाया है। आज (बुधवार) देश भर में विपक्ष ने इस फैसले के खिलाफ बंद रखा। बंद सफल रहा या विफल यानी जनता का इसे समर्थन मिला या विरोध हुआ, हमारी चिंता का मूल यह नहीं है। सूचनाओं के मुताबिक बंद से लोगों को तकलीफ जरूर हुईं। बिहार में कई स्थानों पर ट्रेनें रोकी गईं। लोग रेल पटरियों पर बैठ गए। देश के दूसरे हिस्सों में भी बंद से थोड़ी-बहुत परेशानी लोगों को झेलनी पड़ी। विपक्ष इस पर इतरा भी रहा होगा। बंद की सफलता के दावे विपक्ष करेगा तो सत्ता पक्ष इसे जनता द्वारा खारिज किए जाने का प्रतिदावा करेगा। पर, समस्या बंद की सफलता या विफलता को लेकर नहीं है।
जिन राजनीतिक दलों को संवैधानिक व्यवस्था पर आपत्ति है, उससे आप संविधान की रक्षा की उम्मीद कैसे कर सकते हैं। अदालतों में जब कोई मामला चल रहा होता है या अदालतें कोई फैसला सुनाती हैं तो उस पर किसी तरह की टीका-टिप्पणी न करने का ज्ञान अब तक सबको दिया जाता रहा है। विपक्ष भी नरेंद्र मोदी को संविधान के साथ छेड़छाड़ करने का आरोप लगा कर दलील देता रहा है कि उसके ही हाथ में संविधान सुरक्षित है। इस मुद्दे पर विपक्ष का प्रहसन तो ऐसा कि सभाओं से लेकर संसद में शपथ ग्रहण तक विपक्षी नेता संविधान की प्रतियां लेकर लहराते हैं।
उनकी जेबों या बैग में संविधान की प्रति ऐसे हमेशा साथ रहती है, जैसे कभी भूत पूर्व पीएम विश्वनाथ प्रताप सिंह बोफोर्स घोटाले बाजों के नाम-नंबर का कागज जेब में लेकर घूमते थे। उन्होंने वह कागज कभी किसी को नहीं दिखाया या दिया, लेकिन दावा जरूर करते थे कि उनके पास घोटालेबाजों के तमाम ब्यौरे की फेहरिस्त पास है।
संविधान में शासन, प्रशासन और न्याय के लिए तीन अंगों की व्यवस्था के बारे में राजनीति शास्त्र का कोई भी विद्यार्थी जानता है। यहां तक कि देश की बहुतायत जनता को भी इस व्यवस्था के बारे में बेहतर पता है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में सर्वोच्च स्थान न्यायपालिका को मिला है। दुनिया में भारतीय न्याय व्यवस्था का आदर भी है। इसका एक ही उदाहरण काफी होगा। देश का प्रधानमंत्री रहते इंदिरा गांधी का चुनाव हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट से भी उन्हें कोई बड़ी राहत नहीं मिली। न्यायपालिका को पंगु बनाने के लिए उसके बाद इंदिरा गांधी ने क्या किया, वह 50 पार उम्र वाले सभी लोग जानते हैं।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है, उस पर आपत्ति का निवारण भी न्यायिक तौर पर ही संभव है। इसमें संविधान प्रिय कोई ईमानदार सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती। सरकार करेगी तो फिर वह इंदिरा गांधी के कारनामों की ही पुनरावृत्ति मानी जाएगी, जिसके लिए केंद्र सरकार ने आपातकाल की बरसी को संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। जनता को इस पर सोचना होगा कि संविधान के साथ छेड़छाड़ की नियत किसकी है। क्या नरेंद्र मोदी की सरकार न्यायपालिका को लाचार बनाना चाहती है, जैसा विपक्ष आरोप लगाता रहा है या वे विपक्षी जो संविधान रक्षा की शपथ दोहराते थकते नहीं।

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