चरण सिंह राजपूत
नई दिल्ली/लखनऊ। उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा की लंबे समय तक चली कड़ुवाहट का यह असर पड़ा है कि यादव और दलित एक दूसरे से मिलना तो दूर देखना भी पसंद नहीं करते हैं। एक बार को यादव भले ही मायावती के दिये घाव भूल जाएं पर दलित मुलायम सिंह यादव के दिये गये घावों को नहीं भूलते हैं। यह बात २०१९ के लोकसभा चुनाव में बसपा और सपा के गठबंधन में भी देखने को मिला थी। यादवों ने तो दलित प्रत्याशियों को वोट दे दिये थे पर दलितों ने सपा उम्मीदवारों को वोट नहीं दिये थे। यह बात दलितों के नेता के रूप में उभर रहे चंद्रशेखर आजाद के गठबंधन को अखिलेश यादव से मिलने के प्रयास में भी देखने को मिली है। चंद्रशेखर के लाख प्रयास के बावजूद अखिलेश यादव ने गठबंधन नहीं किया। यह टीस चंद्रशेखर आजाद के बयान में भी देखने को मिली है।
भीम आर्मी के संस्थापक और आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद गठबंधन के लिए सपा के राष्ट्रीय अखिलेश यादव का चक्कर लगा रहे थे पर बात नहीं बनी। अब चंद्रशेखर ने अखिलेश यादव पर खीज निकालते हुए साफ़ कर दिया है कि दोनों पार्टियों का गठबंधन नहीं होगा।
चंद्रशेखर आजाद ने बाकायदा प्रेस कांफ्रेंस कर कहा कि मेरी अखिलेश यादव से गत 6 महीनों में काफी मुलाकातें हुई हैं। इस बीच सकारात्मक बातें भी हुई हैं पर अंत समय में मुझे लगा कि अखिलेश यादव को दलितों की ज़रूरत नहीं है। वह इस गठबंधन में दलित नेताओं को नहीं चाहते। वह चाहते हैं कि दलित उनको वोट करें, लेकिन डर यह था कि कांशीराम ने पहले भी नेताजी को मुख्यमंत्री बनाया लेकिन जो हुआ वो सबके सामने है।
दरअसल चंद्रशेखर आजाद से गठबंधन करने के बाद सपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई सीटें आजाद समाज पार्टी को देनी होती। भाजपा से टूटकर आये कई ओबीसी नेताओं के टिकट एडजस्ट करने में अखिलेश यादव को पसीने आ रहे हैं। अखिलेश यादव भी जानते हैं कि दलितों का वोट सपा को नहीं मिलता है। वैसे भी चंद्रशेखर आजाद के अलग से लड़ने से ही सपा को फायदा है। इस लड़ाई में दलित वोटबैंक बंटना बहुत जरुरी है। मायावती की मजबूती सपा गठबंधन के लिए खतरा है। इसका बड़ा कारण है कि सरकार बनाने में बसपा किसी भी सूरत में सपा का साथ नहीं दे सकती है, जबकि बसपा और भाजपा का गठबंधन कई बार हो चुका है।