जॉर्ज फर्नांडीस ने ठीक ही कहा था कि भारत का सबसे बड़ा दुश्मन चीन है!

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अनिल जैन
भारत के खिलाफ चीन के हौसले लगातार बढ़ते जा रहे हैं। उसने लद्दाख में अपना दबाव बढ़ाने के बाद अब एक बार फिर अरुणाचल प्रदेश भारत की संप्रभुता को चुनौती देने का सिलसिला तेज कर दिया है। उसने अरुणाचल प्रदेश में 15 स्थानों पर अपना दावा जताते हुए उनके नाम बदल दिए हैं। गौरतलब है कि अरुणाचल प्रदेश को तो चीन लंबे समय से तिब्बत का यानी अपनी हिस्सा मानता रहा है लेकिन लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश बना देने के बाद से उसने लद्दाख के इलाकों पर भी अपना दावा जताना शुरू कर दिया है। यही नहीं, पिछले दिनों भारतीय सांसदों के एक प्रतिनिधिमंडल ने तिब्बती नेताओं से मुलाकात की तो उस पर भी चीनी दूतावास ने सीधे सांसदों को पत्र लिख कर ऐतराज जताया है।
भारत में शहरों, जिलों, सड़कों, गलियों, चौक-चौराहों, स्टेडियमों और रेलवे स्टेशनों के नाम बदलने को ही विकास मानने वाली सरकार चीन की इस कारगुजारी पर शर्मनाक चुप्पी साधे बैठी है। उसकी ओर से ऐसा कोई बयान नहीं आया है, जिसमें चीन को उसकी इस हरकत के लिए सबक सिखा देने की चेतावनी दी गई हो। भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने सिर्फ इतना कहा है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा, गढ़े गए नामों से कुछ नहीं होगा।
भारत सरकार का यह दोहराना तो वाजिब है कि अरुणाचल प्रदेश भारत का अभिन्न अंग है और आगे भी रहेगा, लेकिन इतना कहने भर से बात खत्म नहीं हो जाती। क्योंकि चीन ने भारतीय भू भाग को अपना बताने संबंधी कोई बयान नहीं दिया है, जिसके जवाब में भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के बयान दे देने से काम चल जाएगा।
यह चीन का एक निर्णायक कदम है, जिसका भारत सरकार के शीर्ष स्तर से प्रतिकार किया जाना चाहिए। भारत ने 2017 में भी ऐसा नहीं किया था, इसलिए चीन की हिम्मत बढ़ी। अगर अब भी कुछ नहीं किया गया तो चीन ने जिन जगहों के नाम बदले हैं, उन पर वह अपना दावा मजबूत करेगा।
चीन की ताजा हरकत पर भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता का बयान इसलिए भी नाकाफी है, क्योंकि इस बयान के तुरंत बाद चीन के सरकार समर्थक अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने चीनी विदेश मंत्रालय के एक पुराने दस्तावेज को प्रकाशित किया, जिसमें कहा गया था कि चीन ने कभी ‘तथाकथित’ अरुणाचल प्रदेश को मान्यता नहीं दी। बहरहाल, इस गरमाए माहौल के बीच यह खबर भी आई कि नए साल के मौके पर लद्दाख क्षेत्र में दस जगहों पर भारतीय और चीनी सैनिकों ने मिठाइयों का आदान-प्रदान किया। जिन दस जगहों के नाम आए, उनमें बोटलनेक भी है। सुरक्षा विशेषज्ञों को इस नाम ने चौंकाया है। उन्होंने सवाल उठाया है कि क्या यह भारत सरकार की पहली स्वीकृति है कि देपसांग इलाके में इस जगह तक चीनी घुस आए हैं?
वैसे लद्दाख के बारे में भारत सरकार का आधिकारिक रुख अब तक यही है कि ”न कोई घुसा था, न कोई घुसा हुआ है और न ही किसी ने किसी भारतीय चौकी पर कब्जा जमा रखा है।’’ यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल जून महीने में सर्वदलीय बैठक में तब कही थी, जब गलवान घाटी में भारत और चीन के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई थी, जिसमें भारत के 20 जवान शहीद हुए थे। हालांकि अनेक भारतीय विशेषज्ञ प्रधानमंत्री मोदी की इस बात से आज भी सहमत नही हैं।

बहरहाल, चीन का ताजा रवैया भारत के रक्षा मंत्री रहे दिवंगत समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीस की उस चेतावनी की याद दिलाता है, जिसमें उन्होंने चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था।
बात दो दशक से भी ज्यादा पुरानी है। तब भी केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी उसका नेतृत्व कर रहे थे। कश्मीर में पाकिस्तान पोषित आतंकवाद भी जारी था और सीमा पर पाकिस्तानी सेना की ओर से संघर्ष विराम का उल्लंघन करते हुए उकसाने वाली कार्रवाइयां भी हो रही थीं। उन्हीं दिनों मई 1998 में वाजपेयी सरकार ने ‘पोकरण टू’ परमाणु परीक्षण किया था, जिसकी वजह से अमेरिका ने भारत को काली सूची में डाल दिया था। उस परमाणु विस्फोट के बाद ही एनडीए सरकार के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस ने अपने एक चौंकाने वाले बयान में सामरिक दृष्टि से चीन को भारत का दुश्मन नंबर एक करार दिया था।
जार्ज का यह बयान निश्चित ही किन्हीं ठोस सूचनाओं पर आधारित रहा होगा, जो रक्षा मंत्री होने के नाते उन्हें हासिल हुई होगी। लेकिन उनका यह बयान कई लोगों को रास नहीं आया था। उनके ही कई साथी मंत्रियों ने उनके इस बयान पर नाक-भौं सिकोड़ी थीं। आज की तरह उस समय भी कांग्रेस विपक्ष में थी और उसे ही नहीं बल्कि एनडीए की नेतृत्वकारी भारतीय जनता पार्टी को तथा यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भी जार्ज का यह बयान नागवार गुजरा था। वामपंथी दलों को तो स्वाभाविक रूप से चीन के बारे में जार्ज की यह साफगोई नहीं ही सुहा सकती थी, सो नहीं सुहाई थी।
यह दिलचस्प था कि संघ और वामपंथियों के रूप में दो परस्पर विरोधी विचारधारा वाली ताकतें इस मुद्दे पर एक सुर में बोल रही थीं, ठीक वैसे ही जैसे दोनों ने अलग-अलग कारणों से 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का विरोध किया था। जार्ज के इस बयान के विरोध के पीछे भी दोनों की प्रेरणाएं अलग-अलग थीं। संघ परिवार जहां अपनी चिर-परिचित मुस्लिम विरोधी ग्रंथी के चलते पाकिस्तान के अलावा किसी और देश को भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा नहीं मान सकता था, वहीं वामपंथी दल चीन के साथ अपने वैचारिक बिरादराना रिश्तों के चलते जार्ज के बयान को खारिज कर रहे थे। कई तथाकथित रक्षा विशेषज्ञों और विश्लेषकों समेत मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी इसके लिए जार्ज की काफी लानत-मलामत की थी।
जार्ज अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन चीन को लेकर उनका आकलन समय की कसौटी पर बीते दो दशकों के दौरान कई बार सही साबित हुआ है। इस समय भी अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख में चीन की हरकतें जॉर्ज के कहे की तसदीक कर रही हैं।
वैसे न तो चीनी खतरा भारत के लिए नया है और न ही उससे आगाह करने वाले जार्ज अकेले राजनेता रहे। 2017 में चीन की सेना जब डोकलाम में कई किलोमीटर अंदर तक घुस आई थी, तब संयुक्त मोर्चा सरकार में रक्षा मंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने भी अपने अनुभव के आधार पर चीनी खतरे के प्रति सरकार को आगाह किया था। इस मसले पर लोकसभा में बहस के दौरान मुलायम सिंह ने दो टुक कहा था कि भारत की सुरक्षा को सबसे बड़ा खतरा चीन से ही है और सरकार उसे हल्के में न लें।
दरअसल, चीन ने जब तिब्बत पर कब्जा किया था, तब से ही वह भारत के लिए खतरा बना हुआ है। देश को सबसे पहले इस खतरे की चेतावनी डॉ. राममनोहर लोहिया ने दी थी। तिब्बत पर चीनी हमले को उन्होंने ‘शिशु हत्या’ करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि वे तिब्बत पर चीनी कब्जे को मान्यता न दें, लेकिन नेहरू ने लोहिया की सलाह मानने के बजाय चीनी नेता चाऊ एन लाई से अपनी दोस्ती को तरजीह देते हुए तिब्बत को चीन का अविभाज्य अंग मानने में जरा भी देरी नहीं की। यह वह समय था जब भारत को आजाद हुए महज 11 वर्ष हुए थे और माओ की सरपरस्ती में चीन की लाल क्रांति भी नौ साल पुरानी ही थी। हमारे पहले प्रधानमंत्री नेहरू तब समाजवादी भारत का सपना देख रहे थे, जिसमें चीन से युद्ध की कोई जगह नहीं थी। उधर, माओ को पूरी दुनिया के सामने जाहिर करना था कि साम्यवादी कट्टरता के मामले में वे लेनिन और स्टालिन से भी आगे हैं। तिब्बत पर कब्जा उनके इसी मंसूबे का नतीजा था।
इतना सब होने के बावजूद लगभग एक दशक तक भारत-चीन के बीच राजनयिक रिश्ते अच्छे रहे। दोनों देशों के शीर्ष नेताओं एक-दूसरे के यहां की कई यात्राएं कीं। लेकिन 1960 का दशक शुरू होते-होते चीनी नेतृत्व के विस्तारवादी इरादों ने अंगडाई लेना शुरू कर दिया और भारत के साथ उसके रिश्ते शीतकाल में प्रवेश कर गए। तिब्बत जब तक आजाद देश था, तब तक चीन और भारत के बीच कोई सीमा विवाद नहीं था, क्योंकि तब भारतीय सीमाएं सिर्फ तिब्बत से मिलती थीं। लेकिन चीन द्वारा तिब्बत को हथिया लिए जाने के बाद वहां तैनात चीनी सेना भारतीय सीमा का अतिक्रमण करने लगी। उन्हीं दिनों चीन द्वारा जारी किए गए नक्शों से भारत को पहली बार झटका लगा। उन नक्शों में भारत के सीमावर्ती इलाकों के साथ ही भूटान के भी कुछ हिस्से को चीन का भू-भाग बताया गया था। चूंकि इसी दौरान भारत यात्रा पर आए तत्कालीन चीनी नेता चाऊ एन-लाई नई दिल्ली में पंडित नेहरू के साथ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते हुए शांति के कबूतर उड़ा चुके थे, लिहाजा भावुक भारतीय नेतृत्व को भरोसा था कि सीमा विवाद बातचीत के जरिए निपट जाएगा। मगर, 1962 का अक्टूबर महीना भारतीय नेतृत्व के भावुक सपनों के ध्वस्त होने का रहा, जब चीन की सेना ने पूरी तैयारी के साथ भारत पर हमला बोल दिया। हमारी सेना के पास मौजूं सैन्य साजो-सामान का अभाव था, लिहाजा भारत को पराजय का कड़वा घूंट पीना पड़ा और चीन ने अपने विस्तारवादी नापाक मंसूबों के तहत हमारी हजारों वर्ग मील जमीन हथिया ली। इस तरह तिब्बत पर चीनी कब्जे के वक्त लोहिया द्वारा जताई गई आशंका सही साबित हुई।
चीन से मिले इस गहरे जख्म के बाद दोनों देशों के रिश्तों में लगभग डेढ दशक तक बर्फ जमी रही, जो 1970 के दशक के उत्तरार्ध में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनने पर कुछ हद तक हटी। दोनों देशों के बीच एक बार फिर राजनयिक रिश्तों की बहाली हुई। तब से लेकर अब तक दोनों देशों के बीच राजनयिक रिश्ते भी बने हुए हैं और पिछले दो दशकों के दौरान दोनों देशों के बीच व्यापार में भी 24 गुना इजाफा हो गया है। लेकिन इस सबके बावजूद चीन के विस्तारवादी इरादों में कोई तब्दीली नहीं आई है। कभी उसकी सेना हमारे यहां लद्दाख में घुस आती है, तो कभी सिक्किम में और कभी अरुणाचल में। अपने नक्शों में भी वह जब-तब इन इलाकों को अपना बता देता है। इस समय भी वह यही कर रहा है।

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