हैदराबाद, 1-7-1957
प्रिय मधु,
मुझे डॉ. अम्बेडकर से हुई और उनसे संबंधित चिट्ठी-पत्री मिल गई है, और मैं उसे तुम्हारे पास भिजवा रहा हूँ | तुम समझ सकते हो कि डॉ. अम्बेडकर की अचानक मौत का दुख मेरे लिए थोड़ा-बहुत व्यक्तिगत रहा है, और अब भी है | मेरी बराबर आकांक्षा थी कि वे हमारे साथ आएं, केवल संगठन में ही नहीं बल्कि पूरी तौर से सिद्धान्त में भी, और वह मौका करीब मालूम होता था |
में एक पल के लिए भी नहीं चाहूँगा कि तुम इस पत्र-व्यवहार को हम लोगों के व्यक्तिगत नुकसान की नजर से देखो | मेरे लिए डॉ. अम्बेडकर हिन्दुस्तान की राजनीति के एक महान आदमी थे और गांधी जी को छोड़कर, बड़े-से-बड़े स्वर्ण हिंदुओं के बराबर | इससे मुझे बराबर संतोष और विश्वास मिला है कि हिन्दू धर्म की जाती-प्रथा एक-न-एक दिन खत्म की जा सकती है |
में बराबर कोशिश करता रहा हूँ कि हिन्दुस्तान के हरिजनों के सामने एक विचार रखूं | मेरे लिए यह बुनियादी बात है | हिन्दुस्तान के आधुनिक हरिजनों में दो प्रकार हैं, एक डॉ. अम्बेडकर और दूसरे जगजीवन राम | डॉ. अम्बेडकर विद्वान थे, उनमें स्थिरता, साहस और स्वतंत्रता थी; वे बाहरी दुनिया को हिन्दुस्तान की मजबूती के प्रतीक के रूप में दिखाए जा सकते थे, लेकिन उनमें कटुता थी और वे अलग रहना चाहते थे | गैर-हरिजन के नेता बनने से उन्होंने इंकार किया | पिछले पांच हज़ार वर्ष की तकलीफ और हरिजनों पर उसका असर मैं भली प्रकार समझ सकता हूँ | लेकिन वास्तव में तो यही बात थी | मुझे आशा थी कि डॉ. अम्बेडकर जैसे महान भारतीय किसी दिन इससे ऊपर उठ सकेंगे | लेकिन इसके बीच मौत आ गई | श्री जगजीवन राम ऊपरी तौर पर हर हिन्दुस्तानी और हिन्दू के लिए सद्भावना रखते हैं और हालांकि स्वर्ण हिंदुओं से बातचीत में उनकी तारीफ और चापलूसी करते हैं पर यह कहा जाता है कि केवल हरिजनों की सभाओं में घृणा की कटु ध्वनि भी फैलाते हैं | इस बुनियाद पर न हरिजन और न हिन्दुस्तानी ही उठ सकता है | लेकिन डॉ. अम्बेडकर जैसे लोगों में भी सुधार की जरूरत है |
परिगणित जाति संघ के चलाने वालों को मैं अब नहीं जानता | लेकिन में चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान की परिगणित जाति के लोग देश की पिछली चालीस साल की राजनीति के बारे में विवेक से सोचें | में चाहूँगा कि श्रद्धा और सिख के लिए वे डॉ. अम्बेडकर को प्रतीक मानें, डॉ. अम्बेडकर की कटुता को छोड़कर उनकी स्वतंत्रता को लें, एक ऐसे डॉ. अम्बेडकर को देखें जो केवल हरिजनों के ही नहीं, बल्कि पूरे हिन्दुस्तान के नेता बनें |
सप्रेम तुम्हारा,
राममनोहर लोहिया