जनता के हित में तो नहीं है एक देश और एक चुनाव!’

चरण सिंह 

मोदी सरकार की कैबिनेट ने एक देश एक चुनाव के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। एक देश एक चुनाव प्रस्ताव को मंजूरी देने के बाद विपक्ष ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया है। विपक्ष का कहना है कि जब भी चुनाव आते हैं तभी भाजपा लोगों का ध्यान भटकाने के लिए अनाप-शनाप मुद्दे ले आती है।  एक देश एक चुनाव के पीछे सरकार का तर्क है कि बार-बार चुनाव होने से खर्च ज्यादा आता है। अधिक समय तक आचार संहिता लगी होने के कारण विकास अवरुद्ध होता है। वैसे तो कांग्रेस भी एक देश और एक चुनाव का विरोध कर रही है पर इसके लागू होने से क्षेत्रीय दलों को नुकसान हो सकता है। एक देश एक चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे हावी होने से उनके वजूद पर खतरा मंडरा सकता है। देश में एक साथ चुनाव होगा तो राष्ट्रीय मुद्दे हावी रहेंगे। क्योंकि क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय मुद्दे पर चुनाव लड़ते हैं, ऐसे में वे पिछड़ जाएंगे। यदि अब तक काम देखा जाए तो पता चलेगा कि अधिकतर जनता के काम चुनाव करीब आने के समय हुए हैं। जन प्रतिनिधि भी जनता की सुध चुनाव के समय ही लेते हैं। यदि देश में चुनाव एक साथ होने लगे तो जनता को कोई पूछने वाला नहीं है। क्योंकि चुनाव में काम की कोई अहमियत नहीं रह जाएगी। राष्ट्रीय मुद्दे हावी होने के चलते जनप्रतिनिधि अपने क्षेत्र में काम नहीं कराएंगे।
एक देश एक चुनाव के प्रस्ताव को कैबिनेट से पास करने के मामले पर यह तो कहा जा सकता है कि जब चुनाव आयोग चार राज्यों हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, झारखंड और महाराष्ट्र में एक साथ चुनाव न करा पाए तो पूरे देश के लोकसभा और विधानसभा चुनाव कैसे कर पाएंगे। जब केंद्र सरकार को यह प्रस्ताव कैबिनेट से पास करना ही था तो अच्छा संदेश देने के लिए जम्मू-कश्मीर और हरियाणा के साथ ही झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव भी कराने चाहिए थे। वैसे भी देश के आजाद होने के बाद 1952 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए थे। उसके बाद कई राज्यों के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ हुए पर उसके बाद धीरे-धीरे अलग-अलग चुनाव होने लगे।
एक देश एक चुनाव पर भाजपा इसलिए जोर दे रही है क्योंकि अधिकतर राष्ट्रीय मुद्दों को प्रधानमंत्री अपनी ओर मोड़ लेते हैं। क्योंकि केंद्र के साथ ही अधिकतर राज्यों में बीजेपी की ही सरकार है। ऐसे में बीजेपी चाहती है कि इसका फायदा उसे मिले। इसमें दो राय नहीं कि एक देश चुनाव से देश की जनता को कोई फायदा नहीं होने जा रहा है। जो सरकार काम करना चाहती है वह आचार संहिता का ही इंतजार क्यों करे। देश में लोकतंत्र के लिए एक से बढ़कर एक कानून है । बस इन कानून को अमली जामा पहनाने वाला शासक होना चाहिए। इसमें दो राय नहीं कि चुनाव ही होते हैं जिनके के चलते विधायक, सांसद और सरकारें कुछ काम करा देते हैं। नहीं तो पांच साल तक इनके पीछे भागते रहो।
एनडीए में शामिल अधिकतर दल मोदी सरकार के इस फैसले के साथ हैं तो विपक्ष में अधिकतर दल इसके विरोध में। बसपा पहले इसका विरोध कर रही थी आज की बैठक में बसपा ने इसका समर्थन कर दिया है। वैसे भी बसपा तो केंद्र सरकार के दबाव में काम कर रही है। जहां तक खर्च कर बात है तो यदि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग जाए तो काफी चुनाव जैसे खर्च की कोई अहमियत नहीं रहेगी। एक देश एक चुनाव में लोकसभा औेर विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की बात है। उसके 100 दिन बाद निकाय और पंचायत चुनाव कराये जा सकते हैं।

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