साथी रमाशंकर सिंह ने अरुण जेटली को याद करते हुए उसके याराना, खुलूस,मोहब्बत,अपनेपन मुखालिफ विचारधारा,पार्टी में रहने,भाजपा तथा मुल्क के इस दौर के पहली कतार के कद्दावर नेता होने के बावजूद संबंधों की गर्माहट पर रमा की छोटी सी इस पोस्ट में बहुत कुछ लिख दिया है।
दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र जीवन से लेकर दिल्ली की तिहाड़ जेल के लंबे कारावास तथा बाद में जनता पार्टी में एक साथ काम करने के की अनोखी, अनेकों यादें हैं। फिर कभी विस्तार से लिखूंगा। फिलहाल उसको याद करते हुए खालीपन महसूस हो रहा है।
यह उन लंबी मुलाक़ातों में शायद आखिरी थी दो बरस पहले जब अरुण के घर सर्दी की दोपहर वे सब दोस्त इकट्ठे हुये थे जो 1969 से 1977 तक के साथी थे तमाम आंदोलनों में संघर्षों में । फिर सब अपने अपने दलों या पेशों में सक्रिय हो गये पर जब कहीं शादी ब्याह सामाजिक मिलन में मिलते तो ऐसे कि जैसे अंतरंग मित्रों को मिलना चाहिये और फ़ौरन यह तय हो जाता कि जल्दी ही किसके घर कब मिलना है !
राजनीतिक स्थितियों और मत भिन्नता से कभी अंतर नहीं पडा। न हमने आलोचना छोड़ी और न ही किसी ने प्यार से मिलना जुलना। अभी वह सुना जिसका खटका कई दिनों से मन में लगा हुआ था! अरुण कई दिनों से जीवनसहाय सिस्टम पर थे। ढेर बीमारियॉं पल गयीं थीं पर किसी भी क्षण मानसिक शिथिलता व स्मृतिलोप नहीं देखा। अरुण का सर्वश्रेष्ठ रूप बहसों में दिखाई देता था और एकदम स्वत: स्फूर्त । चाहे वह बहस अदालत में हो या संसद में । ज्यादा तैयारी नहीं करनी पड़ती थी , सब याद रहता था आँकड़े ,तारीख़, पृष्ठसंख्या,संदर्भ बगैरह सब। अन्यों को कमतर समंझना और कह देना भी उनकी विशेष आदत थी।
बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा कि अरुण जैटली का सही उत्थान भाजपा के कारंण नहीं बल्कि वीपी सिंह के समय शुरु हुआ जिसके बाद मिली ख्याति के कारण भाजपा ने भुनाया।
भाजपा में वे अकेले व्यक्ति थे जो गैरभाजपा दलों में भी राजनीतिक सहमतियॉं बनाने का कौशल रखते थे ।
बहरहाल भाजपा में प्रतिभा का अकाल और बढ गया है ।
अरुण ! आ रहा हूँ दिल्ली तुम्हें अंतिम बार यह कहने कि मैं तुमसे आज फिर असहमत हूँ इतना जल्दी जाने पर । मेरी ही उम्र के तो हो !
- राजकुमार जैन