अदालत ने कहा कि सार्वजनिक संपत्तियों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए जारी इन नोटिसों ने इसके दो पूर्व के फैसलों का उल्लंघन किया जिसमें किसी अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट को इस तरह की कार्यवाही पर कोई फैसला करने से रोक दिया गया था
द न्यूज 15
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दिसंबर 2019 में सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सार्वजनिक संपत्तियों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए नोटिस जारी करने और बाद में इनके आधार पर आगे की कार्रवाई करने की कवायद पर सवाल खड़े किये। अदालत ने कहा कि इस प्रकार के नोटिस उसके पूर्व में दिए गए दो फैसलों का उल्लंघन करते हैं जिसमें किसी अतिरिक्त जिला न्यायाधीश (एडिशनल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट-एडीएम) को ऐसी कार्यवाही पर कोई फैसला करने से रोक दिया गया था।
न्यायमूर्ति डीवाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने यूपी सरकार के वकील और अतिरिक्त महाधिवक्ता (एडिशनल एडवोकेट जनरल) गरिमा प्रसाद से इन नोटिसों को वापस लेने के लिए कहा और साथ ही यह भी कहा कि ऐसा नहीं करने पर अदालत स्वयं उन्हें कानून का उल्लंघन करने की वजह से रद्द कर देगी।
एडवोकेट जनरल प्रसाद के अनुसार बड़े पैमाने पर हुए सीएए विरोधी प्रदर्शनों के बाद उत्तर प्रदेश में 833 दंगाइयों के खिलाफ 106 FIR दर्ज की गईं थी। इन्हीं के तहत उन लोगों के खिलाफ 274 वसूली नोटिस जारी किये गए जिन पर भीड़ का हिस्सा होने का आरोप लगाया गया था। उन्होंने अदालत को बताया कि इस आंदोलन के दौरान 400 से अधिक पुलिसकर्मी घायल हो गए थे। जारी किए गए 236 नोटिसों (274 में से) पर वसूली आदेश पारित किए गए, जबकि शेष 38 मामलों बंद कर दिए गए। इन सभी कार्यवाहियों को एक दावा न्यायाधिकरण (क्लेम ट्रिब्यूनल) के समक्ष किया गया था, जिसकी अध्यक्षता एक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने की थी। प्रसाद ने अदालत को बताया अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट यूपी में अब एक नया कानून है जिसे 2020 में अधिनियमित किया गया था और जिसके अनुसार एक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ऐसे किसी भी दावा न्यायाधिकरण का नेतृत्व करता है। इसके बाद अदालत ने प्रसाद को यह याद दिलाया कि सीएए के विरोध प्रदर्शनों से संबंधित कार्यवाही नए कानून के लागू होने से पहले ही शुरू कर दी गई थी और यह 2009 और 2018 में पारित सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों के अनुरूप नहीं थी। इन दोनों फैसलों में कहा गया है कि ऐसे दावा न्यायाधिकरणों में सिर्फ न्यायिक अधिकारियों को ही नियुक्त किया जाना चाहिए।
याचिकाकर्ता परवेज आरिफ टीटू द्वारा कथित प्रदर्शनकारियों को भेजे गए इन नोटिसों को रद्द करने की मांग के साथ दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पीठ ने कहा, ‘इस कार्यवाही को वापस ले लें नहीं तो हम स्वयं इस अदालत द्वारा निर्धारित कानून के उल्लंघन के लिए इसे ख़ारिज कर देंगे.’ टीटू ने आरोप लगाया है कि इनमें से एक नोटिस एक ऐसे व्यक्ति के खिलाफ ‘मनमाने तरीके’ से भेजा गया था, जिनकी छह साल पहले 94 साल की उम्र में मौत हो गई थी और साथ ही 90 साल से अधिक उम्र के दो लोगों सहित कई अन्य लोगों को भी ऐसे ही नोटिस भेजे गए थे।
अदालत ने यूपी को सरकार को आखिरी मौका देते हुए कहा कि राज्य सरकार कानून की उचित प्रक्रिया को पलट नहीं सकती। मामले की अगली सुनवाई के लिए 18 फरवरी की तारीख तय की गई है। यह कहते हुए कि यूपी जैसे बड़े राज्य में 236 नोटिस कोई बड़ी बात नहीं है, पीठ ने प्रसाद से कहा, ‘हम आपको बताएंगे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का पालन कैसे किया जाना चाहिए.’, अदालत ने कहा, ‘आप कलम की एक हरकत से इन्हें वापस ले सकते हैं. अगर आप फिर भी सुनने को राजी नहीं हैं तो परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें.’ प्रसाद ने अपनी सरकार की कार्यवाही का बचाव किया, जिसके बारे में उन्होंने तर्क दिया कि दावा न्यायाधिकरणों की सारी कार्यवाही 2011 के एक सरकारी आदेश के अनुसार आयोजित की गई थी। मगर, उनके इस तर्क को खारिज कर दिया गया और पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस आदेश का हवाला दिया, जिसने इस आदेश को अस्वीकृत कर दिया था।
अदालत ने कहा, ‘आपने एक नया क़ानून लाने का वादा किया था, लेकिन इसमें आपको 8-9 साल लग गए, प्रसाद ने अदालत से टीटू की याचिका पर विचार नहीं करने का आग्रह किया, क्योंकि कई अन्य आरोपियों, जिनके खिलाफ वसूली के नोटिस जारी किए गए थे, ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है जहां इसके बारे में लंबी सुनवाई हुई है.
फिर एडवोकेट प्रसाद ने तर्क दिया कि इसके अलावा 2011 के बाद से हुए दंगों से संबंधित कार्यवाही भी इसी न्यायाधिकरण के समक्ष लंबित है. यदि अदालत वर्तमान याचिका पर विचार करती है, तो अन्य लोग भी राहत के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने स्पष्ट किया कि इसका किसी अन्य कार्यवाही से कोई सम्बन्ध नहीं है और यह केवल सीएए विरोधी प्रदर्शनों से संबंधित है. पीठ ने कहा, ‘आप हमारे आदेशों को दरकिनार नहीं कर सकते, ये कार्यवाहियां इस अदालत द्वारा निर्धारित कानूनों के विपरीत थी। (दि प्रिंट से साभार)
न्यायमूर्ति डीवाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने यूपी सरकार के वकील और अतिरिक्त महाधिवक्ता (एडिशनल एडवोकेट जनरल) गरिमा प्रसाद से इन नोटिसों को वापस लेने के लिए कहा और साथ ही यह भी कहा कि ऐसा नहीं करने पर अदालत स्वयं उन्हें कानून का उल्लंघन करने की वजह से रद्द कर देगी।
एडवोकेट जनरल प्रसाद के अनुसार बड़े पैमाने पर हुए सीएए विरोधी प्रदर्शनों के बाद उत्तर प्रदेश में 833 दंगाइयों के खिलाफ 106 FIR दर्ज की गईं थी। इन्हीं के तहत उन लोगों के खिलाफ 274 वसूली नोटिस जारी किये गए जिन पर भीड़ का हिस्सा होने का आरोप लगाया गया था। उन्होंने अदालत को बताया कि इस आंदोलन के दौरान 400 से अधिक पुलिसकर्मी घायल हो गए थे। जारी किए गए 236 नोटिसों (274 में से) पर वसूली आदेश पारित किए गए, जबकि शेष 38 मामलों बंद कर दिए गए। इन सभी कार्यवाहियों को एक दावा न्यायाधिकरण (क्लेम ट्रिब्यूनल) के समक्ष किया गया था, जिसकी अध्यक्षता एक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ने की थी। प्रसाद ने अदालत को बताया अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट यूपी में अब एक नया कानून है जिसे 2020 में अधिनियमित किया गया था और जिसके अनुसार एक अतिरिक्त जिला न्यायाधीश ऐसे किसी भी दावा न्यायाधिकरण का नेतृत्व करता है। इसके बाद अदालत ने प्रसाद को यह याद दिलाया कि सीएए के विरोध प्रदर्शनों से संबंधित कार्यवाही नए कानून के लागू होने से पहले ही शुरू कर दी गई थी और यह 2009 और 2018 में पारित सुप्रीम कोर्ट के दो फैसलों के अनुरूप नहीं थी। इन दोनों फैसलों में कहा गया है कि ऐसे दावा न्यायाधिकरणों में सिर्फ न्यायिक अधिकारियों को ही नियुक्त किया जाना चाहिए।
याचिकाकर्ता परवेज आरिफ टीटू द्वारा कथित प्रदर्शनकारियों को भेजे गए इन नोटिसों को रद्द करने की मांग के साथ दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पीठ ने कहा, ‘इस कार्यवाही को वापस ले लें नहीं तो हम स्वयं इस अदालत द्वारा निर्धारित कानून के उल्लंघन के लिए इसे ख़ारिज कर देंगे.’ टीटू ने आरोप लगाया है कि इनमें से एक नोटिस एक ऐसे व्यक्ति के खिलाफ ‘मनमाने तरीके’ से भेजा गया था, जिनकी छह साल पहले 94 साल की उम्र में मौत हो गई थी और साथ ही 90 साल से अधिक उम्र के दो लोगों सहित कई अन्य लोगों को भी ऐसे ही नोटिस भेजे गए थे।
अदालत ने यूपी को सरकार को आखिरी मौका देते हुए कहा कि राज्य सरकार कानून की उचित प्रक्रिया को पलट नहीं सकती। मामले की अगली सुनवाई के लिए 18 फरवरी की तारीख तय की गई है। यह कहते हुए कि यूपी जैसे बड़े राज्य में 236 नोटिस कोई बड़ी बात नहीं है, पीठ ने प्रसाद से कहा, ‘हम आपको बताएंगे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का पालन कैसे किया जाना चाहिए.’, अदालत ने कहा, ‘आप कलम की एक हरकत से इन्हें वापस ले सकते हैं. अगर आप फिर भी सुनने को राजी नहीं हैं तो परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें.’ प्रसाद ने अपनी सरकार की कार्यवाही का बचाव किया, जिसके बारे में उन्होंने तर्क दिया कि दावा न्यायाधिकरणों की सारी कार्यवाही 2011 के एक सरकारी आदेश के अनुसार आयोजित की गई थी। मगर, उनके इस तर्क को खारिज कर दिया गया और पीठ ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस आदेश का हवाला दिया, जिसने इस आदेश को अस्वीकृत कर दिया था।
अदालत ने कहा, ‘आपने एक नया क़ानून लाने का वादा किया था, लेकिन इसमें आपको 8-9 साल लग गए, प्रसाद ने अदालत से टीटू की याचिका पर विचार नहीं करने का आग्रह किया, क्योंकि कई अन्य आरोपियों, जिनके खिलाफ वसूली के नोटिस जारी किए गए थे, ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है जहां इसके बारे में लंबी सुनवाई हुई है.
फिर एडवोकेट प्रसाद ने तर्क दिया कि इसके अलावा 2011 के बाद से हुए दंगों से संबंधित कार्यवाही भी इसी न्यायाधिकरण के समक्ष लंबित है. यदि अदालत वर्तमान याचिका पर विचार करती है, तो अन्य लोग भी राहत के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने स्पष्ट किया कि इसका किसी अन्य कार्यवाही से कोई सम्बन्ध नहीं है और यह केवल सीएए विरोधी प्रदर्शनों से संबंधित है. पीठ ने कहा, ‘आप हमारे आदेशों को दरकिनार नहीं कर सकते, ये कार्यवाहियां इस अदालत द्वारा निर्धारित कानूनों के विपरीत थी। (दि प्रिंट से साभार)