डॉ. कल्पना पाण्डेय ‘नवग्रह’
आज ठंड ने छीन ली है आंखों से ज़िंदगी की धूप। धुआं-धुआं हो रहा है। सांसें घुट रही हैं। टुकड़ियों में अलाव को ढूंढते , सड़कों पर पड़े पुराने गत्तों, फटे कपड़ों, टायर -ट्यूब, कोलतार को जला, ख़ुद भी जलने को तैयार पर ठंड की महामारी को सहने की ताकत नहीं है।
पूरी ताकत चुनावी रैलियों में झोंक दी है। झूठ के पुलिंदे, दंभ भरी आवाजो़ं में विकास के मंत्र फूंक रहे हैं। गर्दन ऊंची करके आसमान पर बैठने वालों को, सड़कों से चिपकी ज़िदगियां नज़र नहीं आती । छोटे-छोटे दूधमुहे बच्चे, जिनका आधा बदन बाहर झांकता ,ढूंढता है अपनी ज़िंदगी का खोया विकास। अपने हिस्से के कपड़े, गर्म अलाव और फटी हुई चदरी में लिपटी मां के लिए थोड़े कपड़े।
यहां से वहां तक भीड़ ही भीड़ है। शोर सुनाई देता है झूठे नारों का, वादों का। चार लाइनों की किताबें बांटी जाती हैं। मुद्दा ज़ोरों का उछाला जा रहा है। प्रतिद्वंद्वियों की ज़िंदगियां निशाने पर हैं पर सिर्फ़ अपने स्वार्थ के लिए। समाज सेवा से उन्हें क्या लेना ? वही ब्रह्म का अंश सबमें है पर किसी को नहीं दिखाई देता । ठंड की मार सहते रहने के नाम पर बने दांत निपोरते आशियाने खूंखार कुत्तों के डेरे हैं। जो अपने भोजन की तलाश में रात के सन्नाटे के इंतज़ार में बैठे हैं ।असुरक्षित जीवन और त्रासदी झेल रहे अनगिनत ऐसे जीवन चौराहों पर खड़े अपने को नीलाम कर रहे हैं, ख़ुद को बेचने को मज़बूर हैं।
ठंड की ठिठुरन में ज़िंदगी धोखा दे जाती है। एक कंबल तक नसीब नहीं है। झुग्गियां ठंडी हवाओं के साए में कांप रही हैं। पर चुनाव की सरगर्मी में किसे इनकी याद है? अलाव की व्यवस्था मात्र ज़ुबानी है। अंधकार से भरी सड़कें और गलियां गुमनामी में उनके ठिठुरते बदनों को छुपाती हैं, जिन्हें सामने देख देश का विकास चिढ़ाता है। बड़े-बड़े वादे खोखलेपन से भरे, भरपूर कपड़ों से लदे, कहीं कहीं ज़रूरत से ज़्यादा भी ।पर दरियादिली नज़र नहीं आती। तूफ़ानी कड़ाके की सर्दी में पहरेदारों की तरह मौत को चुनौती देते, झुंड में खुले आसमान के नीचे सिकुड़े, बाहर आंखें निकाले, कंकाल ही सही पर अपनी हड्डियों का वज्र बना लड़ रहे हैं।
विकास विकास और विकास। दर-दर भटकते इन निरीह जानों की किसे है परवाह? क्यों बोझ ढोएं सरकारें? किसी महफ़िल ,सभा की शोभा नहीं है ये। इन्हें हिंदू मुसलमान सिख इसाई के भेद का भी नहीं पता। इनकी भूखी आत्मा भरपेट भोजन के अलावा कुछ नहीं जानती। मुस्कुराने के लिए एक ही वक़्त काफ़ी है । रौंदते हुए शहंशाह चले जाते हैं। गाने, बाजे,नगाड़ों के साथ बहरों और अंधों की तरह । उन्हें किसी ऐसे का साथ नहीं चाहिए जो धब्बे की तरह दाग़ बन जाए ।बीमार मानसिकता के धनी किसके मन की पढ़ पाएंगे? गली-गली पर्चे बांटते, हाथ जोड़ते उन हाथों को क्यों नहीं थामते जिन्हें उनकी ज़रूरत है । एक कदम ही सही कुछ पल रुकके उन जगहों को क्यों नहीं देखते जिनमें इंसान ज़िंदगी की भीख मांग रहा है ? जीने का अधिकार उसे भी है पर सभ्य समाज ने उनसे छीन लिया। ठंड में चिल्लाती, चीखती, दर्दनाक आवाज़ें अट्टहास करती हैं। हमारे विकास की बौनी नज़रों को, जिन्हें समाज के प्रताड़ित आवाज़ें सुनाई नहीं देती । मन , ज़ुबान की गर्माहट की कमी बढ़ती जा रही है। ऐसे में अलाव का राग बेसुरा ही है। ठंड तुम्हें जाना होगा। तुम्हें तुम्हारे ईमान की कसम । तुम ही दरियादिली दिखाओ, सूरज को जगाओ धूप बरसाओ।
आज ठंड ने छीन ली है आंखों से ज़िंदगी की धूप। धुआं-धुआं हो रहा है। सांसें घुट रही हैं। टुकड़ियों में अलाव को ढूंढते , सड़कों पर पड़े पुराने गत्तों, फटे कपड़ों, टायर -ट्यूब, कोलतार को जला, ख़ुद भी जलने को तैयार पर ठंड की महामारी को सहने की ताकत नहीं है।
पूरी ताकत चुनावी रैलियों में झोंक दी है। झूठ के पुलिंदे, दंभ भरी आवाजो़ं में विकास के मंत्र फूंक रहे हैं। गर्दन ऊंची करके आसमान पर बैठने वालों को, सड़कों से चिपकी ज़िदगियां नज़र नहीं आती । छोटे-छोटे दूधमुहे बच्चे, जिनका आधा बदन बाहर झांकता ,ढूंढता है अपनी ज़िंदगी का खोया विकास। अपने हिस्से के कपड़े, गर्म अलाव और फटी हुई चदरी में लिपटी मां के लिए थोड़े कपड़े।
यहां से वहां तक भीड़ ही भीड़ है। शोर सुनाई देता है झूठे नारों का, वादों का। चार लाइनों की किताबें बांटी जाती हैं। मुद्दा ज़ोरों का उछाला जा रहा है। प्रतिद्वंद्वियों की ज़िंदगियां निशाने पर हैं पर सिर्फ़ अपने स्वार्थ के लिए। समाज सेवा से उन्हें क्या लेना ? वही ब्रह्म का अंश सबमें है पर किसी को नहीं दिखाई देता । ठंड की मार सहते रहने के नाम पर बने दांत निपोरते आशियाने खूंखार कुत्तों के डेरे हैं। जो अपने भोजन की तलाश में रात के सन्नाटे के इंतज़ार में बैठे हैं ।असुरक्षित जीवन और त्रासदी झेल रहे अनगिनत ऐसे जीवन चौराहों पर खड़े अपने को नीलाम कर रहे हैं, ख़ुद को बेचने को मज़बूर हैं।
ठंड की ठिठुरन में ज़िंदगी धोखा दे जाती है। एक कंबल तक नसीब नहीं है। झुग्गियां ठंडी हवाओं के साए में कांप रही हैं। पर चुनाव की सरगर्मी में किसे इनकी याद है? अलाव की व्यवस्था मात्र ज़ुबानी है। अंधकार से भरी सड़कें और गलियां गुमनामी में उनके ठिठुरते बदनों को छुपाती हैं, जिन्हें सामने देख देश का विकास चिढ़ाता है। बड़े-बड़े वादे खोखलेपन से भरे, भरपूर कपड़ों से लदे, कहीं कहीं ज़रूरत से ज़्यादा भी ।पर दरियादिली नज़र नहीं आती। तूफ़ानी कड़ाके की सर्दी में पहरेदारों की तरह मौत को चुनौती देते, झुंड में खुले आसमान के नीचे सिकुड़े, बाहर आंखें निकाले, कंकाल ही सही पर अपनी हड्डियों का वज्र बना लड़ रहे हैं।
विकास विकास और विकास। दर-दर भटकते इन निरीह जानों की किसे है परवाह? क्यों बोझ ढोएं सरकारें? किसी महफ़िल ,सभा की शोभा नहीं है ये। इन्हें हिंदू मुसलमान सिख इसाई के भेद का भी नहीं पता। इनकी भूखी आत्मा भरपेट भोजन के अलावा कुछ नहीं जानती। मुस्कुराने के लिए एक ही वक़्त काफ़ी है । रौंदते हुए शहंशाह चले जाते हैं। गाने, बाजे,नगाड़ों के साथ बहरों और अंधों की तरह । उन्हें किसी ऐसे का साथ नहीं चाहिए जो धब्बे की तरह दाग़ बन जाए ।बीमार मानसिकता के धनी किसके मन की पढ़ पाएंगे? गली-गली पर्चे बांटते, हाथ जोड़ते उन हाथों को क्यों नहीं थामते जिन्हें उनकी ज़रूरत है । एक कदम ही सही कुछ पल रुकके उन जगहों को क्यों नहीं देखते जिनमें इंसान ज़िंदगी की भीख मांग रहा है ? जीने का अधिकार उसे भी है पर सभ्य समाज ने उनसे छीन लिया। ठंड में चिल्लाती, चीखती, दर्दनाक आवाज़ें अट्टहास करती हैं। हमारे विकास की बौनी नज़रों को, जिन्हें समाज के प्रताड़ित आवाज़ें सुनाई नहीं देती । मन , ज़ुबान की गर्माहट की कमी बढ़ती जा रही है। ऐसे में अलाव का राग बेसुरा ही है। ठंड तुम्हें जाना होगा। तुम्हें तुम्हारे ईमान की कसम । तुम ही दरियादिली दिखाओ, सूरज को जगाओ धूप बरसाओ।