गांधी की आत्मा का रुदन

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गांधी
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डॉ. कल्पना पाण्डेय ‘नवग्रह’

भ्यता और संस्कार को नष्ट करती हमारी नकारात्मक सोच को बदलना होगा। बिना व्यक्ति के कैसा समाज और बिना समाज के कैसा देश?  हम देश के कर्णधार हैं पर क्या है हमारी बिसात ? हम तो बस “कोल्हू के बैल ” की तरह पिसे ज रहे हैं । नज़र की दृष्टि इतनी कमज़ोर और क्षीण हो चुकी है कि सच्चाई -अच्छाई और बुराई दिखाई नहीं देती। कान इतने कच्चे हैं कि बस उड़ती-उड़ती अफवाहें भरोसा-यक़ीन दिला जाती हैं । ज़ुबान ऐसी है कि मिठास का दूर-दूर तक पता नहीं । मुंह खुलता है तो बस ज़हर उगलने के लिए।

कैसा समाज और कैसा विकास?  जब हम आदिमानव थे तो अच्छा था। खाना और किसी तरह रहना जानते थे। भूख मिटाने के लिए हिंसा होती थी। तब भूख शारीरिक थी। पर  आज मानसिक विकृति की भूख ने तो सब कुछ निगल लिया है। लोगों में न दया है न उदारता न सहिष्णुता  है न भावुकता ।हम सिर्फ़ स्वार्थ के लिए जी रहे हैं।

जितने भी राष्ट्रवादी देश के लिए शहीद हुए, अपनी कुर्बानी दी, सबके पीछे उस खोती हुई चेतना को जगाना था जो स्व की लोलुपता में घिरी अंधी हो चुकी थी।  देश की आज़ादी में अपनी कुर्बानी देने वालों पर नई आबादी किस तरह वैमनस्यता का विष उगलने लगी है? भावी पीढ़ी को क्या संस्कार दिए जा रहे हैं?

नफ़रत और घृणा की आग में अपनी-अपनी बातों को तरजीह देने वाले सारे तथ्यों को इस क़दर तोड़ने मरोड़ने में लगे हैं कि सच्चाई एक समय बाद किसी को नहीं पता होगी । क्योंकि सबकी आंखों पर दोहरी पट्टी बंधी हुई है । जो न उन्हें सच्चाई दिखाएगा न देखने देगा और वे नफ़रत की अंधी दौड़ से न बच पाएंगे।

आज का नया भयावह परिवेश राजनीतिक तुष्टीकरण के नाम पर अराजकता का माहौल बना रहा है । शिक्षा और संस्कार सब पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं । हर वर्ग बंधा हुआ, बंटा हुआ है। हर मुद्दे को अपनी स्वार्थ भरी नज़रों से देखता है। अब नफ़रत की ज्वाला इस क़दर धधक रही है कि विकास के लिए बढ़े कदम से बस अलगाववाद और घृणा की बू आती है।

रोज़मर्रा के जीवन के विषय अब मायने नहीं रखते । नफ़रत ,घृणा ,द्वेष ,सुबह दोपहर शाम का भोजन हो गया है । ऐसे विकास से किसका भला होगा जहां इंसान मशीनी कल -पुर्ज़ो की तरह दूसरों की गुलामी कर रहा है । सद्भावना के गुण लुप्त होते जा रहे हैं । देश की कमान कोई भी संभाले पर चिताओं की होली जलती रहेगी।

फ़र्क नहीं पड़ता किसी को, सब अंधे कुएं में गिरने की ठाने बैठे हैं । सकारात्मक भाव जैसे खोते जा रहे हैं। नफ़रत को बढ़ाने के संसाधन प्रचुरता से बढ़ाए जा रहे हैं ।आज की युवा पीढ़ी की कोमल और अपरिपक्व मानसिकता पर ग्रहण लगाने की पुरजोर कोशिश हो रही है। राम-कृष्ण सिर्फ़ मंदिरों में है , मन में तो रावण का निवास है।

बहुत बड़ी चिंता है ऐसे ज़हर उगलते समाज का भविष्य क्या होगा ? आपसी सद्भावना और मन की सुंदरता क्या नष्ट हो जाएगी?  राजनीतिक समीकरण बिठाने वाले क्या मूल्यों – आदर्शों को छोड़ लोलुपता की परिभाषा गढ़ेंगे?  क्या समाज का स्वरूप विकृत हो जाएगा ? क्या भावनाएं खंडहर के रूप में बदल जाएंगी? क्या अपने वातावरण से लोग भाग कर विदेश में पनाह लेंगे ? क्या उन्हें सर्वशक्तिमान बनाने में अपना बहुमूल्य योगदान देंगे?

समय रहते सतर्क हो जाने की ज़रूरत है। सुंदर भावनाएं हर- हर , हर परिस्थिति में समसामयिक हैं। भावी पीढ़ी की मानसिकता को दूषित मत करो । उन्हें अपने उन शहीदों के प्रति मन मैला मत करने दो । देश के लिए समर्पित सभी हमारे लिए पवित्र आत्माएं हैं । राष्ट्र से बड़ा कुछ भी नहीं राष्ट्र की अखंडता को बचाना सर्वोपरि है । गुलामी की बेड़ियों को तोड़ चुके हैं। नफ़रत की बेड़ी को काटना होगा।

संस्कृतियों की सुंदरता के साथ सबको सम्मान देने और दिल में जगह देने की सबको निरंतर अथक प्रयास करने की ज़रूरत है। बरसाती मेंढकों के बीमानी टर्र-टर्र  से बचना होगा। अपने विवेक की शुद्धता -पवित्रता से सिंचाई करनी होगी। ” जिन बोया तिन पाइयां गहरे पानी पैठ”।  अगर बबूल  बोएंगे तो आम कहां से पाएंगे ?  सुंदर वातावरण के लिए सुंदर सकारात्मक भावो का समावेश सबका प्रयास होना चाहिए । भावी समाज को नष्ट मत करो । उनमें वैमनस्य मत बढ़ाओ।

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