मोदी सरकार ने गायब कर दी छह दशकों की उपलब्धियां!

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मोदी सरकार
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शुभेन्द्र
ब हम भारत में शिक्षा के हालातों पर बात करते हैं और उसे चिंताजनक मानते हैं तो हमारी चिंता यह नहीं होनी चाहिए कि हमें जिस तरह की प्रगति करनी चाहिए थी वैसी नहीं कर सके, बल्कि यह होनी चाहिए कि जो उपलब्धियां हमने आजादी के 6 दशकों में हासिल की थी, उन्हें पिछले छह सात वर्षों में ही मटियामेट कर दिया।
आजादी के बाद अनेक क्षेत्रों में भारत ने उल्लेखनीय प्रगति की।विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास, साहित्य में आजादी के बाद के आरंभिक सृजनात्मक दशक, नियोजित आर्थिक विकास, शताब्दियों से जड़ हो चुके सामाजिक ढांचे में बदलाव, औद्योगिक प्रगति, जनसंख्या के बड़े हिस्से का बेहतर जीवन स्तर और साथ ही भुखमरी जैसे औपनिवेशिक दाय से छुटकारा, लेकिन इस लंबी फेहरिस्त में एक विषय ऐसा भी है जिस पर हम निश्चय ही अधिक गर्व कर सकते हैं और जिसमें हमारी उपलब्धियों को विश्व के किसी भी देश की उपलब्धियों के समक्ष रखा जा सकता है वह क्षेत्र है शिक्षा का।
इस क्षेत्र में भारत ने क्या हासिल किया यह बताते समय मैं आंकड़े प्रस्तुत नहीं करना चाहता था। हालांकि आंकड़ों का भी अपना महत्व है आंकड़े कुछ चीजों को समझने में मददगार हो सकते हैं लेकिन उनसे कोई तस्वीर हमारे मन में नहीं बनती।भारत में पहले साक्षरता इतनी थी, अब इतनी हैं, पहले महिला साक्षरता इतने प्रतिशत थी, अब इतनी हैं ।भारत में इतने प्रतिशत स्नातक हैं, इतने परास्नातक हैं और इतने शोधार्थी इन प्रश्नों से संबंधित आंकड़े शिक्षा में भारत की विशेषताओं का सही स्वरूप नहीं बता सकते। अपूर्वानंद जी के शब्दों में कहें तो उसके लिए हमें कहानी कहने वालों की जरूरत है लेकिन दुर्भाग्य से हमारे यहां आंकड़े बाज अधिक हैं(………Universities need storyteller.We have staticians instead)। इसलिए अपनी बात कहते समय में कोई आंकड़ा नहीं दूंगा सिर्फ कुछ विशेषताओं का उल्लेख करूगा, जिनसे हमारी शैक्षणिक विकास की उपलब्धियों का पता चल सके।मेरे पास इस लेख को पूरा करने के लिए एक ही दिन का समय है, इसलिए बहुत ही संक्षेप में कुछ बातें कहूंगा।
भारत जैसे देश की बात करते समय जो सबसे प्रमुख समस्या किसी भी शिक्षाविद के सामने होगी वह होगी हर एक नागरिक तक शिक्षा की पहुंच सुनिश्चित करना। कारण चाहे कोई भी हो किसी भी नागरिक को सीखने के बुनियादी अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। हमारे शिक्षाविदों ने शुरुआत से इस बात का ध्यान रखा। वह मात्रा और गुणवत्ता के इस द्वैत में कभी नहीं फंसे कि यदि हम इतनी बड़ी आबादी के लिए शिक्षा की बात करेंगे तो मैं उसकी गुणवत्ता से समझौता करना होगा इसीलिए शिक्षा चुनिंदा लोगों को ही उपलब्ध होनी चाहिए,जिससे कि उसकी गुणवत्ता बनी रहे।वे मात्रा और गुणवत्ता के बीच के सकारात्मक संबंध को पहचान सके।यह देख सके कि जब शिक्षा में समाज के सभी तबकों की भागीदारी होगी तभी उसमें गुणवत्ता भी आ सकती है। एक कक्षा जिसमें विभिन्न धर्मों और जातियों के विद्यार्थियों हों वह उस कक्षा से निश्चित ही श्रेष्ठ होगी जिसमें सिर्फ उच्च जाति के छात्र ही पढ़ते हैं ।शिक्षा जीवन के जितने विविधता पूर्ण हिस्सों का प्रतिनिधित्व करेगी उतनी ही श्रेष्ठ होगी।भारत में ऐसी विविधता पूर्ण कक्षाएं आज भी कम ही होंगी।यह एक आदर्श स्थिति लगती है लेकिन हमारे शिक्षाविदों ने इस आदर्श को अपनाकर उस ओर कदम जरूर बढ़ाए और यही बात हमारे लिए प्रेरणादाई होनी चाहिए।
जिस अर्थ में हम वर्तमान में शिक्षा और शिक्षण को ग्रहण करते हैं उसकी शुरुआत तब हुई जब भारत ब्रिटेन का उपनिवेश था।उपनिवेशवाद की जो भी अच्छाइयां बुराइयां भारत को मिली उनमें से ही एक थी हमारी शिक्षा की पद्धति।ब्रिटिश भारत उन गिने चुने देशों में था जिनमें सार्वजनिक शिक्षण पद्धति की शुरुआत सबसे पहले हुई थी और विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के लिए सरकारी अनुदान प्राप्त होता था। ब्रिटिश भारत में उन विषयों को प्रमुख रूप से पढ़ाया जाता था जिनमें सैद्धांतिक समझ की आवश्यकता अधिक समझी जाती है। इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान,साहित्य, दर्शन आदि विषय ऐसे हैं जिन्हें पाठ्य पुस्तकों के माध्यम से पढ़ाया जा सकता है और एक लिखित परीक्षा लेकर विद्यार्थियों के ज्ञान का मूल्यांकन किया जा सकता है विज्ञान की अपेक्षा ऐसे विषयों की पढ़ाई पाठ्य पुस्तकों के जरिए सुगमता पूर्वक कराई जा सकती है क्योंकि इनमें चीजों को याद रखने पर ज्यादा जोर दिया जाता है और प्रयोग पर कम। शिक्षा में इन्हीं विषयों की प्रधानता के कारण पाठ्य पुस्तकों का चलन व्यापक रूप से हुआ।हमारे यहां पाठ्य पुस्तकों को आज भी शिक्षा का अनिवार्य अंग माना जाता है।पाठ्य पुस्तकों के बिना शायद शिक्षा की बात ही बेतुकी लगे और इसे हम स्वभाविक मानते हैं। लेकिन प्रोफेसर कृष्ण कुमार ने अपनी पुस्तक “What is worth teaching” में स्पष्ट किया है कि पाठ्य पुस्तकों की संस्कृति (Textbook Culture) उपनिवेशवादी दौर की देन है Textbook Culture ने हमारा पीछा आज तक नहीं छोड़ा।आज भी शैक्षिक बहसों के केंद्र में पाठ्यपुस्तक ही रहती है।
आजादी के बाद 1968 में जब पहली शिक्षा नीति बनी तब शिक्षाविदों ने इस बात पर जोर दिया कि पाठ्यपुस्तक को शिक्षा का एकमात्र माध्यम समझने से सीखने के बहुविध माध्यमों की उपेक्षा होती है। आजादी से पहले रविंद्र नाथ टैगोर महात्मा गांधी ऐसी शिक्षा की वकालत कर रहे थे जिनमें पाठ्य पुस्तकों के अलावा प्राकृतिक रूप से सीखने के लिए खुला क्षेत्र होगा। गांधीजी किसी चीज को करके सीखने में यकीन करते थे।उनका मानना था कि सीखने के लिए हमारा मस्तिष्क जितना महत्वपूर्ण है उतने ही महत्वपूर्ण हमारे हाथ भी हैं जिनसे हम चीजों का निर्माण करते हैं। शिक्षण की कोई भी पद्धति कार्य की अवमानना करके सफल नहीं हो सकती।
आजादी के बाद विज्ञान की शिक्षा पर बहुत जोर दिया गया पहली शिक्षा नीति (1968) यूं तो शिक्षा के सभी आयामों की पड़ताल करती है लेकिन उसके केंद्र में विज्ञान की शिक्षा ही है अगर भारत को इस तेजी से बदलती दुनिया में अपना महत्व स्थापित करना है तो विज्ञान की शिक्षा की उपेक्षा नहीं की जा सकती।विज्ञान और तकनीकी शिक्षा के लिए आईआईटी की स्थापना राष्ट्र निर्माण के आरंभिक दौर में हुई। विज्ञान की शिक्षा के लिए जरूरी है कि सीखने के लिए विद्यार्थियों के परिवेश के महत्व को स्वीकार किया जाए उन पर एकरूपता न थोपी जाए। विज्ञान की अवधारणाओं को हर बच्चा अपने परिवेश में मौजूद चीजों से ही समझता है। मसलन,जब वृत्तीय गति के बारे में बच्चे को सिखाया जाएगा तो कुछ बच्चे मोटर गाड़ी के पहिए के इर्द गिर्द अपने विचार गढ़ सकते हैं तो कुछ बैलगाड़ी के पहियों के और कुछ चारा काटने की मशीन के।
आजादी के शुरुआती दशकों में हमारे पास वैसे संसाधन नहीं थे कि हम प्रयोग के बहुत महंगे उपकरण जुटा सकें या बहुत उन्नत प्रयोगशालाएं में स्थापित कर सकें लेकिन संसाधनों की कमी के कारण हिंदुस्तान दुनिया से पीछे नहीं रह सकता था ना यह बहाना किया जा सकता था कि उसके पास साधन ही नहीं है। इसके लिए जरूरी था कि वह अपने आसपास की चीजों से प्रयोग की सामग्री ढूंढ ले माचिस की तीलियों को ज्यामितीय आकृतियों के अध्ययन के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है, कैलेंडर की तारीखों से संख्या श्रेणी और औसत का अध्ययन किया जा सकता है ।एक स्ट्रा (Straw) को सिरे से तिरछा काटकर काटकर ध्वनि तीव्रता के अध्ययन के लिए प्रयोग किया जा सकता है।प्रोफेसर यशपाल ने बच्चों के बीच एक रोचक प्रयोग का जिक्र अपने एक इंटरव्यू में किया था। बच्चों के बीच यशपाल थे ।सरल लोलक (Simple Pendulam) की गति पर उनसे बात हो रही थी लेकिन पेंडुलम तो मौजूद था नहीं, उन्हें समझाया कैसे जाए। यशपाल ने एक बच्चे से जूता लिया और फीते से बांधकर उसे लटका दिया। पेंडुलम तैयार था। अब समस्या थी समय मापने के लिए किसी के पास घड़ी भी नहीं थी। तो क्या दिल की धड़कनों का उपयोग समय मापने के लिए नहीं किया जा सकता? आखिर दिल 1 मिनट में 72 बार धड़कता है तो दो धड़कनों के बीच का समय अंतराल 0.8 सेकंड हुआ ना? इस अद्भुत प्रयोग में यशपाल ने बिना किसी प्रयोग उपकरण के Simple Pendulam की गति के बारे में प्रयोग करके दिखा दिया ऐसे ही अपने आसपास बिखरी वस्तुओं से विज्ञान के जटिल से जटिल प्रयोग किए जा सकते हैं। प्रोफ़ेसर यशपाल दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाले अपने कार्यक्रम टर्निंग प्वाइट (Turning Point)में ऐसे ही प्रयोग करके दिखाते थे। ऐसे हीअनेक प्रयोग अरविंद गुप्ता की वेबसाइट www.arvindguptatoys.com पर देख सकते हैं अरविंद गुप्ता ने इन रोचक प्रयोगों को एक रोचक नाम भी दिया है ‘कबाड़ से जुगाड़’।
आजादी के बाद की इस यात्रा की सबसे प्रमुख उपलब्धि थी राष्ट्रीय फोकस समूह (2005) की रिपोर्टें राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005) और उसके आधार पर निर्मित आज की एनसीईआरटी की पाठ्य पुस्तकें। इन पुस्तकों ने तो पाठ्य पुस्तकों की पूरी अवधारणा ही बदल दी पाठ्य पुस्तकों के निर्माण के लिए इन पुस्तकों ने एक मानक स्थापित किया है अपने विषय की विश्व स्तरीय पुस्तकों में इन पुस्तकों की गणना हो सकती है। इनका निर्माण किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं किया बल्कि समितियों ने किया है और हर समिति में अधिकांश शिक्षक होते थे।
भारत में शिक्षा की यह कहानी तब तक अधूरी रहेगी जब तक हम इसके प्रमुख किरदारों का जिक्र नहीं करेंगे। दौलत सिंह कोठारी, जे पी नाइक, प्रोफ़ेसर यशपाल, प्रोफेसर अनिल सदगोपाल, डॉक्टर शांता सिन्हा,रोहित धनकर, प्रोफेसर कृष्ण कुमार, अरविंद गुप्ता डॉक्टर शुभा मुद्गल……….. और यह सूची बहुत लंबी है।ऊपर जिन नामों का उल्लेख हुआ है शिक्षा में उनके अलग-अलग क्षेत्र और और अलग-अलग विशेषता थीं लेकिन जो सूत्र उन्हें आपस में जोड़ता है वह है बच्चों की सीखने की क्षमता में यकीन,शिक्षा को लेकर उत्साह है जो कभी-कभी उन्माद की हद तक होता था।
शिक्षा में एक तरफ हमारी है उपलब्धियां हैं और दूसरी तरफ हमारी है वर्तमान अवस्था जो बहुत निराशाजनक है।चारों तरफ कोचिंग संस्थानों की भीड़,अनुदान के अभाव में मूलभूत सुविधाओं की कमी से जूझते विश्वविद्यालय,शिक्षकों की कमी से आधे से अधिक खाली पड़े पद,दिमाग पर सूचनाओं का आशातीत बोझ डालने वाली परीक्षाएं। शिक्षा की वर्तमान अवस्था को देखने पर ऐसा लगता है जैसे हम किसी गर्त में चले गए हैं और जहां से निकलने का उपाय भी नहीं सूझ रहा है अब शिक्षा पर शायद ही कोई महत्वपूर्ण विचार विमर्श होता है।शिक्षा को लेकर सारे विचार विमर्श सरकारी आयोजनों तक सीमित हो गए हैं और उन सरकारी आयोजनों के विषय भी गिने-चुने होते हैं। शिक्षा का भारतीयकरण, हिंदी को राष्ट्रभाषा कैसे बनाया जाए, भारतीय मूल्यों की शिक्षा कैसे दी जाए। कहना न होगा कि यह बातें भी उदारता का एक छद्म आवरण ओढ़ कर की जाती हैं और जब आवरण को छोड़कर अपनी असली शक्ल अख्तियार की जाती है तब शिक्षा पर बहस के विषय होते हैं उर्दू लफ्जों को पाठ्य पुस्तकों से कैसे निकाला जाए, कोई मुस्लिम नाम पाठ्यपुस्तक में ना आने पाए,एक अध्याय के शीर्षक को “अजमेर की सैर” से “अजमेर का भ्रमण” कर दिया जाए और उस अध्याय से मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह का नाम हटा दिया जाए। एक छद्म इतिहास गढ़ा जाए जो हीनता बोध और कुंठा से जन्मा हो।
आजादी के बाद भारत ने शिक्षा का कौन सा रास्ता चुना था और आज वह किस रास्ते पर है इसका बहुत संक्षेप में उल्लेख ऊपर हुआ है। इनमें से कौन सा रास्ता भारत के लिए सही है क्या इस पर हमें नहीं सोचना चाहिए?

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एम. ए. हिन्दी(दिल्ली विश्वविद्यालय)

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