यूपी के विधानसभा चुनावनिल सिन्हा
भारतीय मीडिया खबरों का माध्यम नहीं रह गया है और मनोरंजन करने की अपनी क्षमता भी खो चुका है। ख़बरों की उम्मीद तो लोगों ने पहले ही छोड़ दी थी, अब उन्हें मनोरंजन की उम्मीद भी नहीं रह गई है। हर एक माध्यम का अपना नियम होता है। भारतीय मीडिया ने पहले खबरोें की दुनिया के नियम तोड़े और अब मनोरजन के नियमों को भी तोड़ रहा है।
यह सचमुच तकलीफ की बात है कि एक समृद्ध विरासत वाले मीडिया की यह दुर्गति हुई है। भारत के अनोखे आज़ादी के आंदोलन से उभरी पत्रकारिता का यह हाल होगा, यह किसी ने सोचा भी नहीं था। भारत का आज़ादी आंदोलन दुनिया का अकेला आंदोलन था जिसका उद्देश्य दुश्मन का मिटाना नहीं था। गाँधी ने अहिंसा और सत्याग्रह के आधार पर इसे इस तरह खड़ा किया कि अंग्रेज़ों के खिलाफ नहीं बल्कि अंग्रेजी सत्ता के लहलाफ नफ़रत थी। भविष्य की पीढ़ी को इस पर आश्चर्य होगा कि राजनीतिक संघर्ष इतना मनवीय भी हो सकता है. यही वजह है कि सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी को डॉक्टर लोहिया एक अनोखा अविष्कार मानते थे। जाहिर है सेकुलरिज्म और हर तबके को बराबरी आज़ाद भारत का वैचारिक आधार बना। बाबा साहेब आंबेडकर ने संविधान के जरिये इसे औपचारिक रूप दिया और सच्चे लोकतंत्र की नींव रखी।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दबावों से मुक्त मीडिया इस लोकतंत्र का एक हिस्सा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में लोकतंत्र के खिलाफ काम करने वाली ताकतों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया है।
मीडिया के इस आत्म-समपर्ण को हम आसानी से पहचान सकते हैं। खेल का मैदान हो या चुनावी संघर्ष, महामारी हो या प्राकृतिक आपदा, अर्थतंत्र हो या कानून व्यवस्था, हर जगह मीडिया अपने पतन का सबूत देता रहता है। वह क्रिकेट के मैच में मजहबी रंग ढूंढता है और इसका इस्तेमाल समाज में नफरत फैलाने के लिए करता है। खबरों से काम नहीं चलता है तो अफवाहों और मनगढ़ंत खबरों का सहारा लेता है।
हाल ही में हुए भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच के बाद अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से खुशियां मनाये जाने की ख़बरें इसका उदाहरण हैं। कौन नहीं जानता कि भारत के मुसलामानों ने पाक्सितान जाने के विकल्प को ठुकरा कर यहीं रहना तय किया। यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि १९४७ में दंगों के कारण पाकिस्तान गए मुसलमान भी भारत वापस आना चाहते थे और अगर उन्हें मौका मिला होता तो लोग बड़ी संख्या में वापस लौट आते। ऐसे में, आरएसएस की इस काल्पनिक और आधारहीन अवधारणा को सच मान लेना कि मुसलमान पाकिस्तान के समर्थक हैं अल्पसंख्यकों के साथ कितना बड़ा अन्याय है. भारतीय मीडिया का बड़ा हिस्सा इस अपराध का दोषी है।
हमारा मीडिया सत्ताधारी पार्टी और उसकी विचारधारा का किस तरह भोपूं बन गया है यह हम सिर्फ साम्प्रदायिकता से जुड़े सवालों में नहीं देखते, बल्कि प्रत्येक सवाल में देखते हैं। यह हमें ऐसे सवालों में भी नज़र आता है जो देश को स्थायी नुक्सान पहुंचाने वाले हैं। नोटबंदी ने हमारे असंगठित क्षेत्र को ध्वस्त कर दिया। लाखों लोगों ने रोजगार गँवा दिया और मध्यवर्ग को भी असीम दिक्कतें उठानी पड़ी, लेकिन भारत का मीडिया सत्ता से सवाल करने से बचता रहा।
कोरोना की महामारी में भी हमने देखा कि लोगों ने ऑक्सीजन क्वे आभाव में दम तोड़ दिया और गरीबों ने परिजनों का दाह संस्कार किये बिना उन्हें गंगा की रेत में दबा दिया। लेकिन एकाध अख़बारों और चैनलों को छोड़ कर किसी ने सत्ता की आँख में आँख डाल कर सवाल करने की हिम्मत नहीं की।
लखीमपुर खीरी की घटना का असली कहानी सोशल मीडिया ने ही बाहर लायी। इसी ने किसानों पर गाड़ी चलाने की खबर प्रसारित की और आज कम से कम एक मंत्री का बेटा सलाख़ों के पीछे है। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण उदाहरण है सर्वजनिक सम्पत्तियों के बेचने का। देश की संपत्ति चुने हुए पूंजीपति घरानों को सौंपे जा रहे हैं। हवाई अड्डा, रेल, सड़क तो बेचे ही जा रहे हैं, उन उद्योगों को भी बेचा जा रहा है जो जनता की कमाई और उनके श्रम से खड़े हुए हैं। खेती के तीन क़ानून भी कृषि क्षत्र को पूंजीपतियों को सौंपने के इरादे से बने हैं। मीडिया इन मुद्दों को उठाने क्वे बदले इधर-उधर की बातें कर रहा है।
सबसे बड़ी चुनौती तो उत्तर प्रदेश के चुनावों के रूप में सामने आ रही है। मीडिया ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है। उसने नयी नयी कथाएं शुरू कर दी हैं। ऐसी ही एक कथा चुनाव मैनेजर प्रशांत किशोर के हवाले से प्रसारित हो रही है कि बीजेपी अब सालों तक रहेगी। इसमें नया क्या है ? मोदी और शाह तो इसे कई बार कह चुके हैं। मीडिया ओवैसी को रोज दिखने लगा है और विपक्ष में विभाजन की कहानियां बताने लगा है। जान सरोकारों वाले मीडिया की यही चुनौती है कि घुटना टेक चुके मीडिया का मुक़ाबला करे और उत्तर प्रदेश के चुनावों को धार्मिक विभाजन और झूठी कहानियों से मुक्त करे। उत्तर प्रदेश के चुनाव भारत में लोकतंत्र के भविष्य को तय करेंगे।