नीतीश के काम पर भरोसा करें, कसमों पर नहीं

 भाजपा के निशाने पर 2025 का सीएम पद

दीपक कुमार तिवारी

बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार एक ऐसी शख्सियत हैं जो सत्ता की कुर्सी पर बने रहने की कला में निपुण माने जाते हैं। नौ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके नीतीश कुमार के राजनीतिक जीवन में उतार-चढ़ाव और गठबंधन बदलने की घटनाएं हमेशा सुर्खियों में रही हैं। उनकी राजनीति का केंद्र कुर्सी रही है, और इसे बचाने के लिए वे समय-समय पर विचारधाराओं और गठबंधनों की सीमाओं को लांघते रहे हैं। चाहे भाजपा हो या राजद, नीतीश कुमार ने हर बार अपने राजनीतिक समीकरणों को सत्ता में बने रहने के लिए बड़ी चतुराई से बदला है।

नीतीश कुमार के राजनीतिक करियर की विशेषता यह रही है कि वह हर गठबंधन में स्वीकार्य चेहरे के रूप में उभरे हैं। उन्हें विरोधियों के बीच भी एक ऐसा नेता माना जाता है, जो हर राजनीतिक दल के साथ सामंजस्य बिठाने में सक्षम हैं। उनकी यह क्षमता उन्हें सत्ता में बनाए रखने में कारगर सिद्ध हुई है। लेकिन सत्ता की इस जद्दोजहद में विचारधारा की पवित्रता अक्सर हाशिये पर रही है। नीतीश कुमार की राजनीतिक कसमें और वादे टूटने के दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं, जो यह दिखाते हैं कि उनके लिए सत्ता सर्वोपरि है।

कुर्सी की मजबूती और कसमों का खेल:

नीतीश कुमार की राजनीति में कसमों और शपथों का एक लंबा इतिहास रहा है। जब 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू की करारी हार हुई, तो नीतीश ने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया और ऐलान किया कि 2015 के विधानसभा चुनाव के बाद ही वे फिर से मुख्यमंत्री पद ग्रहण करेंगे। लेकिन चुनाव के पहले ही उन्होंने मांझी को सत्ता से बेदखल कर खुद मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल ली।

इसके बाद, 2015 में उन्होंने राजद के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और भाजपा के खिलाफ जाकर महागठबंधन सरकार बनाई। लेकिन यह गठबंधन भी ज्यादा दिनों तक नहीं चला। 20 महीने के भीतर नीतीश कुमार ने फिर से भाजपा के साथ हाथ मिला लिया, और मुख्यमंत्री पद पर काबिज रहे। उस समय भी उन्होंने कसम खाई थी कि अब राजद के साथ कभी नहीं जाएंगे। परंतु जब भाजपा के साथ उनके रिश्तों में खटास आई और उनकी कुर्सी पर खतरा मंडराने लगा, तो वे एक बार फिर राजद के साथ आ गए।

नीतीश कुमार की राजनीति का यह सिलसिला यही दिखाता है कि सत्ता उनके लिए प्राथमिकता है, और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। चाहे वह भाजपा हो या राजद, नीतीश कुमार हर गठबंधन में अपने लिए एक सुरक्षित स्थान खोजने में सफल रहे हैं। लेकिन अब परिस्थितियां बदल रही हैं। 2020 के विधानसभा चुनावों में जदयू की सीटें घटने के बाद, भाजपा ने विधानसभा के स्पीकर पद और विधान परिषद के सभापति का पद जदयू से छीन लिया। यह नीतीश कुमार के लिए एक स्पष्ट संकेत था कि भाजपा अब उनके खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत कर रही है।

भाजपा के साथ संबंधों का बदलता समीकरण:

2020 के चुनावों के बाद से भाजपा और जदयू के बीच संबंधों में तनाव बढ़ता गया है। भाजपा, जो कभी जदयू की सहयोगी पार्टी हुआ करती थी, अब सत्ता में अपनी बढ़ती हिस्सेदारी को लेकर मुखर हो गई है। भाजपा ने धीरे-धीरे अपने कदम आगे बढ़ाते हुए विधानसभा में स्पीकर पद और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर कब्जा जमाया है। अब नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को यह एहसास होने लगा है कि 2025 के विधानसभा चुनावों में भाजपा उनके लिए एक गंभीर चुनौती बन सकती है।

अगर भाजपा 2025 में जदयू से अधिक सीटें जीतती है, तो यह निश्चित रूप से नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री पद को खतरे में डाल सकती है। भाजपा पहले ही 2020 में स्पीकर पद छीन चुकी है और अगर उसे मौका मिला, तो मुख्यमंत्री पद भी छीनने से नहीं चूकेगी। यही कारण है कि नीतीश कुमार अब खुद को पहले की तरह सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे हैं। उनकी पार्टी भी अब एनडीए में बड़ी पार्टी होने का दावा नहीं कर रही है, बल्कि भाजपा के साथ तालमेल बैठाने की कोशिशों में लगी हुई है।

बिहार में नीतीश कुमार का विकास मॉडल:

नीतीश कुमार के आलोचक भी इस बात को मानते हैं कि उनके कार्यकाल में बिहार में बुनियादी सुविधाओं में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। सड़क, बिजली और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में उन्होंने कई बड़े कदम उठाए हैं, जिनका लाभ आम जनता को मिला है। बिहार के भौतिक कायाकल्प में उनका योगदान अविस्मरणीय है। उनके शासनकाल में बिहार की आर्थिक स्थिति में भी सुधार हुआ है, और यह सब उनके नेतृत्व का ही परिणाम है।

हालांकि, नीतीश कुमार के विकास कार्यों की प्रशंसा करते हुए यह नहीं भूला जा सकता कि यह विकास भाजपा, राजद और कांग्रेस जैसी पार्टियों के साथ गठबंधन की वजह से ही संभव हो पाया है। नीतीश कुमार ने सरकार का नेतृत्व भले ही किया हो, लेकिन सहयोगी दलों का योगदान भी इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण रहा है। फिर भी, जनता के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि नीतीश कुमार की राजनीतिक प्रतिबद्धताओं पर कितना भरोसा किया जा सकता है।

राजनीतिक कसमों की निरर्थकता:

नीतीश कुमार की कसमों और शपथों का कोई ठिकाना नहीं है। उनकी कसमें सत्ता के समीकरण बदलने के साथ बदलती रही हैं। चाहे 2009 का लोकसभा चुनाव हो, 2015 का विधानसभा चुनाव या फिर 2020 का चुनाव—हर बार उन्होंने जनता से कुछ नया वादा किया, लेकिन सत्ता में बने रहने के लिए अपनी कसमों को तोड़ने में भी देर नहीं की। 2025 के चुनावों में भी उनकी रणनीति स्पष्ट दिख रही है—वह एक बार फिर अंतिम मौका मांग रहे हैं, जैसे उन्होंने 2015 और 2020 में किया था।

भविष्य की राह:

2025 के चुनाव नीतीश कुमार और उनकी पार्टी के लिए निर्णायक हो सकते हैं। भाजपा ने पहले ही जदयू पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है और 2025 में अगर वह जदयू से ज्यादा सीटें जीतती है, तो नीतीश कुमार के लिए मुख्यमंत्री पद बनाए रखना मुश्किल हो सकता है। नीतीश कुमार ने कई बार यह साबित किया है कि वे सत्ता के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले चुनावों में वे कितनी बार कसम खाएंगे और कितनी बार उसे तोड़ेंगे।

आखिरकार, जनता को नीतीश कुमार के विकास कार्यों पर भरोसा करना चाहिए, लेकिन उनकी कसमों और वादों पर नहीं। सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने हमेशा समीकरण बदलने का खेल खेला है और भविष्य में भी यह खेल जारी रहेगा।

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