
शिव निराकार परमात्मा हैं और शंकर आकारी देवता।
सुभाष चंद्र कुमार
समस्तीपुर, पूसा। प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय के खुदीराम बोस पूसा रेलवे स्टेशन रोड स्थित स्थानीय सेवाकेंद्र में आयोजित सात दिवसीय राजयोग मेडिटेशन शिविर में शिविरार्थियों को संबोधित करते हुए पूजा बहन ने शिव और शंकर के बीच महान अंतर को स्पष्ट करते हुए कहा कि शिव निराकार परमात्मा हैं और शंकर आकारी देवता हैं।
शिव रचयिता हैं और शंकर रचना हैं। शिवलिंग में तीन लकीरों के बीच दिखाई गई बिंदी परमात्मा शिव के ज्योति स्वरूप का यादगार है। इसलिए हम इसे सदैव शिवलिंग कहते हैं, शंकरलिंग नहीं। जितने भी शिव के मंदिर हैं, द्वादश ज्योतिर्लिंग हैं उन्हें शिवालय कहा जाता है, शंकरालय नहीं। शिव पुराण कहते हैं, शंकर पुराण नहीं। शिव भोलेनाथ कहते हैं, शंकर भोलेनाथ नहीं।
भगवान शिव की आराधना में ओम नमः शिवाय मंत्र का उच्चारण करते हैं, ओम नमः शंकराय नहीं। परमात्मा शिव के इस धरा पर अवतरण के यादगार के रूप में शिवरात्रि का महान त्योहार मनाया जाता है। हम इसे शंकर रात्रि कभी नहीं कहते। शंकर का निर्वस्त्र तपस्वी स्वरूप देह के भान को भूला देने का प्रतीक है। शिव परमधाम निवासी हैं और शंकर सूक्ष्मवतन वासी हैं। शिव का अर्थ है कल्याणकारी और शंकर का अर्थ है विनाशकारी।
परमपिता परमात्मा शिव ब्रह्मा द्वारा नई सतयुगी दुनिया की स्थापना, शंकर द्वारा पुरानी कलियुगी भ्रष्टाचारी दुनिया का विनाश और विष्णु द्वारा नई सतयुगी दुनिया की पालना करवाते हैं इसलिए उन्हें त्रिमूर्ति शिव भी कहते हैं।देवताओं में ब्रह्मा को सदैव बूढ़ा दिखाया है। ऐसा इसलिए क्योंकि परमात्मा शिव स्वयं अजन्मा होने के कारण अपना दिव्य कर्तव्य करने के लिए वयोवृद्ध मानव तन का आधार लेते हैं।
यह कोई साधारण मानव आत्मा नहीं, बल्कि सृष्टि की पहली आत्मा है जिन्हें सृष्टि का आदि पिता कहेंगे। परमात्मा के इनमें अवतरित होने के बाद इनका नाम प्रजापिता ब्रह्मा कहलाता है। ब्रह्मा को चार दिशाओं में चार मुख दिखलाते हैं- यह प्रतीकात्मक है। जिसका अर्थ है परमात्मा ने प्रजापिता ब्रह्मा के तन में आकर जो ज्ञान दिया, उसका प्रचार-प्रसार चारों दिशाओं में हुआ। जिसका परिणाम है यह संस्थान विश्व के 140 देशों में अपनी शाखाओं के माध्यम से स्व परिवर्तन से विश्व परिवर्तन की मुहिम को आगे बढ़ा रहा है।
एक तरफ नई सतयुगी दुनिया की स्थापना का कार्य चल रहा है, वहीं दूसरी ओर विनाश का कार्य भी तेजी से चल रहा है। जब परमात्म-ज्ञान की धारणा के आधार से हमारे आसुरी संस्कार दैवी संस्कार बन जाते हैं तब इस पतित सृष्टि का विनाश हो जाता है और नई सतयुगी दुनिया की स्थापना होती है, यह धरा स्वर्ग बन जाती है।
इस नई दुनिया की पालना विष्णु के द्वारा होती है, जो विश्व महाराजन श्री नारायण और विश्व महारानी श्री लक्ष्मी का कंबाइंड रूप है। विष्णु की चार भुजाएं लक्ष्मी की दो भुजा और नारायण की दो भुजा को प्रदर्शित करती हैं। विष्णु की चार भुजाओं में चार अलंकार शंख, चक्र, गदा, पदम उनके जीवन की धारणाओं को प्रतिबिंबित करते हैं जो उन्होंने पिछले जन्म में परमात्म-ज्ञान के आधार से स्वयं में धारण किया।
शंख अर्थात् मुख से ज्ञान ध्वनि करना। चक्र अर्थात स्वयं का, स्वयं के जन्मों एवं गुणों का निरंतर दर्शन करते रहना। गदा अर्थात् शक्तिशाली बनाकर विकारों का हनन करना, उन्हें दूर भगाना। पदम अर्थात् कमल पुष्प समान जीवन जीना। संसार में रहते हुए संसार के दुःख, चिंता, अशांति एवं विकारों के प्रभाव से न्यारे रहना।
अभी परमात्मा का दिव्य कर्तव्य चल रहा है, जिसमें हम परमात्मा की संतान उनके सहभागी बनकर जन्म-जन्म के लिए उनके द्वारा दिया जा रहा वर्सा अधिकार के रूप में प्राप्त कर सकते हैं। याद रहे- अभी नहीं, तो कभी नहीं।