क्या हिजाब चॉइस है? भारत फ्रांस की तरह चाकू की नोंक पर धर्मनिरपेक्षता की रक्षा नहीं कर सकता

ज्योति मल्होत्रा  
र्नाटक की सरकार क्या फ्रांस की तरह अपने यहां ‘ला ईसीते’ (धर्मनिरपेक्षता) लागू कर रही है जिसके तहत फ्रांस में 2004 में ही सार्वजनिक संस्थानों में बुर्का या दूसरे धार्मिक प्रतीकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था? क्या कर्नाटक में बासवराज बोम्मई की बीजेपी सरकार की इसलिए निंदा की जानी चाहिए कि उसने यूरोपीय संघ की सर्वोच्च अदालत से सबक लेते हुए कदम उठाया है? इस अदालत ने कंपनियों को कार्यस्थल पर हिजाब को प्रतिबंधित करने की अनुमति दे दी है. जहां तक इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ मोरक्को की बात है उसने हिजाब पहनने पर 2004 में ही रोक लगा दी थी और 2017 में दुकानदारों और उत्पादनकर्ताओं को बुर्का बना और बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया था।
इस स्तंभ में हम सऊदी अरब के बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं जहां हाल में मोहम्मद बिन सलमान द्वारा लागू किए गए सुधारों के तहत अब महिलाओं को घर से बाहर निकलने के लिए पूरे शरीर को ढकने वाला काला बुर्का या ‘अबाया’ पहनने की जरूरत नहीं होगी; वो कार चला सकती हैं, फिल्म देखने जा सकती हैं, विदेश जा सकती और स्वतंत्र जीवन जी सकती हैं. वैसे, कहा जाता है कि सऊदी अरब दुनिया के सबसे रूढ़िपंथी देशों में है।
खाड़ी के यूएई जैसे देशों में शासक शेखों की आलोचना अभिशाप है लेकिन उनके फतवों के कारण दुबई पूरब का चमचमाता मैनहटन बन गया है जहां महिलाएं समुद्रतट सहित कहीं भी अपनी मर्जी के कपड़े पहनकर जा सकती हैं. वास्तव में, पूर्व दुश्मन इजरायल के साथ 2020 में अमेरिकी पहल से हुए ‘अब्राहम समझौते’ के बाद यूएई इजरायलियों के सैर-सपाटे की पसंदीदा जगह बन गई है।
न ही हम यह कॉलम पाकिस्तान के बारे में लिख रहे हैं जो मजहब की स्वतंत्रता के बारे में 1947 में जारी मोहम्मद अली जिन्ना के सिद्धांत (‘आप चाहें तो अपने मंदिरों या मस्जिदों में जा सकते हैं…’) पर सैद्धांतिक रूप से अमल करता है लेकिन व्यवहार में वह वैलेंटाइन डे पर रोक लगाते हुए आदेश जारी करता है कि महिलाएं न सिर्फ काला ‘अबाया’ ही नहीं बल्कि काले दस्ताने भी पहनें और पुरुष सफ़ेद इबादती टोपी पहनें।
न ही यह लेख अफगानिस्तान के बारे में है जहां तालिबान ने पूरे ज़ोर के साथ पूरे शरीर का नीला बुर्का वापस थोप दिया है और महिलाएं वहां इसके बिना या कम-से-कम हिजाब के बिना बाहर नहीं निकल सकतीं
हिजाब पर अपने ही फरमान को उलटने की दिलचस्प मिसाल पेश करने वाला देश है तुर्की. प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब ऑटोमन साम्राज्य का पतन हो गया तब कमाल पाशा अतातुर्क ने तुर्की को अतीत के अंधेरों से बाहर निकालने और भविष्य की राह पर चलाने के जो प्रयोग किए उनमें पहनावे में सुधार के लिए 1925 में जारी किया गया फरमान भी था, जिसके तहत हिजाब पर प्रतिबंध लगाना भी शामिल था।  अभी हाल में तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति रिसेप तय्यब एर्दोगन जैसे कई नेता इस्लामवादियों की ओर मुड़ गए हैं. 2013 में एर्दोगन जब प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने पहनावे से संबंधित अतातुर्क के फरमान को उलट दिया।
अब जबकि कर्नाटक हाई कोर्ट इस सवाल पर सुनवाई कर रही है कि छात्राओं को हिजाब पहनकर स्कूल-कॉलेज में जाने की इजाजत दी जाए या नहीं, तब यह देखना दिलचस्प होगा कि दूसरे देशों ने इस तरह के मसले को कैसे निबटाया. धार्मिक परंपराओं का सामना जब धर्मनिरपेक्ष देश से होता है तब क्या होता है?
मोर्चे पर ‘ला ईसीते’
इस अंतरराष्ट्रीय बहस में फ्रांस इधर कुछ वर्षों से अग्रणी रहा है. वह ‘ला ईसीते’ नामक विचार की दुहाई देता है जिसका अर्थ है सख्त किस्म की धर्मनिरपेक्षता, जो समानता के मामले पर कोई बहस नहीं चाहता।  धाराओं के लिए बुर्के पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था. इस कानून के तहत, इस्लामी बुर्के, यहूदी किप्पाह और बड़े आकार के ईसाई सलीब जैसी दिखावे वाली किसी भी धार्मिक चीज को धारण करने पर प्रतिबंध लगा दिया था. 2011 में दक्षिणपंथी निकोलस सर्कोजी ने नक़ाब पर रोक लगा दी थी। 2021 में, फ्रांस की सीनेट ने राष्ट्रपति इमानुएल मैक्रों की सरकार के ‘अलगाववाद विरोधी बिल’ में संशोधन के रूप में 18 साल से कम की लड़कियों के लिए हिजाब पर प्रतिबंध लगाने के प्रस्ताव को आगे बढ़ाया. इस संशोधन में स्कूल ट्रिपों के दौरान हिजाब पहनने, और पूरे शरीर वाली स्विमसूट ‘बुर्किनी’ पर भी पर रोक लगाने का प्रस्ताव शामिल था। यह संशोधन अक्टूबर 2020 में पेरिस के एक उपनगर में एक चेचेन प्रवासी द्वारा एक टीचर सैमुएल पैटी की हत्या के बाद लाया गया और इसके बाद ट्वीटर पर कई हफ्तों तक हैशटैग #हैंण्ड्सऑफमाइहिजाब’ ट्रेंड होता रहा था।  मैक्रों ने बड़ी बेबाकी से इन हमलों को ‘इस्लामी अलगावाद’ की लहर बताते हुए यह पहल की थी. उन्होंने इसके बाद ‘ला ईसीते’ (यानी चर्च और राज्यव्यवस्था के बीच दूरी, जो कि 1905 से फ्रांस की राजनीति और समाज की पहचान रही है) के पक्ष में कई सार्वजनिक बहस चलाई। अब ‘ला ईसीते’ का अर्थ यह नहीं है कि राज्यव्यवस्था फ्रांस की कैथलिक आबादी के जीवन में दखल नहीं देगी. वास्तव में, वह नोत्रे डेम और कैथलिक स्कूलों जैसे ऐतिहासिक चर्चों को पैसे देती है. लेकिन यह विचार 1960 के दशक में तब प्रमुखता से उभरा जब फ्रेंच उपनिवेशवादी साम्राज्य से मुक्ति के लिए उत्तरी अफ्रीका में संघर्ष चला और उन देशों के मुस्लिम बड़ी संख्या में फ्रांस में चले आए जिनमें हिजाब पहने महिलाएं और बच्चे भी थे। 2005 में, डेनमार्क के एक अखबार में पैगंबर मोहम्मद का कार्टून छापा और पूरे यूरोप में हंगामा मचा गया; 2011 में सर्कोजी की शह पर नक़ाब के खिलाफ लाए गए कानून के कारण पूरे फ्रांस में दंगे भड़क उठे; 2015 में पेरिस की एक व्यंग्य पत्रिका ‘चार्ली हेबदो’ पर हमला हुआ क्योंकि उसमें पैगंबर पर कार्टून छापा गया और इससे भड़की हिंसा में 12 लोग मारे गए; 2020 में ‘चार्ली हेबदो’ ने हमलावरों पर मुकदमा चलाए जाने पर फिर से वे कार्टून छाप दिए जिससे पूरे मुस्लिम संसार में भारी गुस्सा भड़का। ‘चार्ली हेबदो’ पर हमलों के बाद ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड, बेल्जियम ने नक़ाब पर रोक लगाने के कानून बना दिए जबकि 2016 में जर्मनी की तत्कालीन चांसलर एंजेला मेर्केल ने बयान दिया कि जहां भी ‘कानूनन मुमकिन’ हो वहां पूरे चेहरे को ढकने वाले नक़ाब पर रोक लगाई जाए। गौरतलब है कि फ्रांस और जर्मनी, दोनों में करीब 50 लाख मुस्लिम बसते हैं. 2020 में पैटी की हत्या के बाद 79 फीसदी लोगों ने कहा था कि ‘इस्लामवाद ने फ्रांस के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी है.’ मैक्रों को पता है कि इस साल वे चुनाव लड़ रहे हैं लेकिन उन्होंने उस समय कहा था कि ‘सैमुएल पैटी की हत्या इसलिए की गई क्योंकि इस्लामवादी हमारे भविष्य को बरबाद करना चाहते हैं और क्योंकि वे जानते हैं कि उनके जैसे खामोश हीरो के रहते वे ऐसा कभी नहीं कर पाएंगे.’
भारतीय धर्मनिरपेक्षता की सीमाएं : फ्रांस और कर्नाटक की ‘ला ईसीते’ के बीच सबसे बड़ा अंतर शायद यह है कि फ्रांस में तो तमाम धार्मिक प्रतीकों, चाहे वह हिजाब हो या पगड़ी या ईसाई सलीब, किसी की अनुमति नहीं है; इसलिए राज्यव्यवस्था यह मानती है कि वह सार्वजनिक दायरे में इस तरह के प्रतिबंध लगाकर सही काम कर रही है। दूसरी ओर, भारत में ‘धर्मनिरपेक्षता’ का जो अधिक लचीला रूप है उसके कारण सार्वजनिक दायरे में धर्म पर रोक नहीं है बल्कि दोनों साथ-साथ बने हुए हैं. इस सह-अस्तित्व की सीमाओं पर कर्नाटक हाईकोर्ट इन दिनों विचार कर रही है। 2014 में, रूसी समाचार एजेंसी ‘रूसिया सेगोद्न्या’ ने यूरोप की उदासीन मुस्लिम आबादी में एक सर्वे करवाया था जिसमें पाया गया कि फ्रांस में 15 फीसदी, ब्रिटेन में 7 फीसदी, जर्मनी में 2 फीसदी आबादी के मन में इस्लामिक आतंकवादी गुट की सकारात्मक छवि है. ‘वाशिंगटन पोस्ट’ अखबार के मुताबिक, अगर आंकड़े वास्तव में इतने ऊंचे न हों तब भी वे काफी ऊंचे हैं. उसने बाते कि इन देशों के अलावा यूरोपीय देशों (खासकर बेल्जियम) से लड़ाके आईएसआईएस की मदद के लिए सीरिया और इराक़ पहुंच रहे हैं. इसके विपरीत भारत में 14 फीसदी मुस्लिम आबादी होने के बावजूद चंद लोग ही अफगानिस्तान और लेवांत में तथाकथित जिहाद लड़ने के लिए आगे बढ़ाए जा सके हैं. इसलिए सवाल यह है कि हिजाब पहनना अपनी पसंद का मामला है या नहीं? क्या आप धर्मनिरपेक्षता के विचार को चाकू की नोंक पर लागू कर सकते हैं, जैसा कि फ्रांस ने किया है? या क्या इसका उलटा असर होता है? कर्नाटक हाइकोर्ट जब कि मामले की सुनवाई कर रही है, औरत को पूरे पर्दे में रहना चाहिए या नहीं, कितने पर्दे में और किस तरह पर्दे में रहना चाहिए यह सब जानने के लिए दूसरे देशों के अनुभव शायद काम आ सकें।
(ज्योति मल्होत्रा दिप्रिंट की सीनियर कंसल्टिंग एडिटर हैं, वह @jomalhotra ट्वीट करती हैं. विचार व्यक्तिगत हैं ) (दि प्रिंट से साभार)

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