
इसीलिए अब बीजेपी ने दिया टाइम कम लेकिन वैल्यू ज्यादा!
दीपक कुमार तिवारी
पटना/नई दिल्ली। भाजपा ने अपना धर्म निभाया। नीतीश कुमार ने भी उदारता दिखाई। उपेंद्र कुशवाहा का राज्यसभा जाना पक्का हो गया है। भाजपा की उदारता इस मायने में कि शून्य पर सिमटे सहयोगी को मौका दिया। आरएलएम को एनडीए में मिली एक मनचाही सीट पर उम्मीदवार बन कर उपेंद्र लोकसभा का चुनाव हार गए थे। उनकी वजह से भाजपा को संसदीय चुनाव में कोई लाभ भी नहीं मिला। नीतीश कुमार की उदारता इस मायने में कि उनसे ही नाराज होकर कुशवाहा ने जेडीयू से रिश्ता तोड़ लिया था। बावजूद इसके नीतीश ने ये सुनिश्चित किया कि उपेंद्र कुशवाहा की उम्मीदवारी में कोई ‘अड़ंगा’ न लगे।
राजनीतिक हलके में कयास लगाए जा रहे थे कि राज्यसभा सीटों को लेकर एनडीए में विवाद हो सकता है। जेडीयू की दावेदारी की चर्चा हो रही थी। हालांकि नवभारत टाइम्स.काम ने पहले ही बता दिया था कि राज्यसभा की दोनों सीटें भाजपा लेगी और विधानसभा या विधान परिषद में जेडीयू की भरपाई कर देगी। नीतीश कुमार को बिहार की राजनीति के लिए और भाजपा को केंद्र के लिए यह प्रासंगिक है। भाजपा अपनी एक सीट उपेंद्र कुशवाहा को देने की घोषणा पहले ही कर चुकी थी। दूसरे नाम पर जरूर कयास लगाए जा रहे थे। आरके सिंह, आरके सिन्हा और शाहनवाज हुसैन के नाम सियासी फिजा में तैर रहे थे। मनन मिश्रा को उम्मीदवार बना कर भाजपा ने सबको चौंका दिया।
बिहार में राज्यसभा की दो सीटें खाली हुई हैं। भाजपा के विवेक ठाकुर लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए हैं। आरजेडी की मीसा भारती भी लोकसभा पहुंची हैं। दोनों सीटों में एक की मियाद थोड़ी लंबी है तो दूसरी की उससे आधी यानी दो साल। उपेंद्र कुशवाहा दो साल के लिए ही सांसद बनेंगे। संभव है कि कुशवाहा मोदी मंत्रिमंडल के अगले विस्तार में मंत्री पद भी पा जाएं। पर, सवाल उठता है कि भाजपा ने उन्हें छोटी मियाद की सांसदी का ही अवसर क्यों दिया?
भाजपा का उपेंद्र कुशवाहा को लेकर पुराना अनुभव अच्छा नहीं रहा है। 2014 में कुशवाहा एनडीए का हिस्सा थे। तीन सांसदों वाली पार्टी के नेता की हैसियत से नरेंद्र मोदी ने उन्हें मंत्री पद भी दिया। पर, 2018 से ही उपेंद्र ने नखरे दिखाने शुरू कर दिए। 2019 के चुनाव में उन्होंने अधिक सीटों की मांग कर दी। भाजपा ने नहीं दी तो एनडीए से अलग हो गए। उनकी पार्टी का कोई कैंडिडेट नहीं जीता। यहां तक कि वे भी चुनाव हार गए। संभव है कि इसी वजह से भाजपा ने उन्हें छोटी मियाद का मौका दिया हो। इस बीच भाजपा के प्रति उनकी लॉयल्टी का टेस्ट भी हो जाएगा।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि भाजपा ने उपेंद्र कुशवाहा को राज्यसभा उम्मीदवार बनाने की घोषणा के लिए सम्राट चौधरी का चयन किया। हालांकि तब सम्राट को प्रदेश अध्यक्ष रहने के नाते इसका अधिकार था। जिस तरह प्रदेश के भाजपा नेताओं से उम्मीदवार चयन की कवायद करा कर पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने मनन मिश्रा के नाम का ऐलान किया, उसी तर्ज पर उपेंद्र कुशवाहा के नाम की घोषणा क्यों नहीं हुई? इस बीच भाजपा ने सम्राट को प्रदेश अध्यक्ष पद से भी हटा दिया। सनद रहे कि सम्राट चौधरी और उपेंद्र कुशवाहा एक ही बिरादरी से आते हैं। दोनों खुद को कोइरी बिरादरी का नेता होने का दावा करते हैं।यह बात भी राजनीतिक हल्के में खूब चर्चित रही कि उपेंद्र का कद घटाने के लिए सम्राट चौधरी ने लोकसभा चुनाव में उनकी मदद नहीं की। नतीजतन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। संभव है कि भाजपा की समीक्षा में भी इसकी भनक लगी हो। शायद यही वजह रही कि भाजपा ने उपेंद्र कुशवाहा के नाम की घोषणा के लिए सम्राट का ही चयन किया हो। इससे कुशवाहा समाज का भ्रम भी दूर हो जाएगा और कुशवाहा नेता बनने की होड़ खत्म हो जाएगी।