
डॉ. सुनीलम
समाजवादी आंदोलन में सक्रिय नेताओं ने गत 90 वर्षों में क्या किया यह हम सब जानते ही है। स्वतंत्रता आंदोलन-समाजवादी आंदोलन में नेताओं और कार्यकर्ताओं द्वारा दी गई कुर्बानियों से भी हम भली भांति परिचित है। 45 वर्ष पहले से मेरी रुचि समाजवादी आंदोलन का कार्यकर्ता बनने के बाद से समाजवादी आंदोलन का इतिहास जानने और विश्लेषण में रही है इसलिए 101 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ जी जी परीख की प्रेरणा और समाजवादी समागम के साथियों के साथ मिलकर समाजवादी आंदोलन के 82, 85 और अब 90 वर्ष पूरे होने पर समाजवादियों द्वारा आयोजित किए गए कार्यक्रमों के आयोजन में सक्रिय रहा हूं।
समाजवादी आंदोलन के पार्टी वाले पक्ष को अत्यधिक महत्व दिया जाता है यानी ज्यादातर लोग इस बात को जानने में रुचि लेते हैं कि सोशलिस्ट पार्टियों ने क्या किया ? यह पार्टी तंत्र और सरकारों से जुड़ा पक्ष है । यह पक्ष महत्वपूर्ण हो है लेकिन समाजवादी आंदोलन को संपूर्ण तौर पर जानने के लिए हमे गैर पार्टी, किसान, मजदूर, युवा, महिला, दलित, पिछड़ा वर्गों के समाजवादी संगठनों, जन आंदोलनकारी समूहों, लेखकों, पत्रकारों, कलाकारों, गीतकारों, कहानीकारों, बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों के द्वारा किए गए योगदान को भी जानना जरूरी है। क्या यह सही नहीं है कि 17 मई 1934 को कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के पटना के अंजुमन इस्लामिया हाल में 100 समाजवादियों द्वारा गठित किए जाने के पहले कई समाजवादी समूह और सोशलिस्ट पार्टियां सक्रिय थीं ? 1917 में ही रूसी क्रांति और उसके पहले कार्ल मार्क्स द्वारा कम्युनिस्ट पार्टी मेनिफेस्टो लिखें जाने के बाद से ही देश में तमाम समाजवादी समूह बन गए थे। ठीक उसी तरह जैसे
स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में 1857 में हुई बगावत को विशेष अहमियत दी जाती है लेकिन उसके पहले भी मुगलों के खिलाफ संघर्ष चल रहे थे, बगावतें हो रही थीं। जिसके हजारों उदाहरण इतिहास में दर्ज है । अंग्रेजों ने सूरत में अपना पहला कारखाना 1613 में स्थापित किया था। यह ईस्ट इंडिया कंपनी की पहली व्यापारिक कोठी थी। 1612 में, कैप्टन थॉमस बेस्ट ने सूरत के समुद्र में पुर्तगालियों को हराया था, जिसके बाद जहांगीर ने अंग्रेजों को सूरत में कारखाना स्थापित करने की अनुमति दे दी थी।
रॉबर्ट क्लाइव ने सिराजुद्दौला पर 23 जून 1757 को प्लासी के युद्ध में हमला किया था। क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने सिराजुद्दौला के खिलाफ प्लासी में लड़ाई जीती थी। जिसका प्रमुख कारण जगत सेठ और मीर जाफ़र की गद्दारी माना जाता है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने धीरे-धीरे देश के अधिकतर हिस्से पर कब्जा कर लिया। बाद में कंपनी राज अंग्रेजी राज्य में तब्दील हो गया यानी कि 1857 के बहुत पहले से ही मुग़ल काल में मुगलों के खिलाफ संघर्ष और कुर्बानियां दी गई थीं । उसी तरह अंग्रेजों के अन्याय, अत्याचार, लूट के साथ-साथ जमींदारों, रियासतदारों, साहूकारों के खिलाफ भी संघर्ष जारी रहा। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मुगलों, अंग्रेजों और 15 अगस्त 1947 के बाद आजाद भारत में बनी सरकारों के खिलाफ संघर्ष होता रहा है।
स्वतंत्रता, समता हासिल करने की चाहत इसके पीछे रही है।
जितना पुराना हमारा गुलामी का इतिहास है उतना ही पुराना उसके खिलाफ संघर्ष का इतिहास है। यह लेख 90 वर्ष के समाजवादी आंदोलन और उसके आगे क्या कुछ हो सकता है वहां तक सीमित कर रहा हूं। समाजवादी आंदोलन, उपलब्धियां और कमियां- हम उपलब्धियां और कमियों की विस्तृत गाथा लिख सकते हैं लेकिन मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि समाजवादी आंदोलन ने आजादी के आंदोलन में बड़े पैमाने पर युवाओं को समाज परिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन के लिए प्रेरित किया, देश में जमींदारी खत्म करने और राजशाही खत्म करने का आंदोलन, चौखंबा पंचायती व्यवस्था लागू करने का आंदोलन, गोवा मुक्ति आंदोलन, नेपाल, बर्मा में लोकतांत्रिक बहाली का आंदोलन, इमरजेंसी- देश में तानाशाही का मुकाबला करना, जेपी के नेतृत्व में छात्र आंदोलन, गैट और डंकल ड्राफ्ट के खिलाफ जन आंदोलन, बैंकों, रेलवे, खदानों के निजीकरण को खत्म करने का आंदोलन, मंडल कमीशन की सिफारिश को लागू करने तथा जाति जनगणना का आंदोलन, विकास की वैकल्पिक अवधारणा विकसित करने के लिए आंदोलन चलाने आदि में विशिष्ट योगदान किया है।
समाजवादियों की वैचारिक प्रतिबद्धता, अदम्य साहस, कुर्बानी में कोई कमी नहीं रही है। मोटे तौर पर स्वतंत्रता, लोकतंत्र, समता, सर्वधर्म समभाव और बंधुत्व के मूल्यों को समाजवादियों ने अपने जीवन दृष्टि के तौर पर अंगीकार किया लेकिन कमी यह रही कि व्यक्तिवाद, ईर्ष्या, जलन, प्रतिस्पर्धा, अति महत्वाकांक्षा जैसी मानवीय कमजोरियों से समाजवादी कभी ऊपर नहीं उठ सके।
जिसके चलते समाजवादियों के समूह संगठन और पार्टियां टूटती-बिखरती रहीं। इन कमियों को दूर करने के लिए जो संस्थागत और प्रक्रियात्मक तरीके हो सकते थे, वह नेतृत्वकर्ता समूह द्वारा तैयार नहीं किये जा सके।
प्रश्न यह है कि क्या समाजवादी समूह के तौर पर हम जिस तरह अपनी उपलब्धियों का श्रेय लेते हैं, उसी तरह क्या हम अपनी गलतियों और कमियों को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करने के लिए तैयार है ? यह तभी संभव है जब हम यह मान लें कि हमारे नेता भी इंसान थे और उनसे गलतियां हो सकती हैं, होती रही हैं। हम इन गलतियों को सिर झुकाकर स्वीकार करने को तैयार है। यह दोहराने की जरूरत है कि यह गलतियां केवल व्यक्तिगत कारणों से नहीं, संगठनों के भीतर संस्थागत प्रक्रियाएं उपलब्ध नहीं होने के कारण हुई जिसके चलते व्यक्ति संगठन पर हावी हो गया, कई बार तो संगठन के ऊपर हो गया। दूसरी तरफ ऐसा भी हुआ कि अनुशासन के नाम पर अनावश्यक कार्यवाहियां की गई। वही सिलसिला आज भी जारी है। अर्थात 90 वर्ष के इतिहास से समाजवादियों ने
अपनी मानवीय कमजोरियों पर संस्थागत तौर पर अंकुश लगाने का कोई मैकेनिज्म विकसित नहीं किया है।
वर्तमान चुनौतियां
यह तय करने के लिए कि हम क्या करें, वर्तमान समस्याएं जिन्हें हम चुनौतियों के तौर मानते हैं, उन्हें रेखांकित करना जरूरी है।
सांप्रदायिक हिंसा, घनघोर जातिवाद, गरीबी, अशिक्षा,
स्वास्थ्य सेवाओं, रोजगार का अभाव, किसान, किसानी और गांव का योजनाबद्ध खात्मा, राज्य दमन, गैर बराबरी, तानाशाही जैसी 360 समस्याओं का जिक्र किया जा सकता है।
ऐसा नहीं है कि यह समस्याएं आज पैदा हो गई हैं। लेकिन इनके हल के लिए सरकारों द्वारा जो कुछ किया जाना चाहिए था, वह नहीं किया गया। सरकारें जनता के कल्याण के लिए बनाई जाती है। अन्याय, अत्याचार, शोषण, लूट के लिए नहीं। 2014 से 2025 के बीच भाजपा – एनडी ए के अमृतलाल में, देश की समस्याएं विकराल रूप धारण कर चुकी हैं।
असल में जनता की नाराजगी केवल भाजपा की सरकारों से नहीं है। जहां-जहां विपक्ष की भी सरकारें है वहां भी भ्रष्टाचार, राज्य दमन, वायदा खिलाफी चल रही है। किसानों, मजदूरों, महिलाओं, आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यों पर अत्याचार हो रहे हैं। असल में पूरे राजनीतिक तंत्र पर माफिया हावी है, शराब माफिया, जमीन माफिया, रेत माफिया, ड्रग माफिया और भ्रष्टाचारी तंत्र के गठजोड़ से तंत्र चल रहा है, जिसमें व्यक्ति तो अलग-अलग पार्टियों के चुने जाते हैं लेकिन माफिया तंत्र के आगे या तो जनप्रतिनिधि समर्पण कर देते हैं या उसका हिस्सा बन जाते हैं। गिनी चुनी आवाज़ सदन में गुंजती है।
मुख्य चुनौती यह है कि राष्ट्रीय ग्रंथ के तौर पर जिस संविधान को ‘हम भारत के लोगों’ द्वारा अंगीकार किया गया, उस संविधान को सत्तारूढ़ पार्टी और संघ परिवार स्वीकार करने को तैयार नहीं है। संविधान की उद्देशिका में उल्लेखित सिद्धांतों और मूल्यों का विस्तार से उल्लेख करने की आवश्यकता मुझे नहीं लगती फिर भी यह उल्लेख करना जरूरी है कि स्वतंत्रता, लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और बंधुत्व के मूल्य खतरे में है। इन चुनौतियों का मुकाबला करने के लिए सबसे पहले संविधान में उल्लेखित नागरिक अधिकारों की जानकारी देश के हर नागरिक तक पहुंचाना जरूरी है। मेरा यह आरोप है कि सरकारों ने जान बूझकर संविधान प्रदत्त अधिकारों की जानकारी नागरिकों तक नहीं पहुंचने दी। अगर सरकारें चाहती तो भारत के आजाद होने के बाद जब आबादी केवल 35 करोड़ थी, मोटे तौर पर 5 करोड़ परिवार तक संविधान की उद्देशिका को पहुंचाया जा सकता था लेकिन तब से लेकर आज तक जानबूझकर सरकारों ने ऐसा नहीं किया। इसी से पहला कार्यक्रम निकलता है। मेरी मान्यता है कि सबसे ज्यादा संवैधानिक मूल्य और सिद्धांतों की अवहेलना सरकारों द्वारा की जा रही है। जब-जब जहां जहां अवहेलना होती है, तब हमें अवहेलना करने वाले को चिन्हित कर दंडित करने की जरूरत है। मिसाल के तौर पर भारत के संविधान किसी भी व्यक्ति, जाति, धर्म, भाषा, लिंग और रंग के आधार पर भेदभाव करने और नफरत और घृणा की भाषा बोलने से रोकता है। मुझे लगता है कि यदि हम केवल संविधान की मंशा के अनुसार नफरत और घृणा फैलाने वाले समूहों पर कानूनी कार्यवाही करा पाएं तो भी ‘आईडियल ऑफ़ इंडिया को बचाने में हम काफी आगे बढ़ सकते हैं।
इसी तरह दूसरा मुद्दा संपत्ति के विकेंद्रीकरण का है। स्वतंत्रता आंदोलन और समाजवादी आंदोलन के मनीषियों ने इसी मंशा से सत्ता के विकेंद्रीकरण और मजबूत कल्याणकारी राज्य की वकालत की थी लेकिन वास्तविकता यह है कि सत्ता का लगातार केंद्रीकरण होता गया। भले ही पंचायती राज को मजबूती देने के लिए संविधान में 73 वां और 74 वां संशोधन किया गया लेकिन आज की वास्तविकता यह है कि देश की सत्ता चार लोगों के हाथ में सिमटी हुई है। मोदी-अमित शाह, अडानी -अंबानी देश को चला रहे हैं। इन चारों के अलावा वास्तविक तौर पर सत्ता पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय), सीएमओ (मुख्यमंत्री कार्यालय) डीएमओ (जिलाधीश कार्यालय) और पी एस ओ ( पुलिस स्टेशन प्रभारी या थानेदार) तक सीमित है।
विकेंद्रीकरण के संघर्ष को पावर टू द पीपुल तक पहुंचाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए।
देश भर में यह मानसिकता काम करने लगी है कि सत्ता- सरकार के बिना कुछ नहीं बदला जा सकता। इस पर भी बहस हो सकती है कि यह सही है या गलत क्योंकि निर्णय तो सब सरकार ही लेती है लेकिन अपने आप से यह पूछना चाहिए कि क्या कभी ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, नानक, रैदास, कबीर, गांधी, लोहिया, जयप्रकाश, अंबेडकर की सत्ता कायम हुई ? वे तो सदा सत्ता को चुनौती भी देते रहे। उन्होंने समाज, देश और उस समय की सत्ताओं को चुनौती दी।
डॉ जी जी पारीख हम लोगों से यह बार-बार कहते हैं कि यह मान लो कि समाजवादियों की सत्ता अगले 10 साल केंद्र में नहीं आने वाली है। ऐसे समय में व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में क्या कर सकते हो, वह करो। मुझे लगता है कि हमारा सोचने का रवैया भी यही होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि हमें सत्ता नहीं चाहिए और यह भी सच नहीं है कि हम वर्तमान सरकारों को नहीं बदलना चाहते, जरूर बदलना चाहते हैं लेकिन यह चाहत पूरी होने वाली न हो तो क्या करें?
इन्हीं प्रश्नों से हमारी समस्याओं का हल निकलता है। बाबा साहब ने कहा था शिक्षित हो, संगठित हो, संघर्ष करो! हमें इसी कार्य को राष्ट्रीय स्तर पर करने की जरूरत है।
एक बात मैं बहुत अरसे से करता रहा हूं कि संघ परिवार से वैचारिक स्तर पर मुकाबला करने के लिए यह जरूरी है कि हम संविधान शाखाएं लगाना शुरू करें। यह शाखा वैसे तो हर गांव और मोहल्ले में लगाई जाना चाहिए लेकिन विशेष तौर पर जहां कहीं भी आरएसएस की शाखाएं लगती है उसके 100 मीटर दूर संविधान शाखाएं लगाई जाए। जहां संविधान और स्वतंत्रता आंदोलन के गीत गाये जाएं, नाटक किये जाए, संविधान को लेकर लोक शिक्षण किये जाए। यह काम देशभर में राष्ट्र सेवा दल की शाखाएं लगाकर किया जा सकता है। संविधान में विश्वास रखने वाले नागरिकों, संगठनों, पार्टियों को इस प्रयास से जोड़ना चाहिए
जनवादी विकल्प का अभाव:जनांदोलन से हो सकता है बदलाव
इस समय देश में जो परिस्थिति है, उसमें राजनीतिक विकल्प का अभाव है। जो भी पार्टी स्तर पर विकल्प है वह
इंडिया गठबंधन लुंज-पुंज तरीके से देने की कोशिश कर रहा है ।
इसके बावजूद हम यह देख रहे हैं कि जनता अपने वोट से सत्तारूढ़ दल को हरा रही है। यह बात अलग है कि जनादेश को ईवीएम के माध्यम से, सरकारी मशीनरी, ध्रुवीकरण, कॉर्पोरेट के पैसे से चुरा लिया जा रहा है। बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र की कहानी और 2024 के आमचुनावों की कहानी एक जैसी है।
सवाल यह है कि तीनों एजेंसियों और चुनाव आयोग को कैसे निष्पक्ष कार्य करने के लिए तैयार किया जा सकता है?
बीमारी अब कैंसर का रूप ले चुकी है जिसके लिए बड़े ऑपरेशन की जरूरत है। यह ऑपरेशन जनांदोलन के माध्यम से ही संभव है ।
प्रभावकारी जन आंदोलन के माध्यम से ही वर्तमान स्थिति को बदला जा सकता है।
जन आंदोलन की ताकत के आगे कितनी भी शक्तिशाली सरकार क्यों न हो, उसे झुकना पड़ता है। हमने यह मोदी राज में कई बार होते देखा है। 2014 में जब सरकार बनी तब 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने की कोशिश की गई लेकिन किसानों ने भूमि अधिकार आंदोलन के माध्यम से आंदोलन चलाकर सरकार के इस प्रयास को असफल कर दिया। जब तीन किसान विरोधी कानूनों को मोदी सरकार ने लागू किया तब संयुक्त किसान मोर्चा ने 380 दिन तक आंदोलन चलाकर, 750 किसानों ने शहादत देकर उन कानून को वापस करा दिया। सीएए- एनआरसी के विरोध में मुस्लिम महिलाओं ने शाहीन बाग के नाम से जाने गए राष्ट्रव्यापी आंदोलन चलाये जिसके परिणामस्वरूप सरकार आज तक उस कानून को लागू नहीं कर सकी। इसी तरह सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से सरकार ने आदिवासियों के वन अधिकार कानून के तहत निरस्त हुए दावों की आड़ में आदिवासियों को उजाड़कर जंगल को कॉरपोरेट को सौंपने का प्रयास किया, जिसे आदिवासियों ने विफल कर दिया। इसी तरह दलितों के आरक्षण के साथ छेड़खानी का प्रयास हुआ, जिसे दलितों ने आंदोलन चलाकर विफल कर दिया, जिसमें 13 से अधिक आंदोलनकारी शहीद हुए। सरकार ने ड्राइवर को सजा देने का नया हिट एंड रन कानून बनाया जिसे ड्राइवरों में हड़ताल कर असफल कर दिया। दो माह पूर्व केंद्र सरकार 1961 के अधिवक्ता कानून में संशोधन करने नया अधिवक्ता (संशोधन) विधेयक-2025 कानून लेकर आयी, जिसे वकीलों के राष्ट्रव्यापी आंदोलन के चलते तत्काल वापस लेना पड़ा।
निचोड़ यह है कि जन आंदोलन के माध्यम से कितनी भी ताकतवर सरकार हो, उसे झुकाया जा सकता है। किसी मुद्दे को लेकर यदि जनता के बीच भावना बन जाती है, तब पैसा, जाति, सरकारी मशीनरी सभी के इस्तेमाल की सभी तिकड़में असफल हो जाती है इसलिए आंदोलन पर आम लोगों का विश्वास कैसा बना रहे और बढ़ता जाए यह प्रयास सतत रूप से करने की जरूरत है। संयुक्त किसान मोर्चा ने आंदोलन का एक मॉडल देश और दुनिया के सामने पेश किया, जिसकी मुख्य विशेषता सामूहिक नेतृत्व, अपने संसाधन, सत्याग्रह और अपना सोशल मीडिया है। इस मॉडल पर चलकर लोकतंत्र और संविधान बचाने का काम समाजवादियों को करना चाहिए। आंदोलन के बाद जो भी नई सरकार बनती है उस सरकार पर भी आंदोलन का सतत दबाव बना रहना जरूरी है।
पार्टियां सरकार बनाती है, पार्टियों के भीतर कोई आंतरिक लोकतंत्र नहीं है। पूंजी, जाति और ताकत से पार्टियों में नेतृत्व हासिल करने का चलन है इसलिए पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र स्थापित करना, पार्टियों में वैचारिक कार्यकर्ताओं और नेताओं को उचित स्थान मिले यह तभी सुनिश्चित हो सकता है जब पार्टी का प्रभावशाली वैचारिक संगठन हो। यह साफ है कि एक तरफ जहां जन आंदोलन खड़ा करने की जरूरत है, वहीं दूसरी तरफ यह भी जरूरी है कि आंदोलन का नेतृत्व करने वाला नेतृत्व वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध हो, संगठन कसा तथा सत्ता की चकाचौंध में पदभ्रष्ट न हो सके अर्थात समाजवादियों के सामने मुख्य चुनौतियां है कि वह नये मनुष्य, नये समाज के दीर्घ कालीन उद्देश्य के लिए देश में समाजवादियों की वैकल्पिक राजनीति को स्थापित करने की तैयारी करें। तत्कालीन लक्ष्य सरकार परिवर्तन हो सकता है लेकिन दीर्घकालिन लक्ष्य व्यवस्था परिवर्तन ही होना चाहिए जिसके लिए हमारे पुरखों ने आजीवन कार्य किया था।
रचनात्मक कार्य और कार्य करने के तरीके
गत 40 वर्षों के सार्वजनिक जीवन के अनुभवों के आधार पर आपको कुछ बिंदूवार सुझाव दे रहा हूं
1) हम यह सुनिश्चित करें कि संविधान में दिए गए नागरिक अधिकारों की जानकारी हर नागरिक तक पहुंचें। इसके लिए दो काम किये जा सकते हैं । पहला तो यह कि हम सत्तारूढ़ सरकारों को संविधान की प्रतियां हर परिवार तक पहुंचाने के लिए मजबूर करें। यह काम स्कूलों, कालेजों, संस्थाओं, शासकीय विभागों के माध्यम से किया जा सकता है। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि हम नागरिक समाज के लोग खुद यह जिम्मेदारी अपने हाथ में लें, देशभर में संविधान जागृति अभियान चलाएं। बहुत सारे साथी यह कह सकते हैं कि यह काम तो हम कर ही रहे हैं, कौन सी बड़ी बात है। मैं सहमत हूं लेकिन नई बात यह है कि संविधान जागृति के काम में लगे व्यक्तियों, समूहों, संगठनों और पार्टियों की संख्या बहुत सीमित है। उस संख्या का विस्तार इतना करना है कि हमारा अभियान 146 करोड़ लोगों तक पहुंच सकें। संविधान को लेकर स्थिति इतनी बदतर है कि देश में अपने कार्यक्रम करते हुए मैं जब यह पूछता हूं कि कार्यक्रम में उपस्थित कितने लोगों ने संविधान की प्रतियां देखी है ? तब पता चलता है कि अधिकतर लोगों ने नहीं देखी है।
2) राष्ट्र सेवा दल की शाखा भी मोहल्ले में राष्ट्रीय ध्वज लेकर शुरू की जा सकती है। जहां योगाभ्यास, व्यायाम, क्रांति गीत सिखाए जा सकते हैं। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों का जीवन परिचय भी नियमित दिया जा सकता है। राष्ट्र गीत से शाखाओं का समापन किया जाना चाहिए।
स्थानीय निजी विद्यालयों से संपर्क कर वहां राष्ट्र सेवा दल के शिविर लगवाने का प्रयास कर सकते हैं। शिविर में प्रशिक्षक राष्ट्र सेवा दल के पुणे स्थित केंद्रीय कार्यालय से संपर्क कर बुलाये जा सकते है।
3) सोशलिस्ट स्टडी सर्किल शुरू किए जा सकते हैं। गांधी जी, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ लोहिया, जे पी, कमलादेवी चटोपाध्याय, यूसुफ मेहर अली जैसे स्वतंत्रता सेनानियों और समाजवादियों की किताबों का वाचन, अलग अलग समसामयिक घटनाओं और मुद्दों का विश्लेषण तथा बहस जरूरी है।
4) स्थानीय स्तर पर आजादी के आंदोलन या उसके बाद सक्रिय रहे समाजवादी नेताओं के नाम से समाजवादी प्रशिक्षण केंद्र एवम् वाचनालय की स्थापना की जा सकती है । जहां प्रगतिशील साहित्य एकत्रित किया जाना चाहिए । यह केंद्र भले कुछ घंटे खुले लेकिन नियमित केंद्र संचालित होना चाहिए। प्रदेश और देश के कुछ अखबारों को नियमित खरीदकर वाचनालय चलाया जा सकता है।
5) भेदभाव, अन्याय, शोषण, अत्याचार, भ्रष्टाचार, हिंसा, झूठ, गैर-बराबरी, संवैधानिक अधिकारों पर हमलों के खिलाफ आवाज बुलंद करना, महिलाओं, निराश्रितों, अपंगों, आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यक वर्गों और पिछड़े वर्गों से जुड़ी शिकायतों के खिलाफ आवाज व्यक्तिगत स्तर या संगठन स्तर पर उठाई जा सकती है । तमाम घटनाएं कम से कम सोशल मीडिया के माध्यम से उठाई जा सकती हैं। किसी भी घटना को उठाने के पहले पीड़ित से मुलाकात करना, शिकायत का आवेदन प्राप्त करना, प्रशासन, पुलिस, मानव अधिकार संगठनों तक शिकायत पहुंचाना, संभव हो तो एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए धरना, प्रदर्शन, घेराव, आमसभा, सम्मेलन करना , संभव नहीं हो तो प्रेस वार्ता करना, शिकायत स्थानीय जनप्रतिनिधियों तक अवश्य पहुंचाना, आवेदन के साथ शिकायत के प्रमाण और कार्यवाही के समर्थन में आम लोगों के हस्ताक्षर जरूर जुटाना, जनसमर्थन जुटाने के सबसे प्रभावकारी तरीके हो सकते हैं।
6) शिकायत वापस कभी भी नहीं ली जानी चाहिए । शिकायत वापस लेने से विश्वसनीयता समाप्त होना तय है। पीड़ित व्यक्ति के साथ बराबर संपर्क रखना, उसकी जरूरतों को पूरा करने के लिए आर्थिक संसाधन भी जुटाने की कोशिश करना सघन कार्य का तरीका हो सकता है।
वंचित तबके के व्यक्तियों के साथ दोस्ताना संबंध विकसित करने का प्रयास करना, विशेष तौर पर दलित, अतिपिछड़े, अल्पसंख्यक, आदिवासी और महिला साथियों के सुख दुख में साथ रहने की कोशिश करना जरूरी है। यदि मुसीबत में पूरे परिवार के साथ खड़ा रहा जाएगा तो कार्यक्रमों में इन साथियों का सहयोग अवश्य मिलेगा। त्योहारों में, सामाजिक कार्यक्रमों में मिलने का महत्व बहुत होता है यह अनुभव बतलाता है ।
7) इलाके में सक्रिय समाजवादी संगठनों से खुद अपनी ओर से संपर्क करना, यदि समाजवादी संगठन आपके इलाके में न हों तो गांधीवादी, सर्वोदयी, वामपंथी और जन संगठनों, किसान संगठनों, आदिवासी, महिला, दलित, अल्पसंख्यक वर्गों संगठनों, हिन्द मजदूर सभा, राष्ट्र सेवा दल, वामपंथी श्रमिक संगठनों और असंगठित क्षेत्र में यूनियन और सांस्कृतिक संगठन, प्रगतिशील लेखक संघ के साथ जुड़कर काम आगे बढ़ाया जा सकता है। स्थानीय स्तर पर प्रगतिशील वकीलों, पत्रकारों, डॉक्टरों, कलाकारों, अधिकारियों, कर्मचारी नेताओं से संपर्क करना जरूरी होता है, धार्मिक संगठनों से जुड़ना भी जरूरी है। यही वे माध्यम हैं जिनसे आप अपनी बात समाज के विभिन्न तबकों तक पहुंचा सकते हैं।
8) नियमित रक्तदान , नियमित रक्तदान शिविर आयोजित करने वाले संगठनों के साथ काम करने की जरूरत है।
9) समाजवादी नेताओं के जन्मदिन और निर्वाण दिवस के साथ-साथ 17 मई 1934 को कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का स्थापना दिवस, 9 अगस्त को जनक्रांति दिवस मनाए जाने चाहिए ।
10) स्थानीय स्तर पर वकीलों से मिलकर कोशिश करना चाहिए ताकि गरीब पीड़ितों को कानूनी सहायता दिलाई जा सके। अन्यथा शासन के स्तर पर यह जिले में विधिक सहायता केंद्र गठित किया गया है, इस सुविधा का लाभ संपर्क में आये गरीब साथियों को दिलवाया जा सकता है ।
11) समाजवादी कार्यकर्मों को संचालित करने के लिए आर्थिक संसाधन जरूरी है। उसके लिए अपने मित्रों और रिश्तेदारों से मदद मांगनी चाहिए। अपने काम संबंधी पर्चे छपवाकर , संस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से आर्थिक संसाधन जुटाने का प्रयास होना चाहिए।
यदि अधिक संसाधन किसी नेता, व्यापारी, नेता, ठेकेदार से लिए जाते हैं तो वह संगठन किसी व्यक्ति की कठपुतली बन कर रह जाता है। जिसके चलते विश्वसनीयता घट जाती है।
विश्वसनीयता ही सामाजिक और राजनीतिक कार्य की सबसे मुख्य पूंजी है। 5 साथियों के साथ समूह बखूबी शुरू किया जा सकता है। अपनी आय का एक हिस्सा (10 प्रतिशत हो सबसे अच्छा अन्यथा कम से कम 500 रुपये महीना) इकट्ठा कर काम की शुरुआत की जा सकती है।
सार्वजनिक स्थानों पर बैठक कर , बैठक की जानकारी सोशल मीडिया से अधिकतम लोगों तक पहुंचाने का प्रयास किया जाना चाहिए । मिलकर चर्चा करना, गीत गाना, किताबें पढ़ने, खाने, पकाने, खेलने और अन्य संगठनों के कार्यक्रमों में साथ जाकर शामिल होने की आदत डालने से समूह निर्माण में मदद मिलती है।
12) समूह मजबूत होने पर कार्यालय किराए से लिया जा सकता है या कोइ साथी अपनी ओर से उपलब्ध करा सकता है। समुह की अपनी लाइब्रेरी बनाई जा सकती है ।महीने में सभी सदस्य एक अपनी रुचि की किताब खरीदकर, फिर वह किताब बारी बारी से सभी पढ़कर और उनपर चर्चा की जा सकती है ।
13) समूह के सुचारू संचालन के लिए यह आवश्यक है कि समूह चलाने की नियमावली सभी साथियों की सहमति से तैयार की जानी चाहिए । कब मिलना है? कितने समय मिलना है? किस तैयारी के साथ मिलना है? क्यों मिलना है, यह स्पष्ट होना चाहिए। समूह के लक्ष्यों के निर्धारण भी निरंतर होते रहना आवश्यक है। समूह संबंधी संक्षिप्त जानकारी सदस्यों के परिवारजनों तक पहुंचाना जरूरी है। इसलिए कोशिश होनी चाहिए कि समूह के साथी एक दूसरे के परिवारों से मिलते जुलते रहें।
14) अकसर मुझसे साथी पूछते हैं, नए क्षेत्र में काम कैसे शुरू करें? मेरा जो सुझाव रहता है, उसको समाजवादी कार्यकर्ता भी अपना सकते हैं। जिस भी क्षेत्र में आप काम शुरू करना चाहते है, वहां घूमे, लोगों से मिले, उनकी समस्याएं पूछे। पूरे इलाके की सबसे महत्वपूर्ण 5 समस्याओं को चिन्हित करें। जैसे बेरोजगारी, पीने के पानी, सिंचाई, बिजली नहीं मिलने, अस्पताल या स्कूल से जुड़ी समस्याएं। इन समस्याओं को लेकर एक पर्चा निकालें जिसमें यह सवाल हो कि इन समस्याओं के लिए जिम्मेदार कौन है और समाधान कौन करेगा? बैठक का एक स्थान तय कर सार्वजनिक स्थान पर बैठक बुलाएं। उसमें सभी से विचार परामर्श कर समस्यों को हल करने के लिए संगठन की जरूरत पर सहमति बनाएं, सबके साथ संगठन का नाम तय करें। संगठन के नाम के साथ पंचायत, सभा, समिति जोड़ें। संगठन के संयोजन के लिए समिति बनाएं। एक पता तय करें और अगली बैठक का समय और स्थान भी। अगला पर्चा प्रमुख साथियों के नाम, मोबाईल नंबर और संगठन के पते के साथ छापे। समस्याओं के हल के लिए अधिकारियों को ज्ञापन देने और ज्ञापन में धरना आंदोलन की चेतावनी दें। इस तरह संगठन का काम किसी भी क्षेत्र में शुरु किया जा सकता है। इस काम को आगे बढ़ाने के लिए नियमित समय देना, लोगों की समस्याओं के निराकरण के लिए उपलब्ध रहना, स्थानीय संसाधनों से ही संगठन चलाना, खुद पर्चे, पोस्टर, गाने, दीवार लेखन, कार्यक्रम के प्रचार के लिए साथियों को तैयार करने की जरूरत होगी। आचरण से ही आपकी विश्वसनीयता बनेगी।
15) कुछ बातों के सम्बन्ध में पहले दिन से स्पष्टता जरूरी है- 1. जो भी काम किया जा रहा है, वह सार्वजनिक हित के लिए है किसी के व्यक्तिगत हित साधने के लिए नहीं। 2. संसाधन किसी एक व्यक्ति द्वारा नहीं समाज से एकत्रित कर लगाए जाएंगे 3. सभी निर्णय साथियों के बीच होंगे, कुछ पदाधिकारियों के बीच नहीं। 4. संगठन के सभी साथियों को आम राय से तय की गई आचार संहिता का पालन करना होगा जैसे नशा नहीं करना, खादी पहनना, सर्व धर्म प्रार्थना करना, खुद परिवार में या बाहर हिंसा नहीं करना। जाति, धर्म, भाषा, लिंग, रंग, क्षेत्र के आधार पर भेदभाव नहीं करना, साल में एक बार रक्त दान करना, साल में कम से कम 10 पेड़ लगाना आदि संहिता के मुद्दे हो सकते हैं।