
अपने आप को हम पत्रकार कहते हैं। लेकिन क्या हम और आप सचमुच पत्रकार हैं? नहीं! हम और आप अपने अपने संस्थान के नौकर हैं। जैसा मालिक कहता है उसी के अनुरूप हमारा कलम लिखता है। अगर ऐसा नहीं होता तो हमें गोदी मीडिया की संज्ञा नहीं दी जाती। हमारा मालिक अगर सरकार/अपने संरक्षणकर्ता का आठ आना चमचई करने को कहता है तो हम बारह आना करने लगते हैं। ऐसा करने के पीछे हमारी मंशा शानदार सुख सुविधा से लैस जीवन जीने की रहती है।
कभी कभी तो मेरे जेहन में यह बात आती है कि जिस तरह यूपीएससी की कठीन परीक्षा पास करने के बाद ट्रेनिंग के दौरान समाज से कट कर रहने की जो सीख मिलती है, क्या उसी तरह की सीख पत्रकारिता की शिक्षा देने के लिए खुले संस्थानों में भी दी जाती है? IAS/IPS बनकर निकले लोग आमलोगों से कट कर रहते हैं। वैसी ही सीख क्या पत्रकारिता की शिक्षा के लिए खुले संस्थानों द्वारा भी दी जाती है कि जब आप पत्रकार बन कर अपनी सेवा देने लगो तो जी-हजूरी और धन उगाही में लग जाओ। माफ करेंगे मुझे ऐसा इसलिए कहने को बाध्य होना पड़ा कि पहले जब ऐसे संस्थान नहीं थे तब के दौर के पत्रकार सही मायने में पत्रकारिता करते थे। टूटी चप्पल और साइकिल से चलकर भी सरकार से सवाल करने का दम रखते थे। अपने कलम के बल पर जन विरोधी निर्णयों को वापस करवाते थे। लेकिन आज हम (पत्रकार) कैसे हो गए हैं। महंगी महंगी गाड़ियों पर चढ़कर आलिशान कोठियों में रहकर हम पत्रकारिता कर रहे हैं। हमारे लिखने का अब कोई नोटिस भी नहीं लेता, क्यों?आप बखूबी जानते हैं। मुझे बताने की जरूरत नहीं है। इसलिए मेरे समझ से आज के दिन को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने के बजाय विश्व प्रेस गुलाम दिवस के रूप में मनाने की जरूरत है।