द न्यूज 15
बाड़मेर। भारत-पाक सीमा पर बसे राजस्थान के बाड़मेर जिले की 750 से अधिक पाक शरणार्थी दलित महिलाओं के संघर्ष की कहानी मिसाल बन गई है। इनमें से किसी भी महिला ने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा, कभी किताब खोली तक नहीं, लेकिन आज ये महिलाएं अपनी खुद की एक कंपनी चलाती हैं। इस कंपनी के बोर्ड ऑफ डायेक्टर्स में भी यही महिलाएं शामिल हैं और कंपनी की शेयर होल्डर्स भी यही हैं। इनका अपना परचेगिंग डिर्पाटमेंट है और ये अपनी कंपनी की सेल्स एक्युक्टीव भी हैं। कच्चे माल की खरीददारी से लेकर, उत्पाद बनाने और उसकी मार्केटिंग से लेकर मोल-भाव करने तक के सारे काम यही महिलाएं करती हैं।
दलित समुदाय से होने के कारण ये महिलाएं कभी सामाजिक शोषण का शिकार रहीं, तो भारत-पाक विभाजन के बाद पहले पाकिस्तान में और उसके बाद भारत लौटकर विस्थापन का दर्द झेला। लेकिन ये तमाम मुश्किलें भी इन्हें तोड़ नहीं पाईं। अपने हुनर के दम पर ये महिलाएं ना सिर्फ घरेलू कामकाज करती हैं, बल्कि अपने परिवार के भरण-पोषण का मजबूत आर्थिक स्तम्भ भी बन चुकी हैं।
इन महिलाओं की कंपनी का नाम हैं थार आर्टिजन प्रोडयुसर कंपनी। इस कंपनी की 750 महिला सदस्य हस्तशिल्प कारीगर हैं। ये महिलाएं पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र से विस्थापित होकर भारत में आ बसी हैं। सिंध की हस्तशिल्प की विशिष्ट शैली पूरी दुनिया में मशहूर है और फैशन की दुनिया में पाकिस्तान के सिंध क्षेत्र के हैण्डीक्राफ्ट की जबदस्त डिमांड रहती है।
इतनी हुनरमंद होने के बाद भी कुछ समय पहले तक ये महिलाएं मजदूरी के लिए बिचौलियों पर निर्भर थीं। इनकी मेहनत का एक बड़ा हिस्सा बिचौलिए खा जाते थे। कंपनी की एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर जरीना ने बताया कि हैंडीक्राफ्ट असंगठित उद्योग होने की वजह से इसके आर्टिजन्स को पूरा मेहनताना नहीं मिलता था। इसमें सबसे ज्यादा फायदा बिचौलिए उठाते थे, लेकिन कंपनी बनाने के बाद बचौलियों का रोल समाप्त हो गया और आर्टिजन्स से सीधा माल लोगों तक पहुंचने लगा है। मसलन, पहले एक कुशन कवर बिचौलिए के जरिए तैयार करने पर आर्टिजन को पांच से छह रुपए प्रति कवर मिलते थे। उसी कुशन कवर का अब आर्टिजन को 25 रुपए मेहनताना मिल रहा है। पहले करीब बीस रुपए बिचैलिए खा जाते थे जो अब सीधे आर्टिजन को मिलते हैं। इसके अलावा मुनाफे में हिस्सेदारी भी मिलती है।
कभी नहीं सोचा था कंपनी की डायरेक्टर बनूंगी : कंपनी के 10 डायरेक्टर में से एक 65 वर्षीय सफियत ने बताया कि 1980 में उनका परिवार पाकिस्तान से भारत आकर बस गया था। सफीयत ने कहा कि उसने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वह किसी कंपनी में डायरेक्टर बनेंगी। बकौल सफियत जब उनके परिवार ने पाकिस्तान छोड़ा तब वह महज 14 साल की थीं। उनका परिवार पाकिस्तान के सिंध प्रांत के मिनाऊ गांव से विस्थापित होकर भारत आ गया था। शुरुआती दौर में उसके परिवार ने शरणार्थी शिविरों में शरण ली। सफीयत बताती हैं कि भारत पहुंचने के बाद वे पूरी तरह से असहाय थे। उनके पास रहने के लिए ना घर था, ना कमाने का कोई साधन। उनके पास जो कुछ था, वो पाकिस्तान में रह गया था। वे खाली हाथ भारत आए थे। उनके पास अपनी जो एक चीज थी, वो उनका हुनर था, उनका शिल्प कौशल था।
अब मिलता है मेहनत का पूरा दाम : बकौल सफीयत बिचैलियों ने उनरी स्थिति, अशिक्षा और जरूरतों का जमकर फायदा उठाया। उन्होंने कहा, ‘हमें हमारी मेहनत के मुकाबले कुछ नहीं मिलता था। घर का काम करने के बाद हम दिन में 5 से 7 घंटे तक हस्तशिल्प का काम करते थे, लेकिन हमें बमुश्किल 5 से 10 रुपये मेहनताना मिलता था, जबकि हमारी मेहनत के दम पर बिचौलिया 20 से 25 रुपये तक कमाता था। लेकिन अब ये 20 रुपये भी हम महिला आर्टिजन को मिलते हैं। इसके अलावा कंपनी के मुनाफे में हिस्सेदारी भी मिलती है। सीधे शब्दों में कहें तो हमें अब अपनी मेहनत का पूरा दाम मिलता है।’
नाबार्ड ने किया सहयोग : नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) महिलाओं की इस पहल का समर्थन और सहयोग कर रहा है। नाबार्ड के स्थानीय अधिकारियों के मुताबिक, यह देश में नाबार्ड की पहली परियोजना है। नाबार्ड ने इस कंपनी को तीन साल के लिए 92 लाख रुपये की आर्थिक सहायता दी, जिसके बाद कंपनी को आत्मनिर्भर बनना होगा। अधिकारियों ने बताया कि कंपनी को 12 लाख रुपये की पहली किस्त आवंटित कर दी गई है। इसके अलावा नाबार्ड महिला कारीगरों को उनके पारंपरिक कौशल को उन्नत करने, तकनीकी सहायता प्रदान करने और बाजार से जोड़ने में मदद करेगा।
कंपनी बनाने के बाद आय पांच गुना बढ़ी : एक स्थानीय स्वयंसेवी संस्था श्योर ने इन महिलाओं के हुनर को एक पहचान दी। वर्षों से श्योर इन महिलाओं को उत्पादों को देश-विदेश के विभिन्न मंचों तक पहुंचाने का काम करती रही है, लेकिन अब इनकी खुद की कपंनी बनाकर इनको आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में एक बड़ी पहल की है। श्योर की संयुक्त सचिव लता कच्छवाह ने बताया कि थार आर्टिजन प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड की सभी सदस्य आर्टिजन महिलाएं हैं। कच्छवाह ने बताया कि ये महिलाएं हस्तशिल्प कार्य में तो माहिर हैं लेकिन इनको मार्केटिंग सहित मार्केट के अन्य पहलुओं की जानकारी नहीं है। इसके लिए श्योर संस्था व नाबार्ड ने इसका बीड़ा उठाया। श्योर इम्प्लीमेंट एजेंसी बनी और नाबार्ड वित्तीय पोषक। इस पूरी स्ट्रेटजी को समझाने के लिए इन महिलाओं के लिए अब तक 8 स्किल ट्रेनिंग व 6 डिजाइनिंग ट्रेनिंग करवाई गई हैं। इसमें मार्केटिंग, वर्तमान में डिमांड के अनुसार बुकिंग सहित विभिन्न पहलुओं को सिखाया गया।
जिला मुख्यालय पर कॉमन फैसिलेटर सेंटर : नाबार्ड के सहयोग से कंपनी के लिए श्योर संस्थान ने जिला मुख्यालय पर कॉमन फैसिलेटर सेंटर बनाया है। इसके साथ ही इस कंपनी के प्रोडक्ट को सुमल ब्रांड से ब्रांडिंग की जा रही है। सीएफसी सेंटर में हैंडीक्राफ्ट के देश-विदेश से मिलने वाले ऑर्डर लिए जाते हैं, इसके बाद उनकी क्वांटिटी के अनुसार उनकी कटिंग, डिजाइनिंग आदि तय होती है और कपड़े की कटिंग भी इसी सेंटर से होकर फिर इसके शेयर होल्डर आर्टिजन्स के पास पहुंचता है। जो अपने ग्रुप के जरिए इनको निश्चित समय में तैयार करके वापस सीएफसी सेंटर भिजवाते हैं।