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Women’s day Special : सार्थक भागीदारी के बिना कैसे हल होंगे आधी दुनिया के मसले

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(अगर आधी आबादी से होते हुए भी महिलाएँ इस आबादी की कहानियाँ नहीं कहेंगी, तो कौन कहेगा?

केवल महिला दिवस पर ही नहीं, हर रोज़ महिलाओं को लड़ाई लड़नी पड़ेगी इस बदलाव के लिए, अपने हक़ों के लिए। छोटी शुरुआत ही सही, लेकिन शुरुआत सबको करनी पड़ेगी। ये संघर्ष का सफ़र अंतहीन है। महिलाओं के लिए समान वेतन हो, उन्हें फॉर ग्रांटेड न लिया जाए। मैं एक ऐसा समाज चाहती हूँ, जहाँ बराबरी के लिए महिलाओं को बार-बार अपनी छाती पीटकर अपनी पहचान न साबित करनी पड़े, अवसर सबको मिले। महिलाओं को अपने टैलेंट के दम पर काम मिले, उसे सराहा जाए, उसकी कद्र हो। घर और काम की जगह पर महिला होने के नाते सहानुभूति नहीं चाहिए, सिर्फ़ बराबरी चाहिए। जो स्वाभाविक हो, उसके लिए संघर्ष न करना पड़ा। निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी ना केवल उनका अधिकार है, बल्कि यह सार्वजनिक निर्णयों में उनके हितों का सम्मान करने की अनिवार्य शर्त भी है। अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने कहा था कि लोकतंत्र का स्तर मूल रूप से महिलाओं के सशक्तीकरण पर निर्भर करता है। इस असमानता को कम करने के लिए शिक्षा के ज़रिए महिलाओं को सशक्त बनाना, उत्पीड़न से मुक्त और सुरक्षित वातावरण बनाना, लड़कियों को जीवन कौशल सिखाना, हिंसा को ख़त्म करना पहली आवश्यकता है।

 प्रियंका सौरभ

हमारे देश में महिलाएँ जनसंख्या का लगभग 48% हिस्सा हैं, फिर भी वे लोकसभा सीटों के 15% से भी कम पर कब्जा करती हैं। इस महत्त्वपूर्ण अल्प प्रतिनिधित्व के परिणामस्वरूप कार्यस्थल सुरक्षा, अवैतनिक देखभाल ज़िम्मेदारियाँ और आर्थिक अधिकार जैसे महिला मुद्दों की अनदेखी होती है। इस तरह का बहिष्कार पितृसत्तात्मक मानदंडों को बनाए रखता है। फिर भी, ऐसे भेदभाव को दूर करने, कानूनी सुरक्षा बढ़ाने और संवैधानिक अधिकारों की पुष्टि करने में न्यायिक कार्यवाही महत्त्वपूर्ण रही है, हालाँकि गहरी जड़ें जमाए हुए पूर्वाग्रहों को मिटाने में उनकी सफलता अभी भी चर्चा का विषय है। महिला प्रतिनिधित्व की कमी से मातृ अधिकारों का हनन होता है, जिसके परिणामस्वरूप कार्यस्थल पर भेदभाव होता है और पर्याप्त सहायता की कमी होती है। मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम 2017 सवेतन अवकाश प्रदान करता है, लेकिन निजी क्षेत्र में इसका कार्यान्वयन कम है, जो महिलाओं को कार्यबल में शामिल होने से हतोत्साहित करता है।

निर्णय लेने की प्रक्रिया से महिलाओं को बाहर रखने से महिला सशक्तिकरण की कड़ी कमजोर होती है। इसके पीछे की वजहें हैं लैंगिक पूर्वाग्रह और भेदभाव, कार्यस्थल संस्कृति, सामाजिक और पारिवारिक निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी न होने से महिलाओं को दरकिनार किया जाता है। इससे दायरा सीमित हो जाता है और इस सीमित दायरे में आने वाली चुनौतियों का सामना करना मुश्किल होता है। संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार कार्यालय के मुताबिक, निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी ना केवल उनका अधिकार है, बल्कि यह सार्वजनिक निर्णयों में उनके हितों का सम्मान करने की अनिवार्य शर्त भी है। अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने कहा था कि लोकतंत्र का स्तर मूल रूप से महिलाओं के सशक्तीकरण पर निर्भर करता है। इस असमानता को कम करने के लिए शिक्षा के ज़रिए महिलाओं को सशक्त बनाना, उत्पीड़न से मुक्त और सुरक्षित वातावरण बनाना, लड़कियों को जीवन कौशल सिखाना, हिंसा को ख़त्म करना पहली आवश्यकता है।

वर्तमान नीतियाँ लचीली कार्य व्यवस्था प्रदान नहीं करती हैं, परिणामस्वरूप महिलाओं के लिए अपने पेशेवर और घरेलू जीवन को संतुलित करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। कई कार्यस्थल पॉश अधिनियम 2013 का अनुपालन नहीं करते हैं, क्योंकि पुरुष-प्रधान नेतृत्व अक्सर महिलाओं की सुरक्षा की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता को अनदेखा करता है। इसके अतिरिक्त, नीतियाँ महिला उद्यमियों को समान ऋण और व्यावसायिक प्रोत्साहन प्राप्त करने में पर्याप्त रूप से सहायता नहीं करती हैं, जो उनके आर्थिक सशक्तीकरण को सीमित करती हैं। हालांकि न्यायालयों ने मातृ सुरक्षा को मज़बूत करके लिंग-संवेदनशील कार्यस्थलों को बढ़ावा देने में भूमिका निभाई है। 2024 में, सुप्रीम कोर्ट ने दो महिला न्यायाधीशों को बहाल किया, इस बात पर ज़ोर देते हुए कि गर्भावस्था से सम्बंधित बर्खास्तगी दंडनीय और अवैध दोनों है, जिससे कार्यस्थल समानता को बढ़ावा मिलता है। न्यायिक निर्णयों ने महिलाओं के लिए कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए भेदभावपूर्ण धार्मिक प्रथाओं को भी उलट दिया है। उदाहरण के लिए, 2017 में शायरा बानो मामले ने ट्रिपल तलाक को अपराध घोषित कर दिया, जिससे मुस्लिम महिलाओं के वैवाहिक अधिकार सुरक्षित हो गए।

इसके अलावा, अदालतों ने हिंदू उत्तराधिकार कानूनों में पितृसत्तात्मक पूर्वाग्रहों को चुनौती देते हुए समान उत्तराधिकार अधिकारों को बरकरार रखा है, जैसा कि 2020 में विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में देखा गया है, जिसमें पुष्टि की गई है कि बेटियों को पैतृक संपत्ति में समान अधिकार है। महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए विधायी निकायों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण लागू करें। प्रतिनिधित्व में सुधार के लिए चुनावों में महिला आरक्षण विधेयक को पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए। न्यायालयों को लिंग कानूनों के पालन की निगरानी और प्रवर्तन करने की आवश्यकता है, जिससे प्रभावी नीति कार्यान्वयन सुनिश्चित हो सके। फास्ट-ट्रैक न्यायालयों को कार्यस्थल उत्पीड़न की घटनाओं के लिए त्वरित न्याय प्रदान करना चाहिए। नीतियों को महिलाओं के लिए वित्तीय समावेशन, कौशल विकास और उद्यमिता समर्थन बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। महिलाओं के नेतृत्व वाले उद्यमों के लिए बड़े ऋण प्रदान करने के लिए मुद्रा योजना का विस्तार किया जाना चाहिए।

स्कूली पाठ्यक्रम में कम उम्र से ही पितृसत्तात्मक मानदंडों को चुनौती देने के लिए लिंग जागरूकता को शामिल किया जाना चाहिए। समानता-केंद्रित शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए पाठ्यपुस्तकों में लिंग-संवेदनशील सामग्री शामिल होनी चाहिए। कंपनियों के लिए गहन ऑडिट आयोजित करें ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे मातृत्व और उत्पीड़न विरोधी नियमों का अनुपालन करती हैं। कोई भी देश अपनी आधी आबादी को पीछे छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकता। लिंग-संवेदनशील नीतियों को विकसित करने के लिए निर्णय लेने में महिलाओं की भागीदारी महत्त्वपूर्ण है। उन्हें विधायी सुधारों, जमीनी स्तर पर शिक्षा और संस्थागत प्रवर्तन तंत्र द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए। राजनीतिक प्रतिनिधित्व, आर्थिक भागीदारी और कानूनी सुरक्षा को बढ़ाने से भारत के लिए वास्तव में न्यायसंगत और समावेशी शासन प्रणाली बनेगी। महिलाओं की आवाज़, दृष्टिकोण और प्रतिनिधित्व की कमी को दूर करने के लिए, महिलाओं के नेतृत्व वाले संगठनों सहित महिलाओं की सार्थक भागीदारी और नेतृत्व को मानवीय कार्यवाही के सभी स्तरों पर बढ़ावा दिया जाना ज़रूरी है।

केवल महिला दिवस पर ही नहीं, हर रोज़ महिलाओं को लड़ाई लड़नी पड़ेगी इस बदलाव के लिए, अपने हक़ों के लिए। छोटी शुरुआत ही सही, लेकिन शुरुआत सबको करनी पड़ेगी। ये संघर्ष का सफ़र अंतहीन है। महिलाओं के लिए समान वेतन हो, उन्हें फॉर ग्रांटेड न लिया जाए। मैं एक ऐसा समाज चाहती हूँ, जहाँ बराबरी के लिए महिलाओं को बार-बार अपनी छाती पीटकर अपनी पहचान न साबित करनी पड़े, अवसर सबको मिले। महिलाओं को अपने टैलेंट के दम पर काम मिले, उसे सराहा जाए, उसकी कद्र हो। घर और काम की जगह पर महिला होने के नाते सहानुभूति नहीं चाहिए, सिर्फ़ बराबरी चाहिए। जो स्वाभाविक हो, उसके लिए संघर्ष न करना पड़ा।

(लेखिका रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)