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जो बोलना जानते थे, जिनके खून से लिखा गया इतिहास

इतिहास
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गौरव

सिद्धांत के तौर पर भले यह माना जाता हो कि ‘महान’ और महत्वपूर्ण’ के बराबर ही इतिहास में ‘साधारण’ और ‘सामान्य’ की अहमियत होती है किंतु व्यवहार में क्या होता हैं यह जयशंकर प्रसाद ने ‘ममता’ कहानी में बता दिया हैं।
इतिहास के नाम पर दिनेश कुशवाहा को सबसे पहले याद आते है वे अभागे

” जो बोलना जानते थे
जिनके खून से
लिखा गया इतिहास
जो श्रीमंतो के हाथियों के पैरों तले
कुचल दिए गए
जिनके चीत्कार में
डूब गया हाथियों का चिंग्घाड़ना”

वे अभागे भी याद आते हैं

“जिनके पसीने से जोड़ी गई
भव्य प्राचीरों की एक-एक ईंट”

ये प्राचीर आज भी मिस्र के पिरामिड, चीन की दीवार और ताजमहल के रूप में मौजूद है लेकिन उन्हें बनाने वालों का नामोनिशां तक नहीं

ये अभागे केवल इतिहास में ही नहीं हैं वरन् अभी भी हैं

“रखा गया इन्हें कुछ ऐसे
कि उन्हें पता ही न चले
कि वे किस नरक में रह रहे हैं।”

कवि ने कानपुर की एक मेहतर बस्ती में रहने के दिन को याद करते हुए ऐसे नरक का जिक्र किया हैं कि

” सिर्फ इन्होंने देखा है
कैसी होती है पीब-खून-पेशाब और मैले की नदी।”

ऐसे नरक में रहने वाले केवल धन से नहीं मन से भी पंगु बना दिए गए हैं। और इन्हें पंगु बनाया गया है ईश्वर के नाम पर। क्योंकि

“ईश्वर के अदृश्य होने के अनेक लाभ हैं
इसका सबसे अधिक फायदा
वे लोग उठाते हैं
जो लोग हर घड़ी यह प्रचारित करते रहते हैं
कि ईश्वर हर जगह और हर वस्तु में हैं।

इससे सबसे अधिक ठगे जाते हैं वे लोग
जो इस बात में विश्वाश करते हैं कि भगवान हर जगह है, और
सब कुछ देख रहा है।”

आज ऐसा प्रचार करने वाले बड़बोले लोगों की संख्या और ज्यादा बढ़ गयी है जो ‘राम रचि राखा’ को फैलाकर लोगों में भाग्य-भरोसे जीने की आदत डालते हैं।

भूखमरी, किसानों के आत्महत्या करने की दर दिनों दिन बढ़ रही हैं ऊपर से महामारी ने ऐसे में जले में नमक डालने का काम किया हैं। लेकिन

” बड़बोले कभी नहीं बोलते
भूख खतरनाक है
खतरनाक है लोगों में बढ़ रहा  गुस्सा
गरीब आदमी तकलीफ़ में हैं
बड़बोले कभी नहीं बोलते
वे कहते हैं
फिकर नॉट
बत्तीस रुपए रोज़ में
ज़िंदगी का मजा ले सकते हो। ”

किसानों के प्रति बड़बोले कैसे उदासीन हैं और उनकी हालत क्या हैं ? पढ़िये कवि के शब्दों में

“बड़बोले यह नहीं बोलते कि
विदर्भ के किसान कर रहे है आत्महत्या
काला हाँड़ी के किसान कह रहे हैं
ले जाओ हमारे बेटे- बेटियों को
और इनका चाहे जैसा करो इस्तेमाल
हमारे पास न जीने के साधन हैं
न जीने की इच्छा। ”

ऐसी भयावह हकीकत के बावजूद भी  बड़बोले प्रचारपालिका के माध्यम से लोगों को ईश्वर के, जाति के नाम पर  बांट रहे हैं।

ईश्वर के लिए तो सभी बराबर होते होंगे। ‘होंगे’ इसलिए की ईश्वर भले मानता हो पर उसको मानने का दावा करने वाले ‘अन्य’ को अपने बराबर नहीं मानते।

ईश्वर सभी का निजी विश्वास हैं और सभी को इसे मानने का हक हैं किंतु दूसरों के विश्वास को खतरा पहुँचाए बिना।

इतिहास में मंसूर और सरमन जैसे लोग के साथ जो हुआ वह ये बतलाता है कि यदि शासक वर्ग के विश्वाश से आपके विश्वाश का साम्य नहीं हैं तो आपको उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।

वर्तमान में जब भारत जनतंत्र और गणतंत्र  हैं और साथ ही धर्मनिरपेक्ष भी; तब भी यदि दो अलग-अलग ईश्वरी विश्वाश को मानने वाले लोगों में यह झगड़ा- फ़साद हो कि कहा नमाज़ पढ़ी जायेगी कहां नहीं तब मन में यह सवाल उठता हैं कि ‘हम भारत के लोगों’ ने ख़ुद को जो ‘प्रस्तावना’  में विचार, अभिव्यक्ति, विश्वाश ,धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता प्रदान करने के लिए जो ‘तंत्र’ खड़ा किया हैं वह क्या कर रहा हैं?

इस समय भी (जनतंत्र और गणतंत्र होने पर भी) किसी व्यक्ति की धर्म के नाम पर जो नृशंश हत्याएँ की जा रही हैं उससे जाहिर है कि कुछ लोग आज भी धर्म, संप्रदाय के नाम पर अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करना चाहते हैं।

दिनेश जी जब कहते हैं

” ईश्वर के पीछे मज़ा मार रही है
झूठों की एक लम्बी जमात
एक सनातन व्यवसाय है
ईश्वर का कारोबार ।”

तब वे ऐसे झूठों की ओर ही इशारा करते हैं जो अपने कारोबार के फ़ायदे के लिए अन्य की बलि चढाने में संकोच नहीं करते। लाभ के लिए जो भी भय और लोभ का प्रसार करना पड़े;सब करते हैं।

भूमंडलीकरण के दौर में  ‘ग्लोबल गाँव’ के देवता’ जल, जंगल जमीन को हड़पकर विलासिता और भूखमरी की खाई को और चौडा कर रहे है तब ऐसे छद्मवेशी समय में यह जरूरी है की जन-गण अपने तर्क और विवेक को झूठों के पास गिरवी न रखे बल्कि उसका प्रयोग छलछद्मों से बचने के लिए करें। कवि के शब्दों में

“महाविलास और भूखमरी के कगार पर
एक ही साथ खड़ी दुनिया में
आज भले न हो कोई नीत्से
यह कहने का समय आ गया है कि
आदमी अपना ख़याल ख़ुद रखे।”