दीपक कुमार तिवारी।
बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव एक बड़े नेता के तौर पर उभरे हैं। उनके पास युवा नेतृत्व का जोश, लालू यादव की राजनीतिक विरासत, और बिहार के एक बड़े तबके का समर्थन है। लेकिन हाल के दिनों में उनकी रणनीतियों और उनके सलाहकारों की भूमिका पर सवाल उठने लगे हैं। विधानसभा उपचुनावों में रामगढ़ और बेलागंज की हार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि सिर्फ परिवारवाद और कुछ खास जातीय समीकरणों पर निर्भर होकर राजनीति करना अब राजद के लिए संभव नहीं है।
तेजस्वी की रणनीति कहां चूक रही है?
तेजस्वी यादव ने शुरुआत में ‘ए टू जेड’ के सामाजिक समीकरण की बात की थी, जो हर जाति और समुदाय को साथ लेकर चलने की रणनीति थी। लेकिन हाल की हार ने दिखा दिया कि उनकी यह नीति जमीनी स्तर पर विफल हो रही है।
रामगढ़ और बेलागंज में पार्टी ने परिवारवाद को प्राथमिकता दी, जिससे असंतोष बढ़ा। बेलागंज में जहानाबाद के सांसद डॉक्टर सुरेंद्र यादव के बेटे को टिकट दिया गया, जबकि रामगढ़ में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के बेटे को मौका मिला। यह कदम न केवल क्षेत्रीय कार्यकर्ताओं में असंतोष का कारण बना, बल्कि अन्य जातियों के मतदाताओं को भी पार्टी से दूर कर दिया।
रणनीतिकारों की भूमिका पर सवाल:
तेजस्वी यादव के इर्द-गिर्द कुछ ऐसे सलाहकारों की टीम है, जो बिहार की जमीनी सियासत को समझने में विफल साबित हो रहे हैं। दिल्ली और हरियाणा से रणनीति बनाने वाले ये सलाहकार, बिहार की स्थानीय समस्याओं और बदलते सामाजिक समीकरणों से अनजान हैं। परिणामस्वरूप, तेजस्वी का राजनीतिक गणित बार-बार गड़बड़ हो रहा है।
लालू यादव के समय में पार्टी की राजनीति जातीय समीकरणों और जमीनी पकड़ पर आधारित थी। लेकिन अब तेजस्वी ने इस पर ध्यान देना बंद कर दिया है। उनकी टीम सोशल मीडिया पर प्रचार-प्रसार को प्राथमिकता दे रही है, लेकिन यह मैदान की हकीकत बदलने में नाकाम है।
महागठबंधन के सामने एनडीए की चुनौती:
बिहार की राजनीति में एनडीए ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। उनके पास जमीनी मुद्दों, जैसे- रोजगार, बिजली, और उद्योग-धंधों पर स्पष्ट योजनाएं हैं। दूसरी ओर, महागठबंधन इन मुद्दों पर ठोस रणनीति बनाने में असफल साबित हो रहा है। तेजस्वी यादव के पास अगर 2025 के विधानसभा चुनाव में वापसी करनी है, तो उन्हें महागठबंधन को नई ऊर्जा और स्पष्ट दिशा देनी होगी।
पार्टी में असंतोष और पुराने नेताओं की वापसी की जरूरत
राजद के अंदरूनी हालात भी तेजस्वी के लिए एक बड़ी चुनौती हैं। कई वरिष्ठ नेता, जिन्हें चुनावी टिकट नहीं दिया गया या उचित सम्मान नहीं मिला, पार्टी छोड़ चुके हैं। इन नेताओं को वापस लाना और पार्टी में एकता कायम करना तेजस्वी के लिए जरूरी है।
इसके अलावा, हर विधानसभा क्षेत्र में कई मजबूत दावेदार हैं, जो निर्दलीय चुनाव लड़ने को तैयार रहते हैं। यह स्थिति पार्टी के मतों में विभाजन का कारण बन सकती है।
क्या 2025 में होगा तेजस्वी की वापसी का रास्ता साफ?
तेजस्वी यादव के पास अभी भी अवसर है। बिहार के युवा और बेरोजगार वर्ग उनकी ओर उम्मीद से देख रहे हैं। अगर तेजस्वी जाति आधारित राजनीति से ऊपर उठकर विकास, रोजगार, और शिक्षा जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो वे एक बार फिर जनता का विश्वास जीत सकते हैं।
इसके लिए उन्हें जमीनी स्तर पर सक्रिय होना होगा। केवल सोशल मीडिया पर प्रचार करने से वोट बैंक नहीं बनता। तेजस्वी को अपनी रणनीतिक टीम में बदलाव करना होगा और ऐसे नेताओं को शामिल करना होगा, जो बिहार के बदलते सियासी मिजाज को समझते हों।
निष्कर्ष:
तेजस्वी यादव के पास लालू यादव की राजनीतिक विरासत और जनता का समर्थन है। लेकिन उनकी गलत रणनीति और परिवारवाद को प्राथमिकता देने की नीति उनके लिए घातक साबित हो रही है। अगर तेजस्वी इन गलतियों से सीख लेते हैं और बिहार के जमीनी मुद्दों को प्राथमिकता देते हैं, तो 2025 का चुनाव उनके लिए नई शुरुआत का अवसर हो सकता है।