देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
पृष्ठ संख्या 1149 (बृहदारण्यक उपनिषद)
” उस जीवन मुक्त के लिए जब तक वह शरीर में रहता है, नेत्र पुरुष– नेत्र शक्ति अर्थात आंखों की ज्योति सर से पांव तक ईश्वर के रूप में रंगी हुई रहती है। जब भी वह जीवन मुक्त आंखों से देखता है तो उस ईश्वर का स्वरूप उसे हर जगह दिखाई देता है ।और जब वह (आत्मा)इस शरीर को छोड़कर सूर्य मंडल पहुंचता है तो वहां भी वह आदित्य पुरुष उसको उसी ईश्वर के दिव्य स्वरुप में रंगा हुआ दिखलाई देता है। इसका अर्थ यह है कि वह मुक्त जीव स्वयं ईश्वर के रंग में इतना रंग जाता और उसके प्रेम में इतना मस्त हो जाता है, यहां और वहां सब जगह उसे अपने प्रियतम के सिवा और कुछ नहीं दिखलाई देता। जो कुछ भी दिखलाई देता है वह उसे अपने प्रियतम का स्वरूप ही समझता है।”
एक कवि ने मानो इसी अवसर के लिए यह रचना की थी।
जलवे से तेरे भर गई इस तरह से आंखें ।
अब कोई भी, आता है फकत तू ही नजर में ।
बृहद्राण्यकउपनिषद के आधार पर समाप्त ।
अब हम दूसरे उपनिषद छांदोग्य उपनिषद का अध्ययन करते हैं और उसके आधार पर यह निष्कर्ष लेंगे कि आत्मा शरीर में कहां रहती है?
महात्मा नारायण स्वामी इसके व्याख्याकार हैं जिन्होंने एकादशोपनिषद पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में छांदोग्य उपनिषद पृष्ठ संख्या 505 से प्रारंभ होता है।
पृष्ठसंख्या 505 पर ईश्वर को भी हृदय में स्थित बताया गया है।
यथा
“वह ईश्वर मनुष्यों के हृदय में है और उनकी रक्षा का साधन बना रहता है।”
इससे यह सिद्ध हुआ की आत्मा और परमात्मा दोनों एक मनुष्य के हृदय में रहते हैं ।दोनों का ही मिलन वहां पर होता है। क्योंकि ईश्वर हमारे अंदर व्याप्त है। हमारा ईश्वर के साथ व्याप्य और व्यापक का संबंध है। साध्य और साधक का संबंध है,।
व्याप्य उसको कहते हैं जिसके अंदर ईश्वर रहता है तथा व्यापक ईश्वर के अर्थ में है।
इस प्रकार ईश्वर हमारे अंदर अनुप्रविष्ट हुआ बैठा रहता है।
आगे पृ ०संख्या 627 पर उक्त उपनिषद में बहुत सुंदर बात कही गई है, कृपया ध्यान पूर्वक पढ़ें।
पृष्ठ 627 देखें।
“मनुष्य अर्थात पुरुष (आत्मा के अर्थ में है)वस्तुत: वासनामय है। (यहां मनुष्य का तात्पर्य भी केवल मानव जीवन से नहीं बल्कि यहां पर प्राणी मात्र के अर्थ में मनुष्य कहा गया है) अर्थात जैसा विचार और उनके अनुकूल मनुष्य (आत्मा) कर्म करता है तो वह वैसा ही बन जाता है ।जैसी वासना इस लोक में मनुष्य की होती है वैसी ही यहां से मरकर मृत्यु के पश्चात दूसरी योनि में भी होती है ।इसलिए मनुष्य को उत्तम कर्म करने चाहिए।”
इसीलिए हमारे समाज कर्म प्रधान कहा जाता है। इसलिए उत्तम कर्मों को करने की तरफ आत्मा को प्रेरित रहना चाहिए, मनुष्य को करने चाहिए। इन्हीं उत्तम कर्मों के आधार पर उसको अच्छी योनि और अंत में मुक्ति प्राप्त होती है। आत्मा अपनी मुक्ति का अथवा बंधन का स्वयं जिम्मेदार है। बंधन से तात्पर्य है बार-बार मरना व पैदा होना है। ईश्वर ने आत्मा को बंधन में नहीं बांधा है। ईश्वर को क्या जरूरत पड़ी है आपको बंधन में बांधने की?
यह बंधन ,सुख, दुख, आवागमन सभी तो आपके कर्मों ने बांध रखा है। अच्छे कर्म करो तो बंधन से ,आवागमन से, मृत्यु और जीवन से छूट जाओगे।
इसी पृष्ठ पर नीचे की तरफ इस प्रकार लिखा है।
“मेरे हृदय में यह आत्मा है।
इससे आगे का विवरण
पृष्ठ संख्या 628 पर देखें ।
“मेरे हृदय में जो आत्मा है वह पृथ्वी से भी बड़ा, अंतरिक्ष से भी विशाल और द्यौ से भी महान और इन लोकों से भी बड़ा है”
इसमें आत्मा की विशालता पर प्रकाश डाला गया है कि आत्मा कितनी विशाल, कितनी महान और कितनी बड़ी है।
इसी पृष्ठ पर आगे इस आत्मा को सर्वकर्ता बताया गया है। सभी कर्मों का करने वाला आत्मा है। आत्मा ही कर्म करने की इच्छा करता है। अपनी इंद्रियों के माध्यम से कर्मों को संपन्न कराता है ।आत्मा अपनी इच्छा को मन को देता है और मन इंद्रियों से कराता है।
“वह (यहां पर वह का मतलब आत्मा से है) सर्व कर्मों का कर्ता, समस्त शुभ इच्छाओं वाला, समस्त गंध युक्त ,सर्वरस इस संपूर्ण विश्व के अणु अणु में व्याप्त है। वाणी रहित मन की इच्छा से शून्य यह आत्मा मेरे हृदय में है। यहां ब्रह्म है। यहां से मरकर इसी आत्मा को ब्रह्म प्राप्त होने वाला है। जिसकी ऐसी श्रद्धा हो और मन में कुछ भी संशय ना हो ।इस विषय को शांडिल्य ऋषि ने बहुत ही स्पष्ट तौर पर लिखा है।”
शुभ कर्म करने से अगला जन्म अच्छा होता है। अच्छे परिवार में जन्म मिलता है। अच्छे माता-पिता मिलते हैं। ऐसे परिवार में जन्म होता है जहां धन-धान्य से परिपूर्ण होता है। अर्थात अच्छे माता-पिता और अच्छा परिवार भी अच्छे कर्म करने से प्राप्त होते हैं। अच्छे कर्म और धन-धान्य से परिपूर्ण होना ही स्वर्ग है। स्वर्ग इसी पृथ्वी पर और इसी जीवन में होता है। साधारण दया हम ऐसा मान लेते हैं कि करने वाले व्यक्ति को स्वर्गवासी कहते हैं, परंतु स्वर्ग किसी दूसरे लोक में जाकर के प्राप्त नहीं होता। यह केवल एक भ्रांति है। एक जीवित व्यक्ति भी सुख सुविधाओं से, ऐश्वर्य से संपन्न होने के कारण स्वर्ग में रहता है। जैसे हम यह कहते हैं हम अमुक व्यक्ति के घर गए हमने देखा वहां तो स्वर्ग आया हुआ है। हम मृत्यु के उपरांत स्वर्गवासी नहीं होते बल्कि हम जीते जी स्वर्गवासी हो जाएं।
इसीलिए विद्वान लोग कहते हैं कि स्वर्ग और नरक सब यहीं पर है। अर्थात पृथ्वी पर है, अर्थात जन्म में है। उनके कहने का तात्पर्य यही होता है कि आपको स्वर्ग का सुख और नरक का दुख इसी पृथ्वी पर आकर भोगना है ।जन्म मरण में पड़कर के भोगना है। इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में आकर के अपने कर्मों का दुख भोगना होगा और अच्छे कर्मों का सुख प्राप्त करना होगा। यहां यह भी स्पष्ट करना उचित होगा कि पृथ्वी का तात्पर्य भी यहां पर इसी पृथ्वी से नहीं है बल्कि ब्रह्मांड में जितनी भी पृथ्वी होंगी उन पर जन्म लेना पड़ता है।
इसलिए हम आज से ही स्वर्गवासी हों तो कितना अच्छा होगा। ऐसे स्वर्गवासी होने की कामना हम सब करें। हमको इसी जन्म में सारी सुख सुविधा तथा ऐश्वर्य प्राप्त हो और हम स्वर्ग में रहें।
क्रमशः
अग्रिम किस्त में।