जब महाराणा प्रताप के निधन पर आ गए थे दुश्मन की आंखों में भी आंसू

नीतीश राजपूत 

भारत का गौरवशाली इतिहास ऐसे वीरों के संघर्ष की शौर्य गाथा का गवाह है, जिनके हौंसले के सामने दुश्मन थर-थर कांपते थे। ऐसे ही महावीरों में से एक थे महाराणा राणा प्रताप। महाराणा प्रताप की महान गाथा से हर कोई परिचित है। आज उनकी पुण्यतिथि पर  पूरा देश  उन्हें नमन कर रहा है। सच तो ये है कि हल्दीघाटी की मिट्टी आज भी महाराणा के लहू से लिखी गई वीरगाथा को अपने कण-कण में समेटे हुए है। लोग सोशल मीडिया पर महाराणा प्रताप को याद करते हुए, उनकी वीरता, पराक्रम, त्याग और बलिदान को नमन कर रहे हैं। वैसे जब भी महाराणा के प्रताप की बात होती है तो उनके भाले, कवच और उनके घोड़े चेतक का ज़िक्र जरूर होता है। महाराणा प्रताप एक ऐसे महान योद्धा और युद्ध रणनीति में कुशल राजा थे, जिन्होंने बार-बार मुगलों के हमले से मेवाड़ और मेवाड़ के लोगों की रक्षा की। ऐसे में उनके सामने कितनी ही विकट परिस्थितियां क्यों ना आईं हों, लेकिन उन्होंने कभी अपना सिर दुश्मन के सामने नहीं झुकाया।

महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 में मेवाड़ के कुंभलगढ़ में हुआ था। उदय सिंह द्वितीय और महारानी जयवंता बाई के सबसे बड़े बेटे महाराणा प्रताप की वीरता के बहुत से किस्से हैं, जिनकी तस्दीक उनके युद्ध की रणगाथा में होती है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण 8 जून 1576 ईस्वी में हुए हल्दी घाटी के युद्ध में देखने को मिला जहां महाराणा प्रताप के लगभग 3 हजार घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों की सेना का सामना, आमेर के राजा मान सिंह के नेतृत्व में लगभग 5 हजार से 10 हजार लोगों की सेना से हुआ था, जहां उन्होंने बहादूरी का परिचय देते हुए मुगलिया सुल्तान अकबर को धूल चटा दी थी। उस दौर में दिल्ली में मुगल सम्राट अकबर का शासन था, जो भारत के सभी राजा-महाराजाओं को अपने अधीन कर मुगल साम्राज्य की स्थापना कर इस्लामिक परचम को पूरे हिन्दुस्तान में फहराना चाहता था। 30 वर्षों के लगातार प्रयास के बावजूद महाराणा प्रताप ने अकबर की आधीनता स्वीकार नहीं की, जिसकी आस लिए ही वह इस दुनिया से चला गया।
कभी न झुकने की प्रतिज्ञा : महाराणा प्रताप ने प्रतिज्ञा ली थी कि जिंदगीभर उनके मुंह से अकबर के लिए सिर्फ तुर्क ही निकलेगा और वे कभी अकबर को अपना बादशाह नहीं मानेंगे, अकबर ने उन्हें समझाने के लिए 4 बार शांति दूतों को अपना संदेशा लेकर भेजा था, लेकिन महाराणा प्रताप ने अकबर के हर प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था।
ये रोचक बातें प्रचलित हैं महाराणा प्रताप के बारे में : अध्य्यन करने से पता चलता है कि महाराणा प्रताप युद्ध कौशल में पारंगत होने के साथ-साथ काफी ताकतवर थे। उनका कद करीब 7 फुट 5 इंच था और वे अपने साथ 80 किलो का भाला और दो तलवारें रखते थे। महाराणा प्रताप जिस आर्मर (कवच) को धारण करते थे, उसका वजन भी 72 किलो बताया जाता है। उनके अस्त्रों और शस्त्रों का कुल वजन करीब 208 किलो हुआ करता था।
महाराणा की वीरता का सबसे बड़ा प्रमाण 8 जून 1576 में हुए हल्दी घाटी के युद्ध  में देखने को मिला, जहां महाराणा प्रताप की लगभग 3,000 घुड़सवारों और 400 भील धनुर्धारियों की सेना का सामना आमेर के राजा मान सिंह के नेतृत्व में लगभग 5,000-10,000 लोगों की सेना से हुआ था। 3 घंटे से ज्यादा चले इस युद्ध में महाराणा प्रताप जख्मी हो गए थे। कुछ साथियों के साथ वे पहाड़ियों में जाकर छिप गए, जिससे वे अपने सेना को जमा कर फिर से हमला करने के लिए तैयार कर सकें, लेकन तब तक मेवाड़ के हताहतों की संख्या लगभग 1,600 हो गई थी, जबकि अकबर  की मुगल सेना ने 350 घायल सैनिकों के अलावा 3500-7800 सैनिक गंवा दिए थे।
कई इतिहासकार मानते हैं कि हल्दी घाटी के युद्ध  युद्ध में कोई विजय नहीं हुआ. माना यह जा रहा था कि अकबर की विशाल सेना के सामने मुट्ठीभर राजपूत ज्यादा देर नहीं टिक पाते. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और राजपूतों ने मुगलों की सेना में ऐसी हलचल मचा दी थी कि मुगलों की सेना में अफरातफरी मच गई थी। इस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना के क्षत विक्षत होने पर उन्हें जंगल में छिपना पड़ा और फिर से अपनी ताकत जमा करने का प्रयास करने लगे।  महाराणा ने गुलामी की जगह जंगलों में रहकर भूखों रहना पसंद किया लेकिन कभी अकबर की बड़ी ताकत के आगे नहीं झुके।
हल्दी घाटी युद्द के बाद महाराणा प्रताप जंगलों में निवास करने लगे, लेकिन अकबर की सेनाओं पर छापामार युद्ध करते रहे। यह रणनीति पूरी तरह से सफल रही और वे कभी अकबर के सैनिकों की लाख कोशिशों के बाद भी उनके हाथ नहीं आये। कहा जाता है इस दौरान राणा को घास की रोटी तक पर गुजारा करना पड़ा. लेकिन 1582 में दिवेर का युद्ध  एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ. दिवेर के युद्ध में महाराणा प्रताप के खोए हुए राज्यों की पुनः प्राप्ति हुई, इसके बाद राणा प्रताप व मुगलों के बीच एक लंबा संघर्ष युद्ध के रूप में बदल गया, जिसके कारण इतिहासकारों ने इसे ‘मेवाड़ का मैराथन’ कहा।
अकबर इस बीच बिहार बंगाल और गुजरात में विद्रोह दबाने में लगा था, जिससे मेवाड़ पर मुगलों का दबाव कम हो गया । दिवेर की लड़ाई  के बाद महाराणा प्रताप ने उदयपुर समेत 36 अहम जगहों पर अपना अधिकार कर लिया और राणा का मेवाड़ के उसी हिस्से पर कब्जा हो गया जब उनके सिंहासन पर विराजने के समय था। इसके बाद महाराणा ने मेवाड़ के उत्थान के लिए काम किया, लेकिन 11 साल बाद ही 19 जनवरी 1597 में अपनी नई राजधानी चावण्ड में उनकी मृत्यु होगई।  दुश्मनों ने भी माना महाराणा का लोहा : कहते हैं महाराणा प्रताप की मृत्यु का समाचार सुनकर अकबर की आंखों में भी प्रताप की अटल देशभक्ति को देखकर आंसू छलक आए थे।
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