कब गीता ने ये कहा, बोली कहाँ कुरान ।
करो धर्म के नाम पर, धरती लहूलुहान ।।
पुण्य-धर्म को छोड़कर, करने लगे गुनाह ।
‘सौरभ’ लगे कठिन मुझे, अब आगे की राह ।।
गैया हिन्दू हो गई, औ’ बकरा इस्लाम ।
पशुओं के भी हो गए, जाति-धर्म से नाम ।।
जात-धर्म की फूट कर, बदल दिया परिवेश ।
नेता जी सब दोगले, बेचें …खायें…देश ।।
भक्ति ईश की है यही, और यही है धर्म ।
स्थान,जरूरत, काल के, करो अनुरूप कर्म ।।
सब पाखंडी हो गए, जनता, राजा, संत ।
सौरभ रोया देखकर, धर्म-कर्म का अंत ।।
व्यर्थ पूजा पाठ है, व्यर्थ सभी कीर्तन ।
नहीं कर्म में धर्म यदि, साफ़ नहीं है मन ।।
जातिवाद और धर्म का, ये कैसा है दौर ।
जय भारत,जय हिन्द में, गूँज रहा कुछ और ।।
(सत्यवान ‘सौरभ’ के चर्चित दोहा संग्रह ‘तितली है खामोश’ से। )