5 फरवरी। उत्तर प्रदेश में भाजपा की योगी सरकार बनने के बाद प्रदेश, लगातार तीसरी बार मानवाधिकारों के उल्लंघन करने में अव्वल स्थान पर रहा। यह खुलासा गृह मंत्रालय के आंकड़ों से हुआ है। मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में लगातार तीसरे साल यूपी सबसे ऊपर है। गृह मंत्रालय के आंकड़ों की मानें तो अक्टूबर 2021 तक, 3 सालों में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) द्वारा सालाना दर्ज किए गए मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में 40 फीसदी मामले उत्तर प्रदेश के थे।
दरअसल, डीएमके सांसद एम शणमुगम ने सदन में पूछा था कि क्या देश में मानवाधिकार उल्लंघन के मामले बढ़े हैं? जिसके जवाब में बुधवार को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने राज्यसभा में कहा कि मानवाधिकार उल्लंघनों के संबंध में एनएचआरसी ने जो जानकारी इकट्ठा की है, उसके अनुसार, 2018 से इस साल के 31 अक्टूबर 2021 तक सबसे अधिक मामले यूपी के दर्ज किए हैं जो लगभग 40 फीसद हैं। केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, एनएचआरसी ने 31 अक्टूबर 2021 तक देश में मानवाधिकार उल्लंघन के 64,170 मामले दर्ज किए। लेकिन इनमें सबसे ज्यादा 24,242 मामले केवल उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए हैं।
उत्तर प्रदेश में मानवाधिकार उल्लंघन के मामले-
2021-22 में 24,242 मामले
2020-21 में 30,164 मामले
2019-20 में 32,693 मामले
2018-19 में 41,947 मामले
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने संसद में बताया कि गृह मंत्रालय के डेटा के मुताबिक, देश में पिछले तीन सालों में मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों में गिरावट दर्ज की गयी है। साल 2018 में मानवाधिकार उल्लंघन के 89,584 और 2019 में 76,628 तथा 2020 में 74,968 मामले दर्ज किए गए। इस साल 31 अक्टूबर तक एनएचआरसी ने मानवाधिकार उल्लंघन के 64170 केस दर्ज किए। इनमें सबसे ज्यादा 24,242 मामले यूपी में दर्ज किए गए।
यूपी की ही बात करें तो गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में साल 2018 में 41,947 और 2019 में 32,693 मामले दर्ज किए गए थे। इस साल 31 अक्टूबर तक यूपी में मानवाधिकार उल्लंघन के 24,242 केस दर्ज किए गए हैं जो कि सबसे ज्यादा हैं। NHRC के आंकड़ों के मुताबिक यूपी में साल 2018-19 में 41,947, 2019-20 में 32,693, 2020-21 में 30,164 और 2021-22 में 24,242 मामले दर्ज किए गए हैं।
भाजपा की योगी आदित्यनाथ सरकार में मानवाधिकार हनन में यूपी लगातार अव्वल बना हुआ है। ऐसे में बड़ा सवाल है कि इस सब के बावजूद यूपी में यह चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बन रहा है? मानवाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने इस पर एक मांगपत्र जारी कर राजनीतिक दलों से मानवाधिकार को लेकर उनके स्टैंड पर जवाब मांगा है।
ऑनलाइन प्रेस कांफ्रेंस में पीयूसीएल के पदाधिकारियों ने कहा कि मानवाधिकार हनन के मामले में पहले स्थान पर रहनेवाले उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहा है, लेकिन किसी भी राजनीतिक दल ने मानवाधिकार उल्लंघन के मामले को गंभीरता से नहीं लिया है। इस मौके पर उत्तर प्रदेश में मानवाधिकार हनन के ऊपर सरकारी एजेंसियों द्वारा ही तैयार किए गए आंकड़ों को संकलित कर एक रिपोर्ट जारी की गयी। पीयूसीएल के संयोजक फरमान नकवी ने कहा कि जनता अपने लिए नयी सरकार चुनने जा रही है और यही मौका है जब चुनाव मैदान में उतरने वाली सभी पार्टियों का और नयी सरकार चुनने जा रही जनता का ध्यान उन आंकड़ों की ओर दिलाएं जो बीते सालों में खुद सरकार की तमाम एजेंसियों ने इकट्ठा किये हैं।
उन्होंने कहा कि हम यह मांग करते हैं कि चुनावी दल अपने चुनावी घोषणापत्रों में मानवाधिकार की रक्षा का वादा करें और नयी सरकार के गठन के बाद इस दिशा में तत्काल कोई कदम उठाएं। पीयूसीएल की रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में मानवाधिकार हनन के मामले कितने गंभीर हैं राष्ट्रीय महिला आयोग की एक रिपोर्ट बताती है। इसके अनुसार, 2018 से 2019 के बीच में जितनी शिकायतें आयोग में गयीं उसमें भी यूपी बाकी सभी राज्यों को काफी पीछे छोड़ते हुए 11,289 शिकायतों के साथ पहले नंबर है। पहले लॉकडाउन के समय यानी मार्च 2020 से सितम्बर 2020 के बीच राष्ट्रीय महिला आयोग में राज्य से कुल 5,470 शिकायतें पहुंची, जो कि पूरे देश का 53 फीसद है। इसमें भी उत्तर प्रदेश पहले नंबर पर है। हाथरस और फिर इलाहाबाद के गोहरी में दलित लड़की के बलात्कार और हत्या के मामले से सरकार जिस तरीके से निपटती नजर आयी, वह सत्ता की एक खतरनाक प्रवृत्ति को चिह्नित करती है। यही नहीं, पूरे देश में दलितों पर होनेवाले अपराधों का 25.8 फीसद उत्तर प्रदेश में घटित हो रहा है। यहां दलितों पर अपराध की दर 28.6 फीसद है, जो कि देश भर में सबसे अधिक है। दलितों पर होनेवाले अपराध को महिलाओं के साथ होने वाले अपराध से मिलाकर देखेंगे, तो तस्वीर और भी भयावह लगती है। 2019 में पूरे देश में दलित महिलाओं के बलात्कार के कुल 3,486 अपराध दर्ज हुए, जिनमें से अकेले उत्तर प्रदेश के कुल 537 मामले हैं, जो 15.4 फीसद हैं। 2020 के भी एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश दलित और आदिवासी उत्पीड़न में पहले स्थान पर पहुंच गया है।
पीयूसीएल की रिपोर्ट के अनुसार, अल्पसंख्यक समुदाय के उत्पीड़न में भी उत्तर प्रदेश ने ऐसी कुख्यात मिसालें कायम की हैं, जो कहीं और देखने को नहीं मिलेंगी। 19 दिसम्बर 2010 को सीएए एनआरसी को लेकर प्रदेश भर में हुए प्रदर्शनों के कारण सरकार ने सैकड़ों लोगों को जेल में डाल दिया। सरकारी तौर पर 22 लोगों की पुलिस की गोली से हत्या हुई, जिसमें एक 8 साल का बच्चा भी शामिल है।
मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्ट के मुताबिक मरनेवालों की संख्या 34 है। लखनऊ और कानपुर में सबसे अधिक अमानवीयता बरती गयी। बुरे तरीकों से पीटा गया, थानों में यातनाएं दी गयीं, महिलाओं के साथ बदतमीजी की गयी। अकेले लखनऊ में इस आन्दोलन से जुड़े 297 लोगों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गयी, जिसमें 18 पर एनएसए और 68 आरोंपियों पर गैंगस्टर, 28 पर गुंडा एक्ट लगाया गया। लगभग 300 लोगों पर पब्लिक प्रापर्टी को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाकर उनसे 64 लाख रुपए 7 दिनों के भीतर जमा करने का नोटिस भेजा गया। इतना ही नहीं, लखनऊ के चौक-चौराहों पर इनकी तस्वीरें अपराधियों के तौर पर जारी की गयीं।
इलाहाबाद में गठित अधिवक्ता मंच के पास इसी दौरान उत्तर प्रदेश के 32 जिलों के 120 मामले एनएसए के आए। ‘वर्कर्स यूनिटी’ के अनुसार, इनमें आरोपित सभी लोग मुसलमान थे। इनमें से 94 मामले हाईकोर्ट में रद्द हो गये, यानी वे इतने फर्जी थे कि एफआइआर ही रद्द हो गयी। साल 2020 में ऐसे 41 मामले जो हाईकोर्ट पहुंचे वो भी फर्जी निकले, इनमें 70 फीसद मामले रद्द हो गए और बाकियों को जमानत मिल गयी। मुस्लिमों के प्रति पुलिस के सांप्रदायिक नजरिये के कारण ही राज्य की जेलों में विचाराधीन कैदियों में मुसलमान कैदियों का अनुपात 26 से 29 फीसद है, जबकि राज्य में उनकी आबादी 19 फीसद है। सजायाफ्ता कैदियों में उनका अनुपात 22 फीसद है। उत्तर प्रदेश के कुख्यात फर्जी एनकाउंटर में भी पुलिस की सांप्रदायिक मानसिकता इस आंकड़े से उजागर होती है कि 2020 में हुए कुल एनकाउंटरों में 37 फीसद में भुक्तभोगी मुसलमान थे।
(सबरंग हिंदी और समता मार्ग से साभार)