टुच्ची राजनीतिक चालबाजियों के घेरे में फँस गये हैं गणतंत्र की नियति तय करने वाले मसले 

योगेंद्र यादव 
मारी लोकतांत्रिक राजनीति अभी जिस त्रासदी से गुजर रही है, राज्यों में होने जा रहे चुनावों का मौजूदा दौर उसकी बेहतर झलक देता है। यहाँ दाँव तो बहुत ऊँचे लगे हैं लेकिन खेल एकदम ही खस्ताहाल हो रखा है। देश के सामने अभी कई अहम मसले दरपेश हैं लेकिन जहाँ तक बात चुनावों के जरिए निर्णायक फैसला सुनाने की है—इन मसलों में से कोई भी मायने नहीं रखता। यों कहिए कि जिन मसलों से हमारे गणतंत्र की नियति तय होनी है वे टुच्ची किस्म की राजनीतिक चालबाजियों के घेरे में फँस गया है। लेकिन इन राजनीतिक चालबाजियों से इसके फलितार्थ सकारात्मक निकलें तो? न, ऐसा सोचकर जी बहलाये रखने की जरूरत नहीं क्योंकि ऊँची दुकान और फीके पकवान का जो दृश्य अभी बन चला है, उसको जन्म देनेवाले अंतर्निहित कारण कतई सकारात्मक नहीं।

अगर आप लोकतांत्रिक राजनीति से उसका मर्म निकालकर एकदम ही उसे छूंछा बना देना चाहते हैं तो इसके लिए ये कतई जरूरी नहीं कि आप चुनाव को स्थगित कर दें। लोकतंत्र को खत्म करने का ज्यादा बेहतर तरीका ये है कि आप चुनाव खूब कराएँ लेकिन चुनावों को एक मनोरंजनी तमाशे में बदल दें, सार्वजनिक मंचों से जो बहसें चलनी हैं उन्हें आप गला फाड़कर एक-दूसरे पर चीखने-चिल्लाने के मुकाबले और राजनीति को निरी टुच्चई में तब्दील कर दें। हम दरअसल इसी दलदल में रोजाना धँसते जा रहे हैं।
अभी राज्यों में चुनावों का जो दौर चलने जा रहा है, उसकी अहमियत के बारे में यहाँ एक बात स्पष्ट कर लें। बड़ा मुकाबला तो 2024 में होगा लेकिन उस बड़े मुकाबले से अभी होने जा रहे विधानसभा के चुनावों के तार जोड़ने और दोनों के रिश्ते को समझने-समझाने के लिए मीडिया में वही पुराना सेमी-फाइनल वाला जुमला उछाला जाएगा। अब अगर आप चुनावों को खेल के मुहावरे ही में समझना चाहते हैं तो बेहतर होगा कि आप अभी होने जा रहे विधानसभा के चुनावों के लिए शतरंज के मुकाबले में इस्तेमाल होनेवाली शब्दावली `कैंडिटेट्स टूर्नामेंट` का इस्तेमाल करें। कैंडिडेट टूर्नामेंट के जरिये ये तय किया जाता है कि शतरंज के खेल का जो मौजूदा चैम्पियन है, कौन सा खिलाड़ी उसे चुनौती देगा। राष्ट्रीय फलक पर देखें तो असल मुकाबला इस बात के लिए है कि 2024 में कौन सी पार्टी बीजेपी के लिए मुख्य प्रतिद्वन्द्वी बनकर उभरती है।
होने जा रहे इन विधानसभा चुनावों को अगर सेमी-फाइनल का लकब देना ही है तो फिर अच्छा हो कि इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) ने जो नया फार्मेट अपनाया है, हम इन चुनावों को उस तर्ज का सेमी-फाइनल मानें। आईपीएल के इस नये फार्मेट के सेमी-फाइनल में `एलीमिनेटर` से पहले `प्लेऑफ` होता है। अभी जो उत्तरप्रदेश, पंजाब,उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में चुनाव होने जा रहे हैं उसे मुख्य मुकाबले का प्लेऑफ समझना चाहिए। इस मुकाबले से ये तय होगा कि चुनौती देनेवालों में से किसमें कितना दम है और मुकाबले का मैदान किसके लिए कितना कठिन साबित होने जा रहा है। अगले एक साल में मुकाबले की सारी कथा और किरदार अपने मुक्कमल रुप में आपके सामने होंगे।

राष्ट्रीय मसले?

इसी नाते, हमें बड़े सवाल पूछने चाहिए—ऐसे सवाल जो किस पार्टी को कितनी सीटें सरीखे पूर्वानुमानों से अलग हटकर हों। बीजेपी का अभी जो चुनावी अखाड़े में दबदबा है, क्या हमें उसकी काट का कोई विकल्प हासिल हो पाएगा? क्या इन चुनावों से बीजेपी को कांटे की टक्कर देनेवाला कोई प्रतिस्पर्धी उभरेगा? क्या दृश्य ऐसा बन पाएगा कि लगे हाँ, दो के बीच सचमुच ही भिड़न्त हो रही है? बीजेपी का मुख्य प्रतिद्वनद्वी बनकर उभरी पार्टी चुनावी मैदान में कौन-से मसले लेकर सामने आएगी? क्या अभी जो चुनाव होने जा रहे हैं, उनसे देश के मन-मिजाज का पता चल पाएगा?

याद रहे, विधानसभाई चुनावों का यह पहला दौर है जो 30 से 50 लाख की तादाद में लोगों की जिन्दगियों को लील जाने वाली कोविड की दो भयावह लहरों के बीत जाने के बाद होने जा रहा है। उत्तर प्रदेश कोविड की इस भयावहता की मुख्यभूमि रहा। जहाँ कहीं भी लोकतंत्र हो, आप उम्मीद करेंगे कि कोविड की भयावहता का यह मुद्दा होने जा रहे चुनावों में घटाटोप बनकर छा जाए। लेकिन उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं हो पाया है, कम से कम कोविड की भयावहता का मुद्दा प्रकट रूप से अभी तक उभरता हुआ तो नहीं दीखा।

देश आर्थिक मोर्चे पर एकदम ही लड़खड़ा गया, महामारी के दौरान हुए लॉकडाउन ने इस जले पर जैसे नमक का काम किया। बेरोज़गारी अभी तक के अपने उच्चतम स्तर को छू रही है। लंबे समय के बाद मुद्रास्फीति ने भी सिर उठाया है। जिन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं वहाँ इन सारी बातों का सीधा असर है। निश्चित ही इन मुद्दों पर चुनावी रैलियों में बातें होंगी और अगर बीजेपी के पाँव चुनावों में फिसलते हैं तो फिर इन मुद्दों को देर तक याद किया जाएगा। लेकिन ये सोचना निरा भोलापन है कि ये जो सचमुच ही लोगों की जिन्दगी पर असर डालनेवाले मुद्दे हैं, वे इन चुनावों में जनादेश के लिहाज से निर्णायक साबित होने जा रहे हैं।

हम लोग अपने राष्ट्रीय इतिहास के सबसे गहन सांप्रदायिक दौर से गुजर रहे हैं—ये एक ऐसा वक्त है जब संवैधानिक पदों पर बैठे लोग खुलेआम नफरत को हवा दे रहे हैं और हिंसा की पैरोकारी कर रहे हैं। अगर पिछले रिकॉर्ड को आधार मानकर सोचें तो आप मानकर चल सकते हैं कि बीजेपी आनेवाले हफ्तों में सांप्रदायिक वैमनस्य की धधकती ज्वाला को और हवा देगी। ऐसा बड़े चुनिन्दा ढंग से किया जाएगा, सांप्रदायिकता के वैमनस्य को सिर्फ यूपी और उत्तराखंड में बढ़ावा दिया जाएगा। बाकी के तीन राज्यों में ऐसा नहीं किया जाएगा क्योंकि तीनों में धार्मिक अल्पसंख्यकों की बड़ी आबादी है। ऐसे में क्या हम ये उम्मीद लगा सकते हैं कि विपक्ष की तरफ से सांप्रदायिक वैमनस्य की काट के लिए कोई पुरोजर कथा गढ़ी जाएगी? क्या विपक्ष के पास ऐसा माद्दा, रणनीतिक कौशल और ऐसी भाषा है कि वह चुनावों में इस सर्वाधिक अहम मसले को उठाये?

किसान-आंदोलन की ऐतिहासिक विजय के बाद के वक्त में होने जा रहा यह पहला बड़ा चुनाव है। फिर भी, किसानों ने लोगों के मन-मानस और राजनीति पर जो पकड़ बनायी है उसे चुनावी मुकाबले पर असर डालने लायक बनाना अपने आप में एक बड़ा काम है। कुछ राज्यों में असर ना के बराबर हो सकता है। पंजाब में, किसान-आंदोलन का असर, बहुत संभव है, कारगर ना हो पाये क्योंकि आंदोलन का रंग ऐसा गहरा और सूबे में चहुंओर पसरा है कि सियासी मुकाबले की लकीर के दोनों ही ओर उसकी दावेदारी करनेवाले लोग आपको मिल जाएंगे। क्या किसानों का दुख-दर्द राजनीति के केंद्र में प्रतिष्ठित हो पाएगा? या फिर, यह भी आए दिन की सियासी चोंचलेबाजियों में से एक बनकर रह जाएगा?

सत्ता-विरोधी लहर?

अगर इन विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय मसले निर्णायक नहीं साबित होने जा रहे तो क्या हम ये मानकर चलें कि कम से कम शासन-प्रशासन का मुद्दा सूबाई स्तर पर चुनावों के नतीजे तय करने में अहम भूमिका निभाएगा? चुनावी कैलेंडर के संयोग से एक कतार में खड़े नजर आ रहे इन राज्यों में जो एक बात सामान्य तौर पर लक्ष्य की जा सकती है वो ये कि इन सभी में सत्ताधारी दल शासन-प्रशासन के मामले में लोगों के दुख-दर्द से मुँह फेरे रहा। कांग्रेस ख़ेमे तक के लोग इस बात को मानेंगे कि कैप्टन अमरिन्दर सिंह की दूसरी पारी पंजाब में किसी अभिशाप से कम साबित नहीं हुई : भ्रष्टाचार, वित्तीय मामलों में अविवेक, कामकाज निपटा पाने में फिसड्डीपन लेकिन इन सबके बावजूद सत्ता का अहंकार एकदम शिखर पर! यही बात योगी आदित्यनाथ की सरकार के लिए कही जा सकती है, उनका शासन तो यूपी वाले पैमाने पर भी फिसड्डी कहा जाएगा : गंगा में तैरती लाशों से जाहिर हो गया कि सूबे में स्वास्थ्य व्यवस्था कैसी खस्ताहाल है और हाथरस तथा उन्नाव की घटनाओं से राज्य में जारी कानून-व्यवस्था की पोल-पट्टी खुल गयी। बीजेपी को गोवा में अपने खेमे में मनोहर पर्रिकर की बराबरी का कोई नहीं मिल पाया था लेकिन उत्तराखंड में बीजेपी की दशा इससे भी ज्यादा गयी-गुजरी रही। मणिपुर में बीजेपी ने शासन के मोर्चे पर जो कुछ किया है उसमें कुछ भी ऐसा नहीं कि हम उसे कामयाबियों की फेहरिस्त में गिनाएँ। जाहिर है, फिर पाँचों ही राज्यों में सत्ताधारी पार्टी का सत्ता से बेदखल होना बनता है।

ऐसा हो पाने की संभावना नहीं है। हो सकता है, एक-दो जगह सत्ताधारी पार्टी को मुँह की खानी पड़े। हो सकता है, चुनाव वाले इन राज्यों में सत्ता-विरोधी मनोभाव उससे कहीं ज्यादा हो, जितना कि मीडिया मानकर चल रहा है। फिर भी, इन राज्यों में सत्ता-विरोधी मनोभाव के आड़े आनेवाली कोई न कोई बात हो चली है। पंजाब में सत्ता के सिंहासन से अमरिन्दर सिंह की विदाई और सूबे में प्रथम दलित मुख्यमंत्री की ताजपोशी से कांग्रेस को सत्ता में बने रहने का एक मौका और मिल गया है, यों वह इस मौके की हकदार नहीं। पंजाब में चुनावी मुकाबले में सत्ताधारी पार्टी की मुख्य प्रतिद्वन्द्वी आम आदमी पार्टी है लेकिन आम आदमी पार्टी ने बीते पाँच सालों में भरोसा जगाने लायक कुछ खास किया ही नहीं। गोवा, मणिपुर और उत्तराखंड में कांग्रेस के लिए यही बात कही जा सकती है। इन तीन राज्यों में कांग्रेस सत्ताधारी पार्टी की मुख्य प्रतिद्वन्द्वी है। इन राज्यों में कांग्रेस का सांगठनिक ढाँचा चरमराया हुआ है और नजर आ रहा है, असर डाल रहा है। उत्तराखंड को छोड़कर, कांग्रेस कहीं भी सत्ता-विरोधी मनोभाव को भुनाने की स्थिति में नहीं। जहाँ तक उत्तर प्रदेश का सवाल है, योगी सरकार का रिकॉर्ड तो ऐसा रहा है कि चुनावों में उसका सूपड़ा ही साफ हो जाना चाहिए लेकिन हकीकत ये है कि बीजेपी इस सूबे में मुकाबले में जमी हुई है और इस कोशिश में लगी है कि जातिगत समीकरणों के जोड़-तोड़ तथा सांप्रदायिक वैमनस्य की लहर पैदा करके सत्ता-विरोधी मनोभाव के धार कुंद कर दे। यूपी में बीजेपी को ये उम्मीद भी लगी है कि बीएसपी के समर्थक आधार में जो कमी आयी है, उसका फायदा वह अपने हिस्से में कर लेगी।

राजनीति के जो बड़े मुद्दे हैं, उन्हें रोजमर्रा की राजनीति इसी तरह बेपटरी का करती है और उनके ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर डालती है।

मुकाबले के खिलाड़ी?

अगर बीजेपी यूपी के चुनाव हार जाती है तो फिर दूसरे राज्यों से आया जनादेश कुछ खास मायने नहीं रखता। यूपी में बीजेपी की हार होती है तो भले ही उसे नरेन्द्र मोदी सरकार के अंत की शुरुआत नहीं कहा जा सके लेकिन ये हार बीजेपी को टक्कर दे रहे सभी खिलाड़ियों का मनोबल जरूर बढ़ाएगी। यूपी में बीजेपी की हार की सूरत में समाजवादी पार्टी मुख्य प्रतिद्वन्द्वी बनकर उभरेगी और शायद विपक्षी खेमे में जो आपस की खींचतान चलती है उसमें वह एकजुटता कायम करने के लिए एक मेह का भी काम करे।

अगर बीजेपी यूपी में सत्ता में बनी रहती है तो उसका दबदबा और भी ज्यादा बढ़ेगा और 2024 की चुनावी लड़ाई विपक्ष के लिए और भी ज्यादा कठिन हो जाएगी।

कांग्रेस के लिए जरूरी है कि वह पंजाब में सत्ता में बनी रहे और अभी के दौर के चुनाव में किसी एक सूबे में जीत दर्ज करे। उसके लिए ज्यादा संभावना उत्तराखंड में है जहाँ वह सत्ताधारी दल की मुख्य प्रतिद्वन्द्वी है। कांग्रेस अगर पंजाब में हार जाती है तो उसकी हैसियत में कमी आएगी और विपक्षी खेमे में बीजेपी का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी बनकर उभरने की आपसी लड़ाई तेज हो जाएगी। फिर भी, सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते कांग्रेस अपने तुरंत सफाये यानी एलिमिनेशन की चिन्ता किये बगैर प्लेऑफ के इन मुकाबले में बेखौफ उतर सकती है।

सेमी-फाइनल के अन्य किरदार जैसे तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी को ऐसी बढ़त हासिल नहीं। चुनावी मुकाबले में अगर समाजवादी पार्टी नाकाम रहती है तो फिर ऐसा कोई दूसरा सूबा नहीं जहाँ वह अपनी धमक दर्ज कर सके। अगर आम आदमी पार्टी पंजाब में जीत जाती है और गोवा तथा उत्तराखंड में कांग्रेस पर बढ़त बनाती है तो फिर राष्ट्रीय राजनीति में उसका कद नाटकीय ढंग से बढ़ जाएगा। लेकिन आम आदमी पार्टी अगर पंजाब में दूसरी बार भी मुँह की खाती है तो फिर राष्ट्रीय राजनीति का अहम किरदार बनकर उभरने की उसकी महत्त्वाकांक्षा के आगे यह बोर्ड लटक जाएगा कि ‘आगे रास्ता बंद है’। अगर तृणमूल कांग्रेस गोवा में सीटों के मामले में दूसरे नंबर की पार्टी बनकर उभरती है तो फिर अन्य राज्यों में उसने जो अपनी नयी-नवेली इकाइयाँ बनायी हैं, उन्हें पनपने-बढ़ने का मौका मिलेगा। अगर तृणमूल कांग्रेस गोवा में नाकाम रहती है तो फिर पश्चिम बंगाल से बाहर निकलने की उसकी योजना को पाला मार जाएगा।

ये सारे किन्तु-परन्तु मुकाबले के तमाम खिलाड़ियों को व्यस्त रखेंगे और जनता-जनार्दन का 10 मार्च तक मनोरंजन होता रहेगा। चुनावों के नजदीक आते ही हम दर्शक-दीर्घा में बैठे-बैठे खुद को ही मैदान में मुकाबला लड़ रहे एक ना एक खिलाड़ी का छाया-प्रतिनिधि मान लेते हैं, खेल में शामिल हो जाते हैं। हममें से ज्यादातर लोग शौकिया चुनाव शास्त्री बन जाते हैं और सीटों के पूर्वानुमान लगाने के खेल में जुट जाते हैं। लेकिन क्या इन सबके बीच हमें कोई ऐसी सियासी ताकत उभरती दिखती है जो बीजेपी को 2024 में काँटे की टक्कर दे सके? क्या हम ये जानते हैं कि ये खेल किन शर्तों के अधीन होगा? इस सवाल पर चहुँतऱफा घनघोर चुप्पी है और लोकतांत्रिक राजनीति के रोजमर्रामन की यही असल त्रासदी है। (द प्रिंट और समता मार्ग से साभार)

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