भारत सरकार ने कर्पूरी ठाकुर को मरणोपरांत भारत रत्न देने की घोषणा की है। पूर्व में समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडीज और मुलायम सिंह यादव को मरणोपरांत पद्म विभूषण दिया जा चुका है। महात्मा गांधी के बारे में इब्राहिम लिंकन ने कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना मुश्किल होगा कि हाड़-मांस का कोई व्यक्ति इस पृथ्वी पर पैदा हुआ था। उसी तरह आने वाले पीढ़ियों को यह जानकर अचरज होगा कि साधारण नाई परिवार में पैदा हुआ बच्चा, कई बार भूखे रहकर बिना जूते, चप्पल के स्कूल और कॉलेज जाने वाला छात्र, जाति की जकड़न में फंसे बिहार का मुख्यमंत्री बना था, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का अध्यक्ष रहा था। 9 बार विधानसभा सदस्य, लोकसभा सदस्य, उपमुख्यमंत्री भी बना था । भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी राजनीति में ईमानदारी से 38 वर्षों तक अपना वर्चस्व कायम रखने में सफल रहा था। उन्होंने यह स्थापित किया कि समाज का अंतिम व्यक्ति भी राजनीति के केंद्र में रहकर सार्वजनिक जीवन सफलता पूर्वक जी सकता है। ऐसे कर्पूरी ठाकुर का राजनीतिक जीवन परिचय जानना जरूरी है।
समाजवादी आंदोलन से कर्पूरी ठाकुर का परिचय 1938 में अपने गांव पितौंझिया के पास ओइनी ग्राम में समाजवादियों द्वारा आयोजित किसान सम्मेलन में हुआ था, जहां आचार्य नरेंद्र देव जी से पहली बार मिले और प्रभावित हुए थे। छात्र नेता के तौर पर समाजवादी नेता रामनंदन मिश्र के सामने उन्हें जब भाषण करने का अवसर मिला, जिससे वे आम लोगों की नजर में आए। उन्होंने 1940 में रामगढ़ कांग्रेस में हिस्सा लिया। यह वह दौर था जब समाजवादी नेता किसानों के बीच काम करते हुए भारत रक्षा कानून के तहत गिरफ्तार किए गए थे, जिसमें जेपी, राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामनंदन मिश्र और सहजानंद सरस्वती प्रमुख थे।
कर्पूरी ठाकुर ने 1942 के आंदोलन में दरभंगा के छात्रों के साथ मिलकर सक्रिय भागीदारी की। अंग्रेजों के दमन के चलते कर्पूरी ठाकुर नेपाल चले गए। बाद में उन्हें गिरफ्तार कर दरभंगा जेल में डाल दिया गया, जहां उन्होंने जेल की कुव्यवस्था के खिलाफ 28 दिन का अनशन किया। बाद में 13 महीने भागलपुर जेल में रहे। 2 वर्ष एक माह की सजा काटने के बाद वे 1945 में रिहा किए गए। जेल में ही उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की सदस्यता ली। 1946 में सी एस पी के मंत्री बने। उन्होंने दरभंगा जिले के सी एस पी के मंत्री के तौर पर काम किया। जमींदारों की जमीन भूमिहीनों को बांटने की लड़ाई लड़ी। 1947 में जब डॉ लोहिया ने अखिल भारतीय हिंद किसान पंचायत का गठन किया तब उन्हें प्रांतीय सचिव बनाया गया। 1948- 52 के बीच कर्पूरी ठाकुर बिहार सोशलिस्ट पार्टी के मंत्री रहे।
पहले आम चुनाव में दरभंगा जिले के ताजपुर क्षेत्र से जीत हासिल की, तब उनकी उम्र 32 वर्ष थी। इसके बाद हुए चुनाव में वे लगातार जीतते रहे। 1952 में उन्होंने वियना और यूगोस्लाविया में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी युवा सम्मेलन में भारत के युवाओं का प्रतिनिधित्व किया। वे जयप्रकाश जी के साथ प्रसोपा में भी रहे। 1957 का चुनाव ताजपुर से प्रसोपा के टिकट पर जीते। 1962 में फिर चुने गए। 19 जनवरी 1965 को प्रसोपा और सोशलिस्ट पार्टी के एकीकरण, सारनाथ सम्मेलन को सफल बनाने में कर्पूरी ठाकुर की महत्वपूर्ण भूमिका रही।
1967 में 6 राज्यों में न्यूनतम कार्यक्रम के आधार पर संयुक्त सरकारों का गठन हुआ। 1967 के चुनाव में कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के 67 उम्मीदवार चुनाव जीते लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री पद न देकर उपमुख्यमंत्री बनाया गया। तब उन्होंने शिक्षा मंत्री के तौर पर अंग्रेजी पढ़ने की अनिवार्यता समाप्त कर दी। 10 माह में ही सामंती सोच वालों ने मिलकर सरकार गिरा दी। 1969 में मध्यावधि चुनाव हुए, वे पुनः जीत गए। 22 दिसंबर 1970 को पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री बने। तब वे संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे। मुख्यमंत्री बनने के पहले उन्होंने जमशेदपुर और गोमिया एक्सप्लोसिव के मजदूरों के लिए 28 दिन का आमरण अनशन किया। 1972 के आम चुनाव में भी पुनः ताजपुर से ही चुनाव जीते। 1973 में गुजरात और बिहार के छात्रों के ऐतिहासिक आंदोलन के दौरान जब जेपी ने विधायकों से त्यागपत्र देने का आव्हान किया तब कर्पूरी ठाकुर ने इस्तीफा दे दिया। 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। वे भूमिगत होकर नेपाल चले गए। बाद में लौटकर उन्होंने पूरे देश का दौरा कर जेपी की रिहाई की मुहीम चलाई। 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने आम चुनाव की घोषणा की। 23 जनवरी 1977 को जनता पार्टी का गठन हुआ, जिसमें कर्पूरी ठाकुर शामिल हुए। 30 जनवरी 1977 को जेपी द्वारा बुलाई गई सभा में जब कर्पूरी ठाकुर पहुंचे तब उन्हें लाठी चार्ज के बाद गिरफ्तार कर 13 दिन फुलवारी जेल में रखा गया।
कर्पूरी जी का प्रयास था कि बाबू जगजीवन राम जिन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र देकर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बना ली थी, वे देश के प्रधानमंत्री बने लेकिन तमाम कारणों से यह संभव नहीं हो पाया। वे 1977 में समस्तीपुर से लोकसभा के सदस्य बने लेकिन केंद्र सरकार में वे शामिल नहीं हुए। परंतु जब 1977 में बिहार विधानसभा में उन्हें पूर्ण बहुमत मिला तब 24 जून 1977 को कर्पूरी ठाकुर दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। उनकी सरकार सिर्फ 22 महीने ही चल सकी। 1980 में हुए मध्यावधि चुनाव में कर्पूरी ठाकुर फिर चुनाव जीतकर विपक्षी पार्टी के नेता बने। 1982 में लोक दल (क) का निर्माण हुआ तथा वे पार्टी के अध्यक्ष बने। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में पहली बार समस्तीपुर से चुनाव हार गए लेकिन फिर 1985 में प्रतिपक्ष के नेता बन गए।
अचानक 67 वर्ष की आयु में उनका देहांत 17 फरवरी 1988 को हो गया।
कर्पूरी ठाकुर जी आजादी के आंदोलन में 4 वर्ष जेल में रहे, 46 वर्षों तक संघर्ष किया, 38 महीने ही उन्हें सत्ता मिली।
बिहार में वे ऐसे नेता रहे जिन्होंने अपने गुट से ऊपर उठकर समाजवादी आंदोलन का नेतृत्व किया। राजनीति तो बहुत सारे नेता करते हैं लेकिन विस्तृत जनाधार खड़ा कर पाना गिने चुने नेताओं के लिए संभव होता है। आज के दौर में जब राजनीति में पूंजी हावी हो गई है तथा मीडिया किसी भी व्यक्ति को बनाने- बिगाड़ने की ताकत रखता है, ऐसे समय में कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं की कल्पना करना भी कठिन है, जिन्होंने साधनहीन रहकर, बिना मीडिया के समर्थन के समाजवादी विचारधारा के आधार पर बड़ा जनाधार पैदा किया।
कर्पूरी ठाकुर ने अंग्रेजी विषय में पास होने की अनिवार्यता खत्म कर वंचित जातियों और गरीबों के बच्चों को पढ़ने का नया अवसर प्रदान किया। बिहार में उनके इस प्रयास का ‘कर्पूरी डिविजन’ कहकर मखौल उड़ाया गया लेकिन उनके द्वारा अपनाई गई नीति के चलते ही दलित, अति पिछड़ों और पिछड़ों को उच्च शिक्षा हासिल करने का अवसर प्राप्त हुआ। जिन्होंने राजनीति सहित विभिन्न क्षेत्रों में बिहार का नेतृत्व किया। जमीन के बंटवारे को लेकर उन्होंने जो योगदान किया उसका भी व्यापक असर पूरे बिहार पर पड़ा। यह सही है कि उन्हें सुगमता से काम करने का मौका कभी नही मिला। कर्पूरी जी के हर फैसले का समाज के ताकतवर समूहों ने हर संभव विरोध किया।
तमाम सारे अवरोधों का उन्होंने अहिंसात्मक तरीकों से मुकाबला किया। तमाम ऐसे अवसर आए जब लगा कि हिंसा हो सकती है, तब उन्होंने अहिंसा की प्रतिबद्धता के चलते कभी कहीं अपने साथियों को हिंसा का सहारा नही लेने दिया।
वह ऐसा जमाना था जब बूथ लूटे जाते थे, वोट छापे जाते थे, तब उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा कि ‘हिंसा के डर से भागिए नहीं, आप वोट के लुटेरों से मुकाबला कीजिए, बूथ लूटने मत दीजिए’। वे कहते थे कि भारत का कानून हर नागरिक को आत्मरक्षा का अधिकार देता है इसीलिए यदि कोई जान लेने की कोशिश करे तो उसका जवाब देना चाहिए। वे साफ-साफ तौर पर कहते थे कि कोई लुटेरा बूथों पर कब्जा करने पहुंचता है तो उसे मार भगाने का अधिकार जनता को है। कर्पूरी जी देश में आर्म्स एक्ट को खोखला कहते थे तथा उसे रद्द करने की मांग करते थे। उनका स्पष्ट मत था कि देश में जब बैलेट सिस्टम फेल होगा तब बुलेट सिस्टम चलेगा। बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता के तौर पर 30 जनवरी 1985 को भाषण देते हुए उन्होंने कहा था कि जनतंत्र में विश्वास रखने वाली पार्टियों को मिलकर काम करना चाहिए, तभी जनतंत्र बचेगा।
कर्पूरी जी के इस कथन को भारतीय राजनीति का शाश्वत सत्य माना जा सकता है। 17 मई 1934 को पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में 100 समाजवादियों द्वारा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी गठित किए जाने, 1967 में संविद सरकार बनने, 1977 में जनता पार्टी, बाद में जनता दल का गठन करने से लेकर अब समाजवादियों के ‘इंडिया गठबंधन’ में शामिल होने के पीछे यही विचार काम करता दिखलाई पड़ता है।
कर्पूरी जी जनतंत्र में जनप्रतिनिधियों की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते थे। कर्पूरी जी विधायकों के कार्यों को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए पार्टियों को यह सलाह देते थे कि वे ऐसे उम्मीदवारों का चयन करें जो विधानसभा और लोकसभा में जनता की बात प्रभावशाली ढंग से रख सकें। वे विधानसभा और लोकसभा में समृद्ध पुस्तकालय के पक्षधर थे। वे मानते थे कि विधायकों और सांसदों को पठन-पाठन की अधिक से अधिक सुविधाएं दी जानी चाहिए। अपने भाषणों में वे कथनी और करनी में समानता, नैतिकता पूर्ण आचरण पर जोर देते थे। वे कहते थे कि जनप्रतिनिधियों का काम है कि वे जनता को जागरूक, जुझारू और बहादुर बनाएं। वे मानते थे कि जनप्रतिनिधि की इच्छा शक्ति और संकल्प शक्ति से ही नतीजे निकल सकते है। यथास्थितिवादी समाज में भी परिवर्तन लाया जा सकता है।
वे बार-बार कहते थे कि राजनीतिक नेतृत्व को सदाचारी होना चाहिए। वे लगातार ग्रामीण क्षेत्र के पेयजल की समस्या को विपक्ष में रहकर उठाते रहे तथा जब-जब उनके हाथ में राजनीतिक ताकत आती थी तब उन्होंने पेयजल समस्या के हल के लिए प्रयास किए। वे मानते थे कि सांस्कृतिक रूप से देश आज भी गुलाम है तथा अंग्रेजी का प्रभाव खत्म कर बिहार को हिंदी भाषा में काम करना चाहिए। वे कहते थे कि भारत एक बहुभाषी देश है। प्रत्येक राज्य को अपनी भाषा में काम करने की छूट होनी चाहिए। हिंदी भाषियों का देश की अन्य भाषाओं के प्रति आदर का भाव होना चाहिए अर्थात वे डॉ लोहिया के विचारों के अनुरूप लोक भाषाओं को बराबर का सम्मान दिए जाने के पक्षधर थे।
कर्पूरी ठाकुर जी कहते थे कि हिंदू-मुसलमान के तनाव को खत्म करने के लिए जमीनी स्तर पर एकीकरण के नए-नए तरीके खोजे जाने चाहिए। मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, सांसद, मंत्री रहने के बावजूद उन्होंने कभी भी खुद को नेता नहीं माना था, वे खुद को हर समय कार्यकर्ता कहते थे।
डॉ.लोहिया के चौखंबा राज की परिकल्पना को उन्होंने न केवल गहराई से समझा था बल्कि उसे दिन-रात बिहार की जनता को भी समझाया करते थे। वे अपने भाषणों में बार-बार यह याद दिलाते थे कि हम महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज तथा हिंद स्वराज से कोसों दूर हैं। वे मानते थे कि स्वराज या स्वायत्तता का अर्थ है- राजनीतिक, आर्थिक, प्रशासनिक विकेंद्रीकरण।
जिस तरह आज नरेंद्र मोदी विपक्ष की सरकारों में तोड़फोड़ कर दल बदल कर अपनी सरकारें बनवा रहे हैं, उसे पता चलता है कि दल बदल का मुद्दा आज भी भारतीय राजनीति में अहम मुद्दा बना हुआ है। कर्पूरी ठाकुर अपने जीवन काल में दल बदल का कानून न बनाने के लिए कांग्रेस पर कड़ा हमला किया करते थे।
जिस तरह आज भाजपा, विपक्ष की गैर भाजपा सरकारों को काम करने नहीं देती, ऐसा ही कर्पूरी जी के जमाने में कांग्रेस किया करती थी, जिसका प्रबल विरोध कर्पूरी जी किया करते थे परंतु यह दुखद है कि आज तक दल बदल कानून ऐसा स्वरूप नहीं ले पाया जिसके चलते चुनाव जीतने के बाद दल बदल करने वाले व्यक्ति को चुनाव लड़ना मुश्किल हो सके।
डॉ.लोहिया के नजदीकी साथी होने तथा बिहार के वंचित सामाजिक समूह में पले-बढ़े होने के चलते कर्पूरी जी गरीबों के दुख दर्द को समझते थे। कर्पूरी जी के बारे में यह कहा जाना उचित होगा कि अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त कर, अलाभकारी कृषि को कर मुक्त कर, सामाजिक- आर्थिक रूप से पिछड़ों को शिक्षा एवं सरकारी सेवाओं में प्राथमिकता, महिलाओं को पुरुषों के समान दर्जा, भूमि हदबंदी की सीमा निर्धारण जैसे कार्यक्रमों को लेकर बिहार में भले ही काफी विवाद हुए हो लेकिन कर्पूरी जी न तो रुके, न थके और न ही उन्होंने अपना रास्ता बदला।
उन्होंने बिहार में समाजवादी राजनीति को स्थापित किया था। जिसके चलते आज भी बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (यू) की सरकार चल रही है।
उन्होंने 1974 में जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर विधानसभा की सदस्यता छोड़ी थी। आज फिर अवसर आया है जब भारत की संसद के भीतर और केंद्र सरकार के फैसले दिन प्रतिदिन देश पर तानाशाही थोप रहे हैं। 141 सांसदों को संसद से निलंबित किया जा चुका है। ऐसी स्थिति में समाजवादी सांसदों को संसद से इस्तीफा देकर कर्पूरी ठाकुर, मधु लिमये और शरद यादव का अनुसरण करना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि इंदिरा गांधी द्वारा संसद का कार्यकाल बढ़ाए जाने के विरोध में मधु लिमये और शरद यादव द्वारा संसद से इस्तीफा दे दिया गया था।
इन दिनों जातिगत जनगणना और जातिगत आरक्षण के मुद्दे पर देश में बहस चल रही है। ऐसे समय में कर्पूरी जी की जाति नीति और आरक्षण नीति पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। यह कार्य समाजवादियों के अलावा और कोई नहीं करेगा।
कर्पूरी ठाकुर ने बिहार में सरकार बनने पर डॉ लोहिया के विशेष अवसर के सिद्धांत को लागू करने के लिए अति पिछड़ों के लिए जो आरक्षण की व्यवस्था की थी उसे आजकल कर्पूरी फार्मूले के नाम से जाना जाता है। इस फार्मूले की प्रासंगिकता आज पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। समाजवादियों को जाति जनगणना के साथ-साथ कर्पूरी फार्मूले को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने के लिए विशेष पहल करनी चाहिए।
कर्पूरी ठाकुर जन्मशताब्दी वर्ष में देश भर में सैकड़ों कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं। कर्पूरी जी की राजनीतिक विरासत पर दावेदारी करने वाली पार्टियों ने सैकड़ों कार्यक्रम आयोजित किए, साथ ही साथ सामाजिक स्तर पर भी तमाम कार्यक्रम आयोजित, किए गए परंतु कर्पूरी ठाकुर जी के जीवन से जुड़े सभी आयामों को न तो हाईलाइट किया जा सका और न ही बड़े पैमाने पर कर्पूरी जी की जीवनी को जन-जन तक पहुंचाया जा सका। असल में कर्पूरी जी के द्वारा किए गए कार्यों का सही मूल्यांकन भी अब तक नही हो पाया है।
कर्पूरी ठाकुर जी की विरासत संभालने वाले बिहार के नेताओं और पार्टियों और बिहार सरकार से यह अपेक्षा की जाती है कि वे इस दिशा में ठोस निर्णय लेकर अपनी राजनीतिक इच्छा शक्ति और संकल्प शक्ति को जनता के बीच साबित करेगी।