राजकुमार जैन
स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा, महान चिंतक, सोशलिस्ट नेता मधुलिमए ने हिंदी, अंग्रेजी, मराठी मे जो लिखा वह 100 से अधिक पुस्तकों में लिपि बद्ध है। परंतु अपनी मृत्यु से पूर्व 29 जनवरी 1995 को अपना अंतिम लेख “एनकाउंटर विद गांधी: इन लाइफ एंड डेथ, (हिंदुस्तान टाइम्स) मे लिखा। जो अब ‘मधुलिमए लास्ट राइटिंग, पुस्तक में प्रकाशित है। इस लेख मे उनके जीवन पर महात्मा गांधी का क्या प्रेरणादायक प्रभाव, तथा खास तौर पर महात्मा गांधी की हत्या की खबर सुनकर नौजवान मधुलिमए के मन पर उसका क्या असर हुआ? उसका बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है। मूल लेख अंग्रेजी में है, उसका हिंदी अनुवाद प्रस्तुत है
गांधी जी का अंतरंग दर्शन
जब मैं अपने एक तिहाई से कुछ कम जीवन पर नजर डालता हूँ तो मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि महात्मा गांधी ने मेरी जीवन-दृष्टि तथा मेरे चिंतन को कितना गहरे प्रभावित किया है। जब गांधी दक्षिण अफ्रीका के अपने असाधारण मिशन से लौटे जहाँ उन्होंने सविनय अवज्ञा की तकनीक का अविष्कार किया और अपने व्यक्तिगत रहन-सहन में आमूल परिवर्तन किया, तो भारत में अन्याय का प्रतिरोध करने में प्रारंभिक प्रयोग उन्होंने चम्पारण (नील की खेती करने वालों में) अहमदाबाद (श्रमिकों में) और खेड़ा (अपनी जमीन पर खेती करने वालों) में किए। यद्यपि ये प्रयास महत्वपूर्ण थे फिर भी इनसे वे अभी अखिल भारतीय नेता नहीं बने थे। इसके बाद रौलट कानून बना। गांधी इससे बहुत उद्वेलित हुए। उन्होंने विरोध का एक नया रूप आविष्कृत किया- प्रार्थना की मुद्रा में देशव्यापी शांतिपूर्ण हड़ताल। गुलाम भारत के लिए यह नया आह्लादक अनुभव था। तत्पश्चात असहयोग आंदोलन चला जिसने सारे देश में हलचल मचा दी। बंबई के गवर्नर लॉयड ने अमेरिकी पत्रकार ड्र्यू पीयरसन को लिखा गांधी ने हमें डरा दिया। उसके कार्यक्रम ने हमारी जेलें भर दीं। आप हमेशा लोगों को गिरफ्तार करते नहीं रह सकते— खासकर जब गिरफ्तारी देने वाले 31,90,000 हों। अगर उसने अगला कदम उठाया होता और टैक्स देने से मना कर दिया होता, तो भगवान ही जानता है हमारी क्या हालत होती।” गांधी जी का प्रयोग मानव इतिहास का सबसे बड़ा प्रयोग था और यह सफलता से मुश्किल से एक इंच दूर रहा।
ये घटनाएं मेरे जन्म से पहले घटी थीं। लेकिन मेरे प्राथमिक स्कूल के बाद का बचपन डांडी मार्च के पश्चात की प्रभात फेरियों, ध्वजारोहणों, पुलिस
के क्रूर प्रदर्शन और खदरधारी स्वयंसेवकों की गिरफ्तारियों में बीता। बंबई में बीते 1932 के वर्ष ने मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ी हम कांग्रेस हाउस (बादाम बाड़ी) के सामने रहते थे, जो उन दिनों पीली पगड़ीवालों (पुलिस) के कब्जे में दिखाई देता था। मुझे आजाद मैदान के दृश्य याद आते हैं, जब पुलिस लाठियाँ चलाती थी और लोग चुपचाप लाठियों के प्रहार सहते थे। इन दृश्यों को देखकर कौन इस स्थिति से उदासीन रह सकता था? अवचेतन पर उकेरे गए बचपन के उस अनुभव के कारण ही में कभी आतंकवादी कार्यों की ओर आकृष्ट नहीं हुआ, भले ही ये काम वीरतापूर्ण हो मेरे मन में हमेशा ही मानवता के लिए खुद महापीड़ा भोगने वालों के प्रति बहुत सम्मान रहा है, दुष्टों का संहार करने वाले अवतार पुरुषों के प्रति नहीं 1930-32 की मेरी स्मृतियों में देश-सेविकाओं की स्मृति विशेष रूप से ताजा है जिनके हाथ में तिरंगा झंडा होता था, सफेद बार्डर वाली हरी साड़ी और केसरिया ब्लाउज या हरा-सफेद ब्लाउज और केसरिया साड़ी (कभी-कभी गांधी टोपी के साथ) जिनकी वेशभूषा होती थी और जो बड़ी बहादुरी के साथ पुलिस का सामना करती थीं।
जब मुझे राजनैतिक चेतना आई, तो कांग्रेसी सरकारें काम करने लगी थीं। मैं उन बातों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देता था, जिन्हें कच्ची उम्र के हम नौजवान गांधी जी की हानि रहित सनक और कमजोरियाँ मानते थे। किंतु मुझे मंत्रियों को दी गई यह सलाह अच्छी लगी थी कि वे तड़क-भड़क से बचें और सादा जीवन जी कर गरीबों की सेवा करें।
लेकिन कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ संबंध के उन प्रारम्भिक दिनों में मैं आमतौर पर गांधी जी की आलोचना करता था। निस्संदेह, महाराष्ट्रीय मध्य वर्ग का एक तबका गांधी और उनके कार्यों से जिस तरह घृणा करता था, मुझे उससे नफरत होती थी। ‘क्या एक बनिया हमें राजनीति सिखाएगा ऐसा केलकर पंथी मराठी ब्राह्मण कहते थे। के. एफ. नरीमन और एन. बी. खरे प्रसंगों के कारण भी गांधी जी की निंदा की जाती थी। लेकिन मेरा विचार था कि वे दोनों गलती पर हैं और गांधी जी बिल्कुल सही हैं।
किंतु 1939 में मुझे अवश्य लगा कि गांधी जी ने सुभाष चंद्र बोस के प्रति कुछ कठोरता दिखाई। निश्चय हो, सुभाष ने क मैं भी स्वीकार नहीं किया और उनमें आजादी की चाह इतनी श्रीक जी को किसानों के बारे में अधिक नहीं रहेंगे। मुझे जी का राजकोट का उपवास भी अच्छा नहीं लगा था। इसके लिए जोर गया, उसका पित्य मेरी नहीं आया। कांग्रेस काशिपुरा में होने वाला था और निर्वाचित अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस गंभीर रूप से अस्वस्थ थे। गांधी जी ने बाद में खुद कहाकि यह उपवास दोषपूर्ण था ठीक उसी कारण से नहीं जिसका मैंने ऊपर जिक्र किया है।
सितंबर, 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हुआ। गांधी जी ने अपनी नैतिक भूग्रेजों के प्रति दिखाई। बारह साल काग्रेस युद्ध-विरोध के प्रस्ताव पास करती रही थी। मैं उस वक्त दंग रह गया, जब गांधी जी ने वक्तव्य जारी करके इस बात पर विलाप किया कि युद्ध के दौरान ब्रिटिश संसद के सदन और वेस्टमिंस्टर एवी ध्वस्त हो सकते हैं। मैं गांधी जी को मानता था और वे थे भी। किंतु उन्होंने जर्मनी के कोलोन गिरने या शाम के नीटे डाम का नाम क्यों नहीं लिया ? मेरे मन में गुस्से से अधिक खेद था।
उसके बाद ढाई वर्ष बीत गए जिनमें कुछ समय जेल में बीता। सर स्टेफर्ड क्रिप्स नई योजना लेकर आए। यह सत्ता के ठोस तत्व से रहित खोखली योजना थी। बातचीत असफल हो गयी। पूर्वी युद्ध के लंबे साये भारत पर पड़े, विशेष कर बंगाल की खाड़ी के इलाकों में आम माहौल ऐसा था कि कोई घटना घटेगी। इसमें अनिश्चितता और निराशा का तत्व मिला हुआ था। अचानक अंधकार में प्रकाश की किरण फूटी। महात्मा गांधी ने “भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, जिसने जल्दी ही अप्रत्याशित वेग पकड़ लिया।
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन अगस्त में बंबई में हुआ। बंबई के मेयर नौजवानों के प्रिय नेता यूसुफ मेहर अली ने मुझे पंडाल में प्रवेश की सुविधा दी। लगातार भारी वर्षा हो रही थी। ग्वालियर टैंक का मैदान दलदल बन गया था। मैं और मेरे नौजवान साथी धीरे-धीरे मंच के पास सरक आये। देर रात का समय था। मैंने गांधी जी को पहली बार नजदीक से बोलते देखा। यह अविस्मरणीय मुलाकात थी। गांधी जी का भाषण हृदय से प्रेरित था। वे पहले हिंदी में बोले। बाद में अंग्रेजी में उनका अद्भुत भाषण हुआ में भारत के इतिहास के उन महान क्षण का साक्षी था। उसी क्षण मुझे गांधी ने सम्मोहित कर दिया और फिर वर्षानुवर्ष में उनकी ओर अधिकाधिक आकृष्ट होता गया। 1946-47 में उस दुर्बल वृद्ध ने अकेले ही नीआखाली, बिहार और दिल्ली में साम्प्रदायिक घृणा की आग को बुझाने का जो प्रयत्न किया, उससे मैं गहरा प्रभावित हुआ।
नवंबर, 1947 में मैं सोशलिस्ट पार्टी के प्रेक्षक प्रतिनिधि के रूप में एंटवर्प (बेल्जियम) में हो रहे अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में भाग लेने के लिए यूरोप की यात्रा पर गया। एक महीना ब्रिटेन में रहने के अलावा में फांस, स्विटजरलैंड, चेकोस्लोवाकिया और इटली भी गया। मैंने देखा कि पश्चिम के लोग गांधी के नाम से भली-भाँति परिचित थे। मैंने जिन लोगों से बात की, उनमें अधिकांश ने उनके प्रति आदर व्यक्त किया। जनवरी के अंत में मैं जेनेवा फ्लोरेन्स, मिलान, पॉम्पी और नेपल्स आदि शहर देखने के बाद रोम में पहुंचा। इटली की इस राजधानी में (जिसे वहाँ रोमा लिखा जाता है और महाभारत के सभापर्व में भी इसी नाम से उसका उल्लेख है तथा जहाँ विश्व के इतिहास की कई महत्वपूर्ण घटनाएं घटी थीं। मैंने सभी पुराने स्मारकों को देखा और उनकी पृष्ठभूमि का बड़े मनोयोग से अध्ययन किया। हेलोनिक (ग्रेको-रोमन) सभ्यता मेरा प्रिय विषय था। इस प्रकार जनवरी के दूसरे पखवाड़े में रोम के इतिहास और क्लासिकल संस्कृति में पूरी तरह सरोबार हो चुका था। 31 जनवरी, 1948 की सुबह मैंने बिस्तर से उठकर गरम पानी से स्नान किया, कपड़े पहने और अपने होटल से बाहर निकला। कड़ाके की ठंड थी। “कोरेरी डेला केला” अखबार बेचने वाला एक लड़का कुछ दूरी पर जोर-जोर से चिल्ला रहा था। मैंने अखबार खरीदा और उसमें गांधी की तस्वीर देखी। वे जमीन पर गिरे हुए थे। क्या वे मर चुके थे या घातक रूप से जख्मी हुए थे। मैं दौड़कर वापस होटल में आया। होटल का पोर्टर कुछ अंग्रेजी जानता था। मैंने उसे अखबार दिखाया और उससे मतलब समझाने का निवेदन किया। उसने कुछ शब्दों में बताया कि गांधी जी को किसी ने गोली मारी और वे मर गए हैं। फिर यह जानकर कि मैं किस देश का हूँ, सहानुभूति से भर कर उसने कहा, “गांधी अच्छा था, गांधी अच्छा था।”
मैं ऊपर से नीचे तक बुरी तरह हिल गया। मुझे लगा कि मेरे चारों ओर की दुनिया तेजी से घूम रही है। मैं सड़क पर निकल गया और खोया-खोया चलने लगा। कई लोगों ने तथा एक महिला ने मुझे हिन्दुस्तानी पहचान कर मेरे निकट रुक कर कहा, “हिन्दुस्तानी ? गांधी पर गए।” फिर बोले, “गांधी अच्छा आदमी, गांधी बहुत बड़ा आदमी।” एक क्षण में गांधी का सार्वदेशिक महत्व मेरी समझ में आ गया। लोगों के सहानुभूतिपूर्ण शब्दों ने मेरा मन हल्का किया। तथापि मुझे लगा कि हम अनाथ हो गये हैं। मैं बेमन से चलता रहा। अंत में मैंने देखा कि मैं प्राचीन फोरम में हूँ। पर्यटक ज्यादा नहीं थे। मैं एक जगह बैठ गया। मैं लगभग अकेला था और जल्दी ही में विचारों की दुनिया में खो गया। मैं ग्रीक शोकांतिका के समवेत स्वर का एक पात्र बन गया— जो साक्षी भी होता है और भाग लेने वाला भी शब्द भी मेरे नहीं थे। वे विभिन्न स्रोतों से उमड़े चले आ रहे थे। इसाया, शेक्सपियर, उपनिषद, महाभारत और सबसे ऊपर असीकिलस, साफोकलस, युरी पाइडस आदि रचनाओं से जिनमें मेरी गहरी रूचि थी। मैंने अपनी आँखों के सामने एक कुरूप धर्मांध को गांधी पर गोलियां बरसाते देखा। गांधी जी जमीन पर गिर गए। जब वे आखिरी सांस के लिए छटपटा रहे थे तो मैंने उन्हें धीमी आवाज में कहते सुना :
गांधी : ओह! इस भयानक यातना का अंत कब उस अंतिम गहन पीड़ा में होगा जो तमाम पीड़ाओं से मुक्ति दिलाती है ?
समवेत स्वर : ओह! दुखी मानव, भयानक और क्रूर मृत्यु तुम्हें अपने आलिंगन में ले रही है। यह मेरे दिल को चीर रही है, क्योंकि मैं मानता हूं कि तुम अपनी अच्छाई के कारण ही मर रहे हो और तुम मर्मांतक यातना
इसलिए झेल रहे हो क्योंकि तुमने दुखी मानवता की भलाई के लिए पूर्णतया आत्म-त्याग का रास्ता अपनाया था। मैंने 1937-38 में तुम्हारी आवाज सुनी थी जो दुख में पड़ी हमारी महान मां की आवाज थी। इस आवाज में आग्रह था, आदेश था, जिसे सुन कर मैं, मेरे साथी और अगणित लोग स्वाभिमान से भर गए थे। तुमने एक महान कार्य का उपकरण बनाया और अब तुम हमें बीच में ही अकेला छोड़ कर जा रहे हो।
गांधी: नहीं, मेरे बच्चों। मेरे पास जो कुछ था तुम्हें दे दिया। अब मुझे जाना होगा।
समवेत स्वर : तुमने अपना सारा जीवन लंबे समय से दुख भोग रही माँ को सांत्वना देने में लगा दिया। उसकी संतान हजार साल से अधिक समय से भटक गई थी। वीरता और बलिदान के कुछ उज्जवल उदाहरण पेश करने के बाद यह पीढ़ी फिर गुनाह में डूब गई है “यह अन्याय से पापियों के बीज से लद गई है।” नौआखाली और टिपेरा से होते हुए बिहार, उत्तर प्रदेश से – पंजाब, सिंघ और पेशावर तक भारत माता की ये संतानें अकल्पनीय रूप से राक्षसी बन गई हैं। उन्होंने अपनी समुद्र विरासत को तिलांजलि दे दी है। यह न तो ईश्वर से अधीन भाईचारे को मानती है और न मानवता के बंधन को। हे माता तुम्हारे एक बेटे ने आग की लपटों के बीच मानवता और सभ्यता की मशाल ऊंची जलाए रखी थी। अब पापियों ने उसे खत्म कर दिया है। ओ माँ! हम तुम्हारे उस महान बेटे के ऋण से कैसे उऋण होंगे ?
गांधी : मेरे नौजवान दोस्तों! अगर तुम सचमुच मुझे प्यार करते हो तो मुझे बुतों में कैद मत करना। उन सिद्धांतों के अनुसार काम करना जो हमें प्रिय रहे हैं…… हे राम! ओ, दिव्य सुगंध की सांस । यद्यपि पीड़ा मुझे जलाए दे रही है, मैं तुम्हारी आनंदमयी उपस्थिति महसूस कर रहा हूं और मुझे शांति मिल रही है। ओह राम! वे तुम्हें अनेक नामों से पुकारते हैं। तुम्हें ईश्वर, अल्लाह और परमात्मा कहते हैं। मैंने तुम्हें दरिद्रनारायण कहा था। तुमने मुझे सबसे नीचे बैठे व्यक्ति की सेवा की प्रेरणा दी। तुमने मुझे मानव के जख्मों को सहलाना सिखाया। तुमने मुझे माताओं के आँसू पोछना सिखाया। तुमने मुझे अपंग और क्षत-विक्षत बच्चों के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए प्रेरित किया। तुमने घृणा की आग को बुझाने की चाह मेरे मन में भरी। तुम्हीं ने यह सब मेरे लिए किया और अब एक अवर्णनीय सुख मेरे ऊपर छा रहा है और मुझे लगता है कि यह अंत नहीं, शुरूआत है, क्योंकि मेरा विश्वास है कि तुम इस समय मेरे पास हो ।समवेत स्वर : जैसा कि एक प्राचीन भविष्यवक्ता ने कहा कि तुमने “गरीबों को न्याय से देखा और दुनिया के निर्बल इन्सानों को समानता का दर्जा दिलाया।” तुमने स्त्री-पुरूषों में अहिंसा का संदेश फैलाने का बीड़ा स्वेच्छा से उठाया। तुम्हारा स्वप्न था कि अहिंसा पूर्ण सफल होगी और न केवल भारत के सारे समुदाय मिलजुल कर रहेंगे, बल्कि सारे विश्व में शांति होगी और ‘भेड़िया भेड़ के साथ रहेगा, चीता बच्चे के साथ खेलेगा, बछड़ा और सिंह शावक साथ-साथ भोजन करेंगे और छोटा बच्चा उन्हें चराने ले जायेगा।” वह खूबसूरत सपना अब खंडहर बन गया है। हमें इस बात का बहुत दुख है कि उस स्वप्न को देखने वाला रक्त से लथपथ हो कर जमीन पर लेटा है।
ओम् शांति, शांति, शांति ।…….