Tribute : समझौता नहीं करने वाली आकृति थी बबली गुप्ता

राजकुमार जैन

 

जाकिर हुसैन कॉलेज दिल्ली यूनिवर्सिटी अंग्रेजी विभाग की सबसे उत्साही हस्तियों में से एक का हाल ही में निधन हो गया। बबली गुप्ता, जब मैं सदी के मोड़ पर उनसे मिला था, तो पहले से ही एक अनुभवी थे, जेडएचसी शाम के अंग्रेजी विभाग की एक ग्रैंड-डेम। वह स्पष्ट, स्पष्ट और एक समझौता नहीं करने वाली आकृति थी, कभी-कभी एक गलती के लिए गंभीर थी। कट्टरपंथी और दबंग, वह विभाग की कम रोशनी पर ऊपर उठा। उस समय अंग्रेजी विभाग पुराने समय के लोगों से भरा था जो मिडलटन मरे या ए से आगे नहीं गए थे। सी ब्रैडली। बबली जी (सम्मानजनक ‘जी’ वास्तव में उन दिनों ‘मैम’ से कम औपचारिक थे) अपने समकालीन लोगों से बहुत आगे थे। उन्हें 1990 के दशक की नई पीढ़ी के ‘उत्पादन का तरीका’ ‘गैप्स एंड फिशर’ और ‘पोस्ट- सबकुछ के साथ खतरा महसूस नहीं हुआ था। वास्तव में उसने हमें प्रोत्साहित किया, लेकिन इतिहास की पर्याप्त समझ थी हमें सलाह देने के लिए (आमतौर पर धीरे से लेकिन कभी-कभी तेजी से) जब हमने अंग्रेजी शिक्षकों की पिछली पीढ़ी के मानसिक टॉर्च का मजाक उड़ाया था। उसने हमें फटकार लगाई और फिर जीत लिया अपनी मुस्कुराती आँखों से जो कहती थी कि वो हर वक्त सहमत थी हमसे।

मैं जनवरी 2000 में जाकिर हुसैन अंग्रेजी विभाग में शामिल हुआ। बबली ने स्वागत किया और घर पर महसूस करवाया उसने विभाग में दयालुता और खुलेपन का माहौल बनाया जिससे मुझे अपनेपन का एहसास हुआ। मैंने दोस्त बनाए, अन्य विभागों के सदस्यों के साथ मेलमिलाप किया और पाया कि उसने मेरे लिए कई कानों में एक अच्छा शब्द रखा है। और वो मुझसे पहले शायद ही मिली थी। उसने इतनी आसानी से बंधन स्थापित किए जो आश्चर्यजनक और मोहक दोनों थे। औरों से सुना मैंने उसकी बद मिजाज़, उसकी नाराज़गी, उसकी वीरानी, उसकी तन्हाई। मैं शायद ही उसके इस दूसरे पक्ष से मिला था। शायद इसके राजनीतिक कारण थे, लेकिन मुझे लगता है कि वह हमारे दोषों के प्रति बेहद सहिष्णु थी और उन्हें युवा सच्चाई के रूप में सोचा था जो समय के साथ गायब हो जाएगी।

मेरे पास उसकी कोई तस्वीर नहीं है। उसकी लगातार बीमारियों ने उसे दिखने और रवैये के मामले में बदल दिया। मुझे लगता है कि वह अपने जीवन के अंतिम भाग में काफी सुशोभित थी। वह राजनीतिक स्पेक्ट्रम के उस छोर से काफी दूर चली गई जिसमें उसने अपना आधा जीवन समर्पित कर दिया था। मैं इस बदलाव पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं कर सकता और शायद नहीं कर सकता, लेकिन मुझे उम्मीद है कि उसके पूर्व दोस्तों को इस कारण से उसे अनदेखा नहीं करना चाहिए। एक स्पष्ट और भावुक महिला, वह अपने पूरे जीवन में अपने आवश्यक गुणों के प्रति सच्ची रही। हमें नीचे दी गई तस्वीर में उसकी मुस्कान को याद रखना चाहिए, उसकी आवश्यक दयालुता और न्याय के डर के बिना उसके मन की बात करने की क्षमता के लिए। हमें वर्तमान दुनिया में उसके जैसे और लोगों की आवश्यकता है।

अंशुमान सिंह

1968 में मै किरोड़ी मल कॉलेज में हिस्ट्री ऑनर्स का छात्र था। वे मुझे ढूंढती हुई कॉलेज में आई और उनके हाथ में एक पुराना सा टेप रिकॉर्डर था जिसमें वे युवाआकाशवाणी के छात्र संस्करण पर रिपोर्टिंग करती थी। उस समय उनका नाम बबली नागपाल था। कॉलेज की कैंटीन में बैठकर उन्होंने मेरा इंटरव्यू लिया। कैंपा कोला की की बोतल को हाथ में ना लेकर मेज पर रखे हुए ही मुंह झुका कर स्ट्रा से पीती हुई उन्होंने मुझसे बातचीत शुरू कर दी। पहली मुलाकात में उनका बिंदास अंदाज देखकर कुछ हैरत हुई। उसके बाद उनसे मुसलसल मुलाकात होती थी। वे जाकिर हुसैन कॉलेज में अध्यापक बन गई और मैं रामजस कॉलेज में पढ़ाने लगा। अब वे मार्क्सवादी विचारधारा में रंग गई थी तथा दिल्ली यूनिवर्सिटी के मार्क्सवादी शिक्षक संघ डीटीएफ की सदस्य के रूप में आक्रामक मुद्रा में दिखाई देती थी। मैं भी सोशलिस्ट (लोहिया वादी) समाजवादी शिक्षक मंच का बिगुल विश्वविद्यालय में बजाता था। परंतु पुरानी पहचान होने के कारण खुलूस से भरे बर्ताव में मेरी उनसे बात होती थी, परंतु जब विचारधारा पर बात छिड़ जाती तो वह उग्र रूप में आ जाती। बाद में उनका विवाह मार्क्सवादी वेद गुप्ता से हो गया। वेद गुप्ता चरखे वालान, चांदनी चौक दिल्ली 6 के दिल्ली के एक पुराने नामवर रईस खानदान से ताल्लुक रखते थे। आजादी की जंग में इस खानदान की कई महिलाओं ने 1942 में ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ ‘करो या मरो’ आंदोलन में चांदनी चौक में सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तारी दी थी । इसी परिवार के एक बुजुर्ग लाला रूपनारायण ने भी कई साल हिंदुस्तान की मुख्तलिफ जेलो में कैद काटी थी। वे हिंदुस्तानी सोशलिस्ट तहरीक के बहुत ही नामवर जयप्रकाश नारायण, डॉक्टर लोहिया के साथी थे। वे दिल्ली के सोशलिस्टों के लिए बहुत ही आदरणीय थे। उनसे मिलने के लिए मैं कई बार उनके घर चरखे वालान जाता था। वेद गुप्ता से शादी करने के बाद बबली इस मकान में रहने के लिए आ गई थी। जब मैं उनको वहां देखा तो मैं आश्चर्य चकित हो गया। एक देहाती ग्रहणी के रूप में वे दहलीज को साफ कर रही थी। हमारे नेता रूपनारायण जी इनकी तारीफ के कसीदे ही पढ़ते रहे। बाद में बबली का मोहभंग मार्क्सवादी टोले से हो गया। उसके बाद इनको काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। परंतु जब मैं उनकी शख्सियत को निहारता हूं तो मुझे लगता है कि वह उच्च शिक्षित, बिंदास होते हुए भी उनमें सहजता, सरलता, सौम्यपन, सादगी की सारी खूबियां झलकती थी। तकलीफ के दिनों में भी मुस्कुराहट के साथ सामने वाले से बातचीत करने को भूलाया नहीं जा सकता। मैं अपने श्रद्धा सुमन उनकी याद में अर्पित करता हूं।

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