डॉ. कल्पना पाण्डेय ‘नवग्रह’
कितना कठिन है खु़द को समझ पाना पर दूसरों को जानना समझना उतना ही आसान। जैसा कि रोज़ ही कुछ किस्से दूसरों के व्यक्तित्व को उजागर करते पढ़े जा सकते हैं। भाषणों में दिल खोलकर सबके विकास की बातें सुनते हैं पर अपनाते वक़्त दिल का कोई कोना सहज नहीं। विचार इतने दूरगामी परिणाम देते हैं कि किसी का घर जलाना कितना आसान हो जाता है।
कहां जा रहा है भारतीय जनमानस ? कितनी कट्टरवादिता है हम सभी में। क्या किताब में लिखे कुछ शब्द ही भारत की व्याख्या करते हैं? क्या कुछ शब्द हमारी अस्मिता मिटा सकते हैं , संस्कृति तबाह कर सकते हैं? हमारी भावनाओं को इस क़दर ठेस पहुंचा सकते हैं कि हम दूसरों को जलाकर राख कर देना चाहते हैं! प्रतिद्वंदिता विचारों की विचारों से होती है तो अच्छी है। सभी एक जैसा नहीं सोच सकते। सबको सब की परवाह करनी है नहीं तो सहिष्णुता का झूठा चोंगा उतार कर फ़ेंक देना चाहिए।
जनता के प्रतिनिधियों का आज चरित्र बहुत गिरा हुआ है। वे जनता का मनोबल क्या उठाएंगे? अपनी-अपनी ढपली और अपना -अपना राग है। जितना विकास नहीं उससे ज़्यादा खर्च उसके प्रचार में , यह कैसा विकासवाद है! क्या जनता के जीवन में परिवर्तन उसे महसूस नहीं हो रहा है जो चारों ओर से उसे घेरने की साजिश हो रही है। यूपी का चुनाव न मालूम पूरे देश का चुनाव हो गया है । भारत में बढ़ते नफ़रत- घृणा के कारणों को बढ़ावा देना ही सिर्फ़ राजनेताओं का काम रह गया है। जैसे ही चुनावी बिगुल बजा आगजनी, तोड़फोड़, हिंसा की वारदातों का जश्न शुरू और छोटी-छोटी बातों को तिल का ताड़ बनाना। अगर किताब के कुछ शब्द हिंदुत्व का अपमान करती है तो उनका घर जला कर आपने कौन सा सम्मानजनक कार्य किया?
पहले धर्म को समझना जरूरी है । चरित्र ही धर्म है, पर कहां कोई चरित्रवान नज़र आता है। सब सत्ता के सगे हैं । येन- केन प्रकारेण ,साम-दाम-दंड-भेद किसी भी तरह स्वकी लोलुपता शांत होती रहे यही आज की राजनीति का सर्व प्रमुख उद्देश्य है। क्या अपने विचारों को प्रकट करना अपराध है? यदि हां ! तो हम सभी हर- पल अपराधी हैं । क़िताब समाज का आईना है ,लेखक की सोच का प्रतिबिंब है ,उसके अनुभवों का सार है । यह ज़रूरी नहीं कि लेखक सबको संतुष्ट कर पाए । पर लेखक के विचारों से कोई इतना आहत कैसे हो सकता है कि उसे आग के हवाले कर दे!
दरिंदगी बहुत ही भयावह है। विचारों का विरोध विचारों के आधार पर ही होना चाहिए । संवाद से मतभेद दूर होने चाहिए। विचारों के प्रतिरोध में प्रतिशोध की ज्वाला भड़काना कायरता है। स्वस्थ समाज में स्वस्थ मानसिकता हो यह काम हमारे चुने हुए प्रतिनिधियों का है। पर रात- दिन के अनर्गल प्रलाप से वे समाज को बंटवारे के गर्त में डुबोते जा रहे हैं। लोग इस क़दर असहिष्णु हो रहे हैं कि दूसरों की जान की कोई कीमत नहीं। सभी का अस्तित्व मिट जाएगा पर जड़ें खोदने की प्रवृत्ति राष्ट्र के विकास में रोड़ा बनकर खड़ी रहेगी। अतीत के काले पन्नों की सियासत पर सुंदर वर्तमान की आधारशिला नहीं रखी जा सकती।
एक स्वस्थ समाज में सभी को विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। पर क्या विचारों की गहराई तक जाने की ज़रूरत नहीं है? क्यों तरह-तरह के विचार जन्म लेते हैं?सबके लिए परिस्थितियां ही कारण है, कोई आसमान से नहीं उत्पन्न हुआ । इस धरती पर उसे जैसा माहौल मिला वही उसके विचारों का जन्मदाता है । विचारों प्रहार विचारों से होना चाहिए अपनी कायरता की नुमाइश में तबाही की ओर कदम बढ़ाना मूर्खता है।