चरण सिंह
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के देश में एक लाख परिवारवाद और वंशवाद से अलग हटकर नेता तैयार करने के बयान के बाद देश में इस मुद्दे पर बहस शुरू हो जानी चाहिए थी। पर नहीं हुई। क्यों नहीं हुई ? इसका बड़ा कारण यह है कि देश के लगभग सभी राजनीतिक दलों को वंश वादियों ने कब्जा रखा है। अधिकतर दलों में राष्ट्रीय अध्यक्ष ऐसे बनते हैं जैसे कि प्राइवेट कंपनी में सीईओ बनते हैं। मतलन कंपनियों की तरह ही राजनीतिक दलों की बागडोर भी उनके बेटे-बेटियां या फिर पत्नियां पार्टी संभाल रही हैं। सपा पर परिवारवादी पार्टी होने का आरोप लगाने वाली मायावती ने भी अपने भतीजे आकाश आनंद को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बना दिया है। अब 27 अगस्त को लखनऊ में होने वाली बसपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उत्तर प्रदेश उप चुनाव के साथ ही राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर भी चर्चा हो सकती है। ऐसे में खबरें आ रही हैं कि इस बैठक में भी मायावती या तो खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष बनी रह सकती हैं या फिर अपने भतीजे आकाश आनंद को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना सकती हैं।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या बसपा में मायावती और उनके भतीजे आकाश आनंद के अलावा कोई नेता राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने लायक नहीं है ? यदि नहीं है तो फिर मायावती ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने लायक दलित नेतृत्व तैयार क्यों ही नहीं किया ? या फिर आकाश आनंद में ऐसी क्या राजनीतिक योग्यता है कि उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाए। आज यदि देश में विचारधारा और जमीनी राजनीति का घोर अभाव है इसका बड़ा कारण परिवारवाद और वंशवाद की राजनीति का हावी होना है। इसमें दो राय नहीं कि देश में जमीनी मुद्दे उठाने के लिए जमीनी नेतृत्व चाहिए और जमीनी नेतृत्व इन परिवारवादियों और वंशवादियों के बस की बात नहीं। ऐसे में विभिन्न दलों में कार्यकर्ताओं को ही वंशवाद और परिवारवाद का विरोध करना होगा। कार्यकर्ताओं को लंबे संघर्ष करने के लिए तैयार रहना होगा। क्योंकि ये वंशवादी अपना विरोध पचा नहीं पाएंगे ऐसे में इन कार्यकर्ताओं का पार्टियों से निष्कासन होता है तो फिर वंशवाद के विरोध में एक बड़ा आंदोलन छेड़ना होगा। कार्यकर्ताओं को भी स्वार्थ और गुलामी से बाहर निकलकर जमीनी संघर्ष करना होगा। समर्पण की राजनीति से ही देश को धारदार नेतृत्व दिया जा सकता है।
जहां तक बसपा की बात है तो बसपा के संस्थापक कांशीराम के स्वास्थ्य खराब होने के बाद २००३ में मायावती पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनी थीं। राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद अभी तक मायावती ही राष्ट्रीय अध्यक्ष बनी हुई हैं। २०१९ में राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ था, जिसमें मायावती को ही अध्यक्ष बनाया गया था। मतलब बसपा में भी परिवारवाद और वंशवाद हावी हो गया है। यदि कांशीराम परिवारवाद और वंशवाद करते तो क्या मायावती बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकती थीं ? ऐसे ही मुलायम सिंह यादव के लिए प्रख्यात समाजवादी नत्थू सिंह ने अपनी विधानसभा सीट छोड़ी थी। यदि वह परिवारवाद करते तो तो क्या मुलायम सिंह यादव आगे बढ़ते ?
ऐसे ही चाहे रामविलास पासवान रहे हों, लालू प्रसाद रहे हो इन नेताओं को समाजवादियों ने आगे बढ़ाया। देश को मायावती, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, शरद यादव, शरद पवार जैसा नेतृत्व इसलिए मिला क्योंकि डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोक नायक जयप्रकाश, कर्पूरी ठाकुर और कांशीराम जैसे जमीनी नेताओं ने परिवारवाद और वंशवाद को दरकिनार कर मेहनती कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाया। चाहे लालू प्रसाद हों, मुलायम सिंह, राम विलास पासवान हों, शरद पवार हों, चरण सिंह हों, शिबू सोरेन हों, बाल ठाकरे हों, राजनाथ सिंह हों, इन सभी नेताओं ने अपने कर्तव्य को भूलकर वंशवाद को बढ़ावा दिया।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या बसपा में मायावती और उनके भतीजे आकाश आनंद के अलावा कोई नेता राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने लायक नहीं है ? यदि नहीं है तो फिर मायावती ने राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने लायक दलित नेतृत्व तैयार क्यों ही नहीं किया ? या फिर आकाश आनंद में ऐसी क्या राजनीतिक योग्यता है कि उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाए। आज यदि देश में विचारधारा और जमीनी राजनीति का घोर अभाव है इसका बड़ा कारण परिवारवाद और वंशवाद की राजनीति का हावी होना है। इसमें दो राय नहीं कि देश में जमीनी मुद्दे उठाने के लिए जमीनी नेतृत्व चाहिए और जमीनी नेतृत्व इन परिवारवादियों और वंशवादियों के बस की बात नहीं। ऐसे में विभिन्न दलों में कार्यकर्ताओं को ही वंशवाद और परिवारवाद का विरोध करना होगा। कार्यकर्ताओं को लंबे संघर्ष करने के लिए तैयार रहना होगा। क्योंकि ये वंशवादी अपना विरोध पचा नहीं पाएंगे ऐसे में इन कार्यकर्ताओं का पार्टियों से निष्कासन होता है तो फिर वंशवाद के विरोध में एक बड़ा आंदोलन छेड़ना होगा। कार्यकर्ताओं को भी स्वार्थ और गुलामी से बाहर निकलकर जमीनी संघर्ष करना होगा। समर्पण की राजनीति से ही देश को धारदार नेतृत्व दिया जा सकता है।
जहां तक बसपा की बात है तो बसपा के संस्थापक कांशीराम के स्वास्थ्य खराब होने के बाद २००३ में मायावती पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनी थीं। राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद अभी तक मायावती ही राष्ट्रीय अध्यक्ष बनी हुई हैं। २०१९ में राष्ट्रीय अध्यक्ष पद का चुनाव हुआ था, जिसमें मायावती को ही अध्यक्ष बनाया गया था। मतलब बसपा में भी परिवारवाद और वंशवाद हावी हो गया है। यदि कांशीराम परिवारवाद और वंशवाद करते तो क्या मायावती बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकती थीं ? ऐसे ही मुलायम सिंह यादव के लिए प्रख्यात समाजवादी नत्थू सिंह ने अपनी विधानसभा सीट छोड़ी थी। यदि वह परिवारवाद करते तो तो क्या मुलायम सिंह यादव आगे बढ़ते ?
ऐसे ही चाहे रामविलास पासवान रहे हों, लालू प्रसाद रहे हो इन नेताओं को समाजवादियों ने आगे बढ़ाया। देश को मायावती, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान, शरद यादव, शरद पवार जैसा नेतृत्व इसलिए मिला क्योंकि डॉ. राम मनोहर लोहिया, लोक नायक जयप्रकाश, कर्पूरी ठाकुर और कांशीराम जैसे जमीनी नेताओं ने परिवारवाद और वंशवाद को दरकिनार कर मेहनती कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ाया। चाहे लालू प्रसाद हों, मुलायम सिंह, राम विलास पासवान हों, शरद पवार हों, चरण सिंह हों, शिबू सोरेन हों, बाल ठाकरे हों, राजनाथ सिंह हों, इन सभी नेताओं ने अपने कर्तव्य को भूलकर वंशवाद को बढ़ावा दिया।