समय सिंधु में क्या पता, डूबे; उतरे पार।
छोटी-सी ये ज़िंदगी, तिनके-सी लाचार॥
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सुबह हँसी, दुपहर तपी, लगती साँझ उदास।
आते-आते रात तक, टूट चली हर श्वास॥
पिंजड़े के पंछी उड़े, करते हम बस शोक।
जाने वाला जायेगा, कौन सके है रोक॥
होनी तो होकर रहे, बैठ न हिम्मत हार।
समय सिंधु में क्या पता, डूबे; उतरे पार॥
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पथ के शूलों से डरे, यदि राही के पाँव।
कैसे पहुँचेगा भला, वह प्रियतम के गाँव॥
रुको नहीं चलते रहो, जीवन है संघर्ष।
नीलकंठ होकर जियो, विष तुम पियो सहर्ष॥
तपकर दुःख की आग में, हमको मिले निखार।
समय सिंधु में क्या पता, डूबे; उतरे पार॥
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दुःख से मत भयभीत हो, रोने की क्या बात।
सदा रात के बाद ही, हँसता नया प्रभात॥
चमकेगा सूरज अभी, भागेगा अँधियार।
चलने से कटता सफ़र, चलना जीवन सार॥
काँटें बदले फूल में, महकेंगें घर-द्वार।
समय सिंधु में क्या पता, डूबे; उतरे पार॥
छोटी—सी ये ज़िंदगी, तिनके-सी लाचार।
समय सिंधु में क्या पता, डूबे; उतरे पार॥
प्रियंका ‘सौरभ’
दीमक लगे गुलाब (काव्य संग्रह)