वृद्धावस्था में मोहमाया जीवन की ज़रूरत नहीं

“मोह-माया” जीवन की ज़रूरत नहीं है, बल्कि यह एक भ्रम है जो हमें सच्ची खुशी से दूर रखता है। यह हमारे जीवन में बाधा डालता है और हमें सही दिशा में आगे बढ़ने से रोकता है। मोहमाया से व्यक्ति का लगाव बुढ़ापे तक ख़त्म नहीं होता है । कई बार देखा गया है कि बुढ़ापे में मानव जीवन का लोभ या कहा जाए आकर्षण मोह माया की तरफ़ ज़्यादा भटकता है। सब जानते हैं बुढापा एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति जीवन के अंतिम चरण में प्रवेश करता है। इस दौरान, मोह-माया से दूर रहने का अर्थ है कि व्यक्ति सांसारिक इच्छाओं और अटैचमेंट से मुक्त हो जाता है। बुढापा में मोह-माया से सन्यास का अर्थ है, जीवन में सच्ची खुशी और शांति पाने के लिए, हमें “मोह-माया” से ऊपर उठना चाहिए। इसका मतलब है कि हमें सांसारिक वस्तुओं और इच्छाओं से लगाव छोड़ना चाहिए और अपने भीतर की सच्चाई को खोजनी चाहिए। जब हम ऐसा करते हैं, तो हम जीवन में सच्ची खुशी और शांति प्राप्त कर सकते है ।वृद्धावस्था में सांसारिक इच्छाओं और भौतिक सुखों से दूर होकर आध्यात्मिक जीवन जीना। यह एक ऐसा मार्ग है जहाँ व्यक्ति सांसारिक संबंधों, संपत्ति और सुखों से मुक्त होकर अपने अंतर्मन को खोजता है और आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करता है। बुढापे में, व्यक्ति अक्सर जीवन के महत्व और सांसारिक चीजों की क्षणभंगुरता को समझता है, जिससे वह मोह-माया से दूर रहने के लिए प्रेरित होता है। वृद्धावस्था में केवल मात्र अपने सुख सुविधा का और अपने स्वास्थ्य का ख़्याल रखना चाहिए ।बुढ़ापा जीवन के अंत का प्रतीक नहीं है, बल्कि एक नई शुरुआत का प्रतीक है ।बुढ़ापा मोहमाया से संयास लेने की अवस्था है । बुढ़ापे में, व्यक्ति को अपनी जीवन यात्रा के बारे में सोचने और नई चीजों को समझने का मौका मिलता है। बुढ़ापा एक आशीर्वाद है, क्योंकि यह हमें परिवार, दोस्तों और समुदाय के महत्व को समझने में मदद करता है। बुढ़ापे में, व्यक्ति को अपने परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताने और उन्हें प्यार करने का मौका मिलता है। बुढ़ापे में, व्यक्ति को अपनी जीवन यात्रा का आनंद लेने और नई चीजों को समझने का मौका मिलता है। बुढ़ापा एक वरदान है, क्योंकि यह हमें अपनी जीवन यात्रा का आनंद लेने का मौका देता है। इंसान के मोह-माया में फंसने का मुख्य कारण उसकी प्राकृतिक प्रवृत्तियाँ, इच्छाएँ, और संवेदनाएँ हैं। भले ही वह यह जानता हो कि संसार अस्थायी है, फिर भी वह अपने मन और इंद्रियों के वश में होकर माया-जाल में उलझ जाता है। मनुष्य जीवन के लक्ष्य है बस सुख की प्राप्ति । सुख दो प्रकार के है । एक लौकिक और दूसरा अलौकिक परम सुख । मोह माया लौकिक सुख है । माना कि ईश्वर ने तुम्हे मोक्ष पाने को इस धरती पर भेजा है। लेकिन मोक्ष के बाद क्या? क्या मोक्ष का मतलब स्वर्ग में फोकट की अय्याशी है? मोक्ष का मतलब तो देव-योनि सुना है मैंने। देवयोनि मतलब देवता, जिसकी पूजा होती है। जिसे संसार चलाने हेतु परमपिता का आदेश मिलता हो। फिर वो साईकल पूरा हुआ तो जन्म मरण का चक्र? यही पता है ना? गुरु, मृत्युलोक की ट्रेनिंग में परफॉर्म किये बिना कैसे देवता बनोगे? बढ़िया इंसान बने बिना कैसे परमपिता तुम्हे एंजेल, फरिश्ता या देवदूत बनाएगा? बॉस कर्म तो करने पड़ेंगे! तो, वेल्ले बाबाओं की बातों में आकर कर्म का विधान ना छोड़ो। अपने आप को साबित करो। ये सांसारिक मोह-माया तुम्हारी परीक्षा है। सिलेबस तुम्हे तुम्हारे ईश्वर, खुदा और गॉड ने दिया है। इसे सत्कर्मों से पास करो।अलौकिक परम सुख मोह माया से छुटकारा पाने पर ही सम्भव है । सभी अलौकिक सुख नहीं पा सकते हैं , इसलिए ईश्वर ने हमारे और आप जैसे लोगों के लिए मोह माया रूपी सुख बनाया है । और फिर यदि काम क्रोध लोभ मोह माया आदि न बनाए होते तो सृष्टि नहीं चल सकती थी । क्योंकि इन मोह माया आदि लौकिक सुख की लालसा में ही मनुष्य परमसुख पाने के मार्ग से भटकता है । जिस कारण जीव शुभ अशुभ कर्म करता है और उन कर्मों के फलस्वरूप बार बार जन्मता और मरता है । यदि ये ना होते तो सभी मोक्ष में होते और सृष्टि असम्भव हो जाती । ईश्वर के सभी कार्य दोष रहित और सम्पूर्ण हैं ।मोह माया भगवान ने नहीं प्रकृति द्वारा बनाई गई है और उसका बढ़ा चढ़ाकर वर्णन किया गया है, न जाने कितने आए और इतने चले गए ,मोह माया को लेने के चक्कर में और अंत में उन्हें बाबा जी का ठुल्लू मिला ।कुछ साथ नहीं ले जा पाए । माया बिलकुल सांप के मुंह में फंसी उस छछूंदर के समान है जो न निगलती बनती है और न ना उगलती , एक बार किसी पर जैसे तैसे धन आने दो, वो अपना पूरा का पूरा मोह उसमें ही झोंक देगा, एक बार आदमी जब बुलंदियों पर चढ़ जाता है, न तब वह उतरता नहीं , गिरकर मरना पसंद करेगा लेकिन उस लेवल से उतरना कभी नहीं ।जीवन के कार्यों को “कर्तव्य” मानकर करें, लेकिन उनके परिणाम के प्रति आसक्त न हों।इंसान मोह-माया में इसलिए फंसता है क्योंकि उसकी प्रकृति और इच्छाएँ उसे इस संसार से जोड़ती हैं। लेकिन आत्मज्ञान, वैराग्य, और ध्यान के माध्यम से वह इस जाल से मुक्त हो सकता है। गीता के अनुसार, जब व्यक्ति “निष्काम कर्म” (फल की चिंता किए बिना कर्म) करता है, तभी वह मोह से बाहर निकलता है।बुढापा में सन्यास लेने से व्यक्ति को सांसारिक बंधनों से स्वतंत्रता मिलती है और वह अपने मन को शांत करके आत्म-ज्ञान प्राप्त कर सकता है। यह एक ऐसा मार्ग है जहाँ व्यक्ति अपने असली रूप को पहचानता है और जीवन के उद्देश्य को समझता है। बुढापा में मोह-माया से सन्यास का अर्थ है सांसारिक इच्छाओं और भौतिक सुखों से दूर होकर आध्यात्मिक जीवन जीना। यह एक ऐसा मार्ग है जो व्यक्ति को आत्म-ज्ञान प्राप्त करने और मोक्ष की प्राप्ति में मदद करता है।मनुष्य की 5 से 25 वर्ष तक की आयु में प्रभु की भक्ति करना श्रेष्ठ है। वृद्धावस्था में भक्ति करना केवल समय पास करने के ही बराबर है। मोह-माया को त्यागे बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है। मोहमाया ज़रूरत है। जीवन नहीं है ।यह एक महत्वपूर्ण विचार है क्योंकि “मोह-माया” जीवन में एक बड़ी बाधा है। हमें इसे पहचानना चाहिए और इससे दूर रहना चाहिए। तभी हम जीवन में सच्ची खुशी और शांति प्राप्त कर सकते हैं।

ऊषा शुक्ला

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