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गहराती जा रही जल संकट की समस्या, उपेक्षा के कारण नाले में तब्दील हो गयी नदियाँ

नदी-नाला, ताल-तलैया सूखे, भूगर्भीय जल स्तर जाने लगा पाताल

राम विलास
राजगीर। तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि होने से भूगर्भीय जल स्तर तेजी से नीचे खिसक रहा है। राजगीर अनुमंडल के ताल – तलैया, नदी -नाले, आहार – पोखर सभी सुख गए हैं। इससे लोगों के सामने जल संकट की समस्या चरम पर पहुंच गई है। शहरी क्षेत्रों के साथ ग्रामीण इलाकों के कुएं, चापाकल और जेनरल बोरिंग अपवाद छोड़कर फेल हो चुके हैं।

पारंपरिक जलस्रोतों के सूखने के कारण मनुष्य से लेकर पशु – पक्षी तक के लिए पीने के पानी का घोर संकट हो रहा है। अनुमंडल के सुरसर और जीवनदायिनी नदियों में सकरी, पंचाने और पैमार आदि प्रमुख हैं। उन नदियों में पहले सालों निर्मल जलधाराएं बहती थीं। सिंचाई के साथ पीने में भी उसका इस्तेमाल होता था। करीब दो दशक से पारंपरिक जलस्रोतें सरकारी उपेक्षा और सामाजिक ज्यादती का शिकार हो गया है।

यही कारण ये सभी नदियां बरसाती बनकर रह गई है. आहर, पोखर, ताल तलैया, सबके सब शोभा की वस्तु बन कर रह गयी है। जीवन रेखा कहलाने वाली ये नदियाँ अब कुछ महीना को छोड़कर सालों सूखी रहती हैं। सिंचाई और स्नान की बात छोड़िये पशु- पक्षियों के उपयोग के लायक भी नहीं रह गयी है।

स्थानीय लोगों की माने तो अनुमंडल के पश्चिम में पैमार नदी और पूरव में पंचाने तथा सकरी नदी इलाके के किसानों के लिए प्राचीन काल से ही जीवन रेखा मानी जाती रही है। यह वही पंचाने नदी है, जिसके पानी से उदंतपूरी विश्वविद्यालय के आचार्य और छात्र अपनी प्यास बुझाते तथा दैनिक जीवन में उपयोग करते थे। पैमार नदी के पानी का इस्तेमाल कभी प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के आचार्य और विद्यार्थी करते थे।

तब से करीब दो दसक पहले तक इन नदियों में सालों निर्मल जल कलकल छलछल कर प्रवाहित होता रहता था। उसके पानी का भरपूर उपयोग किसान सिंचाई के रूप में करते थे। मनुष्य से लेकर पशु -पक्षियों तक के लिए यह काफी लाभदायक हुआ करता था. यह सबों के लिए जीवन दायिनी साबित होता था। पशु-पक्षियों भी इसके पानी को पीकर निहाल होते थे। उनकी आबादी भी मनुष्यों की तरह खूब हुआ करती थी।

सरकारी उपेक्षा और स्थानीय लोगों के कुविचार व अतिक्रमण करने के कारण ये सभी नदियों और पारंपरिक जलस्रोतों के अस्तित्व संकट के दौर से गुजर रहा है। नदियाँ हो या आहर – पोखर, पइन – नहर, नाला सभी के पाट ( चौड़ाई) सिमट गये हैं। पहले जैसी ये नदियाँ अब चौड़ी नहीं रही है। नदियाँ गादों से भरने और अतिक्रमण होने के बाद नाला का आकर ले लिया है।

अंचलाधिकारी और राजस्व विभाग के जिम्मेदारों की अकर्मण्यता और स्वार्थ लोलुपता के कारण पारंपरिक जलस्रोतों की यह दुर्दशा है। जानकारों की माने तो राजस्व पदाधिकारी अपने निजी लाभ के लिए लोकभूमि और पारंपरिक जलस्रोतों की जमीन को नियम कानून को ताक पर रखकर जमाबन्दी कायम कर रहे हैं। उसी का नतीजा है कि पारंपरिक जलस्रोतें लगातार सिकुड़ती जा रही है। उनमें अनेकों जलस्रोतें अब खोजने पर भी नहीं मिलते हैं।

वह केवल नक्शा की शोभा बनकर रह गयी है। जिम्मेदारों द्वारा उचित रखरखाव नहीं करने के कारण यहां की नदियां अब बरसाती नाला के रूप में तब्दील हो गई है। सरकारी उदासीनता के कारण अनुमंडल की छोटी- बड़ी नदियों का दम घुटने लगा है। उसके अस्तित्व समाप्त होने के कगार पर पहुंच गया है। जानकार बताते हैं कि नदियों की सफाई के नाम पर योजनाएं तो बनाई जाती है। लेकिन उसका निष्पादन कागज पर करके सरकारी कोष का बंदरबांट किया जाता है।

फलस्वरुप नदी गहरी होने के बदले दिन पर दिन उथली होती जा रही है। राजगीर अनुमंडल की सुरसर नदियां बरसाती नाला बनकर रह गई है। नदी किनारे बसे गांव के हजारों एकड़ जमीन की सिंचाई पहले नदी से हुआ करती थी। नदी के पानी से लहराते फसल देखकर किसान खुश हुआ करते थे. इन नदियों से निकले नहर भी बेकार साबित हो रही हैं।

बिंडीडीह के किसान प्रो शिवेंद्र नारायण सिंह, डोमन सिंह, पावाडीह के जनार्दन सिंह, चंडी मौ के प्रशांत कुमार, बेन के अनिल कुमार, नीरपुर के पंकज कुमार, डूमरी के विद्यानंद प्रसाद, पहेतिया के रामरुप प्रसाद, बिच्छाकोल के सुधीर कुमार, सैदी के नवेन्दू झा एवं अन्य बताते हैं कि करीब दो दशक से ये सभी नदियां मृतप्राय हो गई है। ताल तलैया भी सूख गये हैं। इससे किसानों की फसल से लेकर मनुष्य, जानवर व पक्षी तक प्रभावित हो रहे हैं।

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