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मंगल ग्रह की सतह पर 60 करोड़ सालों तक होती रही उल्का पिंड की ताबड़तोड़ बारिश!

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सरिता मौर्य

दियों से ब्रह्माण्ड मानव को आकर्षित करता रहा है। इसी आकर्षण ने खगोल वैज्ञानिकों को मजबूर किया है कि आखिर पृथ्वी के बाहर क्या चल रहा ? ब्रह्माण्ड में कौन सी हलचल हो रही है ? तो इन्ही सवालों के जवाब जानने के लिए खगोल वैज्ञानिक अपने शोध में लग गए, जिससे हमें ये पता चला कि हमारे नौ ग्रह हैं और पृथ्वी गोल है। जैसी कई अहम जानकारी मिली है तो इसी कड़ी में वैज्ञानिकों ने एक ऐसा ग्रह ढूंढा है, जहां पृथ्वी की ही तरह वहां पर भी बारिश  होती है।
दरअसल, वैज्ञानिक जिस अनोखे ग्रह की बात कर रहे है वह मंगल ग्रह  है। यह सौरमंडल में सूर्य से चौथा ग्रह है और इसे “लाल ग्रह” के नाम से भी जाना जाता है, लेकिन इस ग्रह पर नए अध्ययन में यह बात पता चली है कि मंगल ग्रह की सतह पर 60 करोड़ सालों तक लगातार क्षुद्रग्रहों यानी एस्टोरॉयड की ताबड़तोड़ बारिश होती रही। जहां हम लोग कुछ दिनों की पानी वाली बारिश से परेशान हो जाते है तो वहीं पर यहां तो इतने सालों से पत्थरों की बारिश हो रही है। और वो भी दो दिन नहीं, बल्कि 60 करोड़ साल तकऔर इसी वजह से मंगल ग्रह की सतह पर इतने ज्यादा गड्ढे दिखते हैं। आमतौर पर वैज्ञानिक सतह पर मौजूद गड्ढों की वैज्ञानिक गणना करके ग्रह की उम्र का पता लगाते हैं। अगर ज्यादा गड्ढे दिखते हैं, तो ज्यादा सटीक उम्र का पता लगाया जा सकता है। क्रेटर यानी कि गड्ढों के निर्माण की प्रक्रिया बेहद जटिल होती है, क्योंकि ये एक अनुमानित जानकारी ही देते हैं, क्योंकि अब कोई मंगल ग्रह पर तो गया नहीं है कि वहां जाकर वो गड्ढों की जांच करे, क्योंकि एस्टेरॉयड्स की टक्कर से पहले कई तो वायुमंडल में जलकर खत्म हो जाते हैं। सिर्फ बड़े वाले ही जलते-बुझते और घिसते हुए सतह पर टकराते हैं, वो ही सतह पर टकराकर गड्ढे बनाते हैं। एक नई रिसर्च में वैज्ञानिकों की टीम ने न्यू क्रेटर डिटेक्शन एल्गोरिदम की मदद से मंगल ग्रह के 521 गड्ढों की स्टडी की। इनमें से हर गड्ढे का व्यास कम से कम 20 किलोमीटर है, लेकिन सिर्फ 49 गड्ढे ऐसे हैं जो 60 करोड़ साल पुराने हैं। इनका निर्माण लगातार हुआ है।  इससे पता चला कि 60 करोड़ सालों तक मंगल की सतह पर एस्टेरॉयड्स की बारिश होती रही है।
ऑस्ट्रेलिया के कर्टिन यूनिवर्सिटी के प्लैनेटरी साइंटिस्ट और इस स्टडी में शामिल शोधकर्ता एंथनी लागेन के अनुसार यह स्टडी पुराने अध्ययनों को खारिज कर देती है, जो ये कहते थे कि क्रेटर एक छोटे समय में बने होंगे। क्योंकि ये गड्ढे खासतौर से बड़े वाले विशालकाय एस्टेरॉयड के टकराने से बने होंगे। एस्टेरॉयड टूटा होगा. वो टुकड़े प्रेशर से सतह पर आसपास गिरे होंगे।
एंथनी लागेन के अनुसार जब दो बड़ी चीजें आपस में टकराती हैं, तो उनके टुकड़े टकराव से निकलने वाले दबाव से विपरीत दिशाओं में फैलते हैं. उनसे और इम्पैक्ट क्रेटर बनते हैं।  इन्हीं में से कुछ इतनी तेजी से वापस लौटते हैं कि वो अंतरिक्ष में तैरने लगते हैं। वह भी ग्रह की ऑर्बिट में या फिर उससे बाहर दूसरे ग्रह की ओर बढ़ने लगते हैं. किसी भी ग्रह पर क्रेटर बनने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं होती, जितने आम लोग समझते हैं।
एंथनी ने यह भी बताया कि मंगल ग्रह के ओर्डोविसियन स्पाइक काल का वैज्ञानिकों को फिर से अध्ययन करना होगा, क्योंकि पहले ये माना जाता था कि  इसी काल में सबसे ज्यादा गड्ढे बने होंगे और यह काल करीब 47 करोड़ साल पुराना होगा।